Shyam Kishore Choubey
कहने की बात नहीं कि रघुवर दास या सरयू राय के मुकाबले हेमंत सोरेन बहुत अधिक जवान होने के बावजूद राजनीतिक रूप से उनके मुकाबले अपेक्षाकृत कम अध्यवसायी हैं. नेता प्रतिपक्ष होने के नाते उनको जितनी मिहनत करनी चाहिए थी, उतनी शायद वे इसलिए भी नहीं करते थे कि आये दिन बैठे-बिठाये मुद्दे मिलने लगे. स्थिति ऐसी बन गयी कि उस काल में सदन चलना मुश्किल होने लगा. हालांकि झारखंड विधानसभा कभी भी उस निश्चिंत भाव से नहीं चली, जब सत्ता पक्ष और प्रतिपक्ष राज्य के विकास के लिए गहरे मंथन के दौर से गुजरे हों. इसे देश का आदर्श विधानसभा बनाना तो खैर सपने की ही बात हो गई. अधिकांश नीतियां नौकरशाही तय करती रही है. सबसे बड़ी बात यह कि पिछले लगभग 40 वर्षों से केंद्रीय योजनाओं की बाढ़ आने लगी है. झारखंड जैसा राज्य उनको ही अमलीजामा पहनाते-पहनाते थक-हार जाता है. ऐसे में राज्य स्तरीय योजनाएं कम ही बन पाती हैं.
संतोषी की मौत के साल भर के अंदर गढ़वा, रामगढ़, पाकुड़, जामताड़ा, चतरा, गिरिडीह आदि जिलों से भूख से 22 लोगों की मौत की खबरें आईं. मंत्री सरयू राय ने हालांकि सतर्कता बरतते हुए भूख से मौत की परिभाषा तय करने के लिए कमिटी गठित कर दी और इसका प्रोटोकॉल निर्धारित कर दिया लेकिन प्रतिपक्ष के हाथ तो एक बड़ा मुद्दा मिल गया. जैसा कि आम तौर पर होता है, सरकार ने भूख से एक भी मौत न होने का दावा जारी रखा.
अपनी देसी सरकारें इस राज्य को प्रकृति से मिले खनिज, वन और सुहाने मौसम जैसे खजानों को भुनाने की सोचती तो जरूर रहीं, लेकिन शिद्दत और समर्पण से कार्यरूप न दे सकीं. यहां इतने किस्म के खनिजों का अपार भंडार है कि यदि उनके फर्स्ट स्टेज वैल्यू एडिशन के ही कारखाने लगा दिये जायें, तो गरीबी दूर भागती नजर आएगी. लेकिन 21 वर्षों में कितने कारखाने लगे और बाकायदा चल रहे हैं, इस सवाल का जवाब ढूंढने के लिए बहुत दिमाग खपाना पड़ेगा. निवेशकों की सुविधा के लिए 2004 में नेपाल हाउस सचिवालय में सिंगल विंडो सिस्टम की नींव डाली गयी थी, आजतक वह सामान्य गति पकड़ सका है क्या? खनिज खनन और उसके व्यापार का जो वैध/अवैध सिलसिला एकीकृत बिहार के जमाने में चल रहा था, कमोबेश वही आजतक कायम है. राज्य में फल-सब्जियों के बहुतायत उत्पादन को देखते हुए 2008 में मेगा फूड पार्क का शिलान्यास किया गया था, लेकिन वह भी एक तरह से वहीं तक सीमित रह गया. और तो और चाहे सिंदरी फर्टिलाइजर हो कि जपला का सीमेंट कारखाना, बंद हुआ सो बंद ही रह गया. अलबत्ता, राज्य में औद्योगिक निवेश आमंत्रित करने के नाम पर नेताओं और पदाधिकारियों की विदेश दौड़ में कोई कमी नहीं रही. चली आ रही परिपाटी का निर्वाह करते हुए रघुवर भी दौड़े. उधर सिंहभूम में लौह अयस्क खनन का मुद्दा हो कि स्किल डवलपमेंट के माध्यम से रोजगार उपलब्ध कराने का मामला, सबमें किसी न किसी किस्म का लोचा सामने आता रहा. मोमेंटम झारखंड के नाम पर ‘हाथी उड़ाने’ का बहुचर्चित कांड भी खूब गूंजा. ऐसे हर मौके पर सरयू प्रतिपक्ष की भूमिका में नजर आने लगे.
