Shyam Kishore Choubey
प्रायः 11 महीनों के राष्ट्रपति शासन के अंत में हुए चुनाव के फलस्वरूप 30 दिसंबर को नयी सरकार ने शपथ ले ली. इस प्रकार तीसरी विधानसभा अस्तित्व में आयी. इसका पांच वर्षों का कार्यकाल कई मायने में विशिष्ट रहा. तीसरी विधानसभा में न केवल शिबू
सोरेन तीसरी मर्तबा मुख्यमंत्री बने, अपितु उनकी छत्रछाया में राजनीति का ककहरा सीखनेवाले किंतु अब प्रबल प्रतिद्वंद्वी अर्जुन मुंडा को भी तीसरी ही मर्तबा मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला. इस विधानसभा का कार्यकाल समाप्त होते-होते राज्य की राजनीति में एक नये सितारे के तौर पर शिबू की तृतीय संतान हेमंत सोरेन भी मुख्यमंत्री बने. सदन के इसी कार्यकाल में दो बार राष्ट्रपति शासन भी लगा. इन पांच वर्षों की अहमियत यह कि शिबू और मुंडा दोनों ही मुख्यमंत्री बनने दिल्ली से आये, क्योंकि वे लोकसभा के सदस्य थे. झामुमो की खासियत यह कि उसने कभी भाजपा तो कभी यूपीए संग मिलकर सरकार बनायी. न तो विधानसभा भंग होने दी, न ही मध्यावधि चुनाव की नौबत आने दी. इन परिस्थितियों को देखते हुए आज अंदाजा लगाया जा सकता है कि उन दिनों राज्य की राजनीति कितनी घालमेल वाली थी. जहां तक विकास और राज्य की तरक्की का सवाल है, हर सरकार ने कुछ-कुछ योगदान दिया, जिसे वे बहुत कुछ कहती रहीं, जबकि गरीबी, अशिक्षा, अस्वास्थ्यप्रद स्थितियों में कोई फर्क न पड़ा.
कहानी अब तफसील से. भले ही अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने आया राम, गया राम की प्रवृत्ति पर रोक लगाने की गरज से 2004 में दल-बदल कानून को कड़ा कर दिया था, किंतु उसी दशक के अंत में इस कानून को धता बताने की नींव भी पड़ गयी थी. इस कानून में चुनाव के समय दल-बदल पर कोई पाबंदी नहीं लगायी गयी थी, लगायी भी नहीं जा सकती. सो, 2009 के चुनाव के पहले कई लोगों ने पाला बदला. 2006 में भाजपा से अलग हुए बाबूलाल मरांडी के दल झाविमो ने पहली बार 11 सदस्यों के साथ विधानसभा में इंट्री मारी. भाजपा झारखंड में हुए इस दूसरे चुनाव में पहले के 30 के सापेक्ष बड़ी तेज फिसलन के साथ 18 विधायकों पर सिमट गयी. झामुमो पूर्वापेक्षा एक बढ़त हासिल कर भाजपा की बराबरी पर आ गयी. कांग्रेस ने भी उड़ान भरते हुए 14 सीटें प्राप्त की. राजद और आजसू 05-05 की बराबरी पर आये. मधु कोड़ा ने छह महीने पहले हुए लोकसभा चुनाव में शिरकत कर चाईबासा सीट से दिल्ली का रुख किया और अपनी परंपरागत सीट जगन्नाथपुर अपनी पत्नी गीता कोड़ा के हवाले कर दी. वे विजयी रहीं. झापा के एनोस एक्का और उनके निर्दलीय मित्र हरिनारायण राय भी जीत गये. झामुमो की शीर्षस्थ कुर्सी हासिल करने में नाकाम रहे स्टीफन मरांडी विद्रोही तो बने लेकिन दुमका में वे हेमंत सोरेन से मुंह की खा गये.