मंत्री सरयू राय ने पड़ताल करायी तो पता चला कि मुख्य सचिव राजबाला वर्मा ने आधार से राशन कार्ड लिंक न होने पर सरकारी अनाज न देने का आदेश दिया था. उनकी बात कौन टाल सकता था? इस मसले पर सरकार में ही खूब हंगामा हुआ और अंततः आधार लिंक का मसला खत्म कर दिया गया. इसी बीच सरयू राय की तत्कालीन महाधिवक्ता अजीत कुमार, जो झारखंड राज्य बार कौंसिल के अध्यक्ष भी थे, से ठन गयी.
खुद सरयू के विभाग खाद्य आपूर्ति का भी मामला तब खूब तूल पकड़ने लगा, जब सिमडेगा जिले की एक दलित लड़की संतोषी की 28 सितंबर 2017 को मौत हो जाने की खबर सामने आयी. पता चला कि उसका राशन कार्ड आधार से लिंक न होने के कारण उसे सरकारी खाद्यान्न नहीं मिल पा रहा था. एक महीने के अंदर 21 अक्टूबर को दूसरी खबर आई कि कई मर्तबा आवेदन देने के बावजूद राशन कार्ड से वंचित रहे झरिया के रिक्शा चालक 40 वर्षीय बैद्यनाथ रविदास की भी इहलीला भूख से समाप्त हो गई. तीसरे दिन पता चला कि दो महीने से राशन न मिलने के कारण देवघर का 60 वर्षीय रूपलाल मरांडी चल बसा. संतोषी की मौत के साल भर के अंदर गढ़वा, रामगढ़, पाकुड़, जामताड़ा, चतरा, गिरिडीह आदि जिलों से भूख से 22 लोगों की मौत की खबरें आईं. मंत्री सरयू राय ने हालांकि सतर्कता बरतते हुए भूख से मौत की परिभाषा तय करने के लिए कमिटी गठित कर दी और इसका प्रोटोकॉल निर्धारित कर दिया लेकिन प्रतिपक्ष के हाथ तो एक बड़ा मुद्दा मिल गया. जैसा कि आम तौर पर होता है, सरकार ने भूख से एक भी मौत न होने का दावा जारी रखा.
मंत्री सरयू राय ने पड़ताल करायी तो पता चला कि मुख्य सचिव राजबाला वर्मा ने आधार से राशन कार्ड लिंक न होने पर सरकारी अनाज न देने का आदेश दिया था. उनकी बात कौन टाल सकता था? इस मसले पर सरकार में ही खूब हंगामा हुआ और अंततः आधार लिंक का मसला खत्म कर दिया गया. इसी बीच सरयू राय की तत्कालीन महाधिवक्ता अजीत कुमार, जो झारखंड राज्य बार कौंसिल के अध्यक्ष भी थे, से ठन गयी. पहले एक खनन कंपनी को लेकर और फिर जमशेदपुर के एक प्लॉट की जमाबंदी के मसले पर महाधिवक्ता की भूमिका पर उन्होंने रघुवर को पत्र दिया, कैबिनेट में सवाल किया, प्रेस कांफ्रेंस की और महाधिवक्ता को पदमुक्त करने की मांग की. हुआ तो कुछ नहीं, अलबत्ता स्टेट बार कौंसिल ने सरयू के विरुद्ध निंदा प्रस्ताव पारित कर दिया. यह अपने-आप में अनोखा मामला था, जब बार कौंसिल ने मंत्री के विरूद्ध निंदा प्रस्ताव पारित किया हो. इसके बाद 2018 के अंतिम दिनों से सरयू ने कैबिनेट की बैठकों में जाना ही बंद कर दिया. मुख्यमंत्री रघुवर दास और मंत्री सरयू राय की अनबन की गूंज तब भी हुई, जब सरकार के अस्तित्व में आने के काल से ही सदन को व्यवस्थित तरीके से नहीं चला सकने का मामला उठाते हुए सरयू ने संसदीय कार्य मंत्री के पद से 29 जनवरी 2018 को इस्तीफा दे दिया. वे खाद्य आपूर्ति मंत्री बने रहे. रघुवर को न तो उगलते बन रहा था, न निगलते. कई दलों के गठबंधन वाली सरकारों में कैबिनेट में एक दूसरे से न पटने की बात तो समझ में आती है, यहां तो एक ही दल के मुख्यमंत्री और मंत्री में अजीबोगरीब तनातनी झारखंड की राजनीति पर ही प्रश्नचिह्न लगा रही है. (जारी)
(नोटः यह श्रृंखला लेखक के संस्मरणों पर आधारित है. इसमें छपी बातों से संपादक की सहमति आवश्यक नहीं है.)
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