विधानसभा चुनाव के आंकड़े बता रहे हैं कि एक या दो दलों के मेल से भी सरकार बनाना संभव नहीं था. इसलिए राजनीति का फार्मूला नंबर एक ही कारगर हो सकता था, बेमेल की दोस्ती. भाजपा ने बाजी मार ली. झामुमो को उसने पटा लिया. साथ देने के लिए छोटे-मोटे दल तो मुंह बाये खड़े ही थे. भाजपा ने छोटे भाई की भूमिका स्वीकार करते हुए शिबू सोरेन को तीसरी मर्तबा मुख्यमंत्री बनने का मौका दे दिया. 30 दिसंबर 2009 को शिबू ने दो उपमुख्यमंत्रियों भाजपा के रघुवर दास और आजसू के सुदेश महतो के साथ शपथ लेकर पदभार ग्रहण किया. आजसू के महज पांच ही विधायक थे, लेकिन सवाल सरकार बनने का था, सो सुदेश को पथ निर्माण, वन एवं पर्यावरण, ग्रामीण विकास, एनआरईपी, पंचायती राज, भवन और कला संस्कृति जैसे विभागों के साथ-साथ डिप्टी सीएम का तमगा भी देना पड़ा. उनके मौसा चंद्रप्रकाश चौधरी को जल संसाधन और पेयजल-स्वच्छता तथा एक अन्य विधायक उमाकांत रजक को श्रम विभाग की सौगात देनी पड़ी. 18-18 विधायकों वाले झामुमो और भाजपा को चार-चार मंत्रियों पर संतोष करना पड़ा. झामुमो के हिस्से के इन्हीं चार पदों में एक मुख्यमंत्री पद भी शामिल था. जदयू के दो विधायकों में से सुधा चौधरी को मंत्री बनाया गया. उनके साथी विधायक राजा पीटर ललबतिया पाने में चूक गये, क्योंकि उन्होंने ही तो कुछ महीने पहले शिबू को उपचुनाव में पछाड़ा था. दूसरी बात यह कि सुधा चौधरी बिहार विधानसभा के स्पीकर की बहन थीं, जो उनकी एक्स्ट्रा क्वालिफिकेशन थी. यह संरचना देखकर ही समझ लिया जा सकता है कि ‘सरकार’ बनने के लिए कैसे-कैसे समझौते करने पड़ते हैं.
त्रिशंकु विधानसभा में सरकार की बेबसी समझने के लिए कुछ और बातें गौर करने लायक हैं. 30 दिसंबर 2009 को मुख्यमंत्री और दो उपमुख्यमंत्रियों का शपथ ग्रहण, 7 जनवरी 2010 को विश्वासमत, 9 जनवरी को शेष मंत्रियों के नाम की घोषणा और शपथ ग्रहण, 12 जनवरी को मंत्रियों के नाम विभागों का अलॉटमेंट और तीन दिनों बाद 15 जनवरी को विभागों में फेरबदल. सुदेश को पूर्व में मिले पथ निर्माण व वन के अलावा ग्रामीण विकास, एनआरईपी और पंचायती राज विभाग भी सौंपने पड़े. पूर्व में पंचायती राज और एनआरईपी झामुमो कोटे के मंत्री हुसैन अंसारी और ग्रामीण विकास विभाग झामुमो के ही मथुरा प्रसाद महतो के जिम्मे था. सुदेश को समर्थन की अंततः पूरी कीमत मिली.
खैर, सरकार चलने लगी. भाजपा के हार्डकोर कैडर माने जाने वाले उपमुख्यमंत्री रघुवर दास शिबू सोरेन के कसीदे पढ़ने लगे. लेकिन यह क्या? अप्रैल में केंद्र की मनमोहन सरकार को अमेरिका के साथ परमाणु समझौते के सवाल पर विश्वासमत प्राप्त करना था, तो शिबू सोरेन ने उनके पक्ष में बटन दबा दिया. भाजपा इस पर रेस हो गयी. दरअसल, केंद्र में झामुमो यूपीए के फोल्डर में था, जबकि राज्य में वह एनडीए का पार्टनर बना हुआ था. मुख्यमंत्री शिबू सोरेन सफाई देते फिरे कि यह गलती से हो गया. उनकी बात चाहे सच भी हो लेकिन भाजपा कैसे माफ कर सकती थी. शिबू की मनःस्थिति ऐसे भी समझी जा सकती है कि पिछले वर्ष यानी 2009 में हुए लोकसभा चुनाव के बाद 21 मई को उनके प्रिय ज्येष्ठ पुत्र दुर्गा सोरेन का भरी जवानी में आकस्मिक निधन हो गया था. दुर्गा की कुछ व्यक्तिगत कमजोरियों को छोड़ दिया जाये, तो वे लोकप्रिय नेता थे, दो बार विधायक चुने जा चुके थे, बेहतर संगठनकर्ता थे और कार्यकर्ताओं का बहुत सम्मान करते थे. शिबू के वे उत्तराधिकारी हो सकते थे. उनके देहांत का शिबू की मानसिक दशा पर स्पष्ट प्रभाव देखा जाता था, अभी भी देखा जा सकता है. दुर्गा की कमी पूरी करने के लिए ही शिबू ने दिसंबर 2009 के विधानसभा चुनाव में द्वितीय पुत्र हेमंत सोरेन को दुमका सीट से और दुर्गा की रिक्त सीट जामा से उनकी पत्नी सीता सोरेन को उतारा. सीता सोरेन पहली स्ट्राइक में ही जीतने में कामयाब रही. हेमंत ने हालांकि 2005 में दुमका से चुनाव लड़ा था, लेकिन तब वे तीसरे नंबर पर रहे थे. झामुमो के ही पार्टी के बागी नेता स्टीफन मरांडी ने निर्दलीय चुनाव लड़कर जीत हासिल की थी. 2009 में हेमंत सोरेन जीत हासिल कर विधानसभा पहुंचे.
जारी)
(नोटः यह श्रृंखला लेखक के संस्मरणों पर आधारित है. इसमें छपी बातों से संपादक की सहमति आवश्यक नहीं है.)