Shyam Kishore Choubey
19 जनवरी 2009 को लागू राष्ट्रपति शासन एक कालावधि विस्तार के साथ 29 दिसंबर तक यानी लगभग पूरे साल तक कायम रहा. नौ वर्ष का झारखंड छह सरकारें देख चुका था. मौज की बात यह कि राष्ट्रपति शासन के दौरान वही वीएस दुबे राज्यपाल के प्रधान सलाहकार नियुक्त किये गये थे, जो राज्य के पहले मुख्य सचिव थे. 2005 में पहले चुनाव के बाद गठित विधानसभा यह देखकर खुद ही हैरान रही कि महज चार साल में उसे चार सरकारों का सामना करना पड़ा. इस राजनीतिक बाजीगरी ने झारखंड की अस्थिरता पूरी दुनिया के सामने बयान की. इस परिस्थिति में राज्य की बेचैनी समझी जा सकती है, क्योंकि देश का लगभग 40 फीसद कोयला, लोहा, अभ्रक, एल्युमिना, कॉपर, सोना और यहां तक कि यूरेनियम अपनी कोख में रखने के बावजूद 40 प्रतिशत बीपीएल आबादी के साथ यह गरीब राज्यों की सूची में दर्ज रहा. अमूमन 30 प्रतिशत वन क्षेत्र वाला यह प्रकृति पुत्र हर सरकार से बस यही सुनने को अभिशप्त रहा कि इसे हम नंबर वन बना देंगे. इन नौ वर्षों में राज्य का वार्षिक बजट 7,174.12 करोड़ से बढ़कर 20 हजार करोड़ तक जा पहुंचा. राष्ट्रपति शासन होने के कारण 2009-10 का बजट संसद में पेश किया गया. इन नौ वर्षों में छठे-छमासे सरकारें बनने-गिरने के बावजूद अपने राजनीतिक दलों और राजनेताओं की बाजीगरी की ‘दाद’ दीजिए कि उन्होंने एक बार भी मध्यावधि चुनाव की नौबत नहीं आने दी. शिबू के इस्तीफे के बाद उम्मीद थी, जिसे राष्ट्रपति शासन को अवधि विस्तार देकर नाकाम कर दिया गया.
इन नौ वर्षों ने सबसे बड़ा दर्द नक्सली आतंक के रूप में दिया, जो आगे भी जारी रहा. इसी दौर में तीन देदीप्यमान, अत्यंत लोकप्रिय, जानकार और ग्रास रूट के नेताओं को नक्सलियों ने ग्रास बना लिया. माले के जाने-माने विधायक 50 वर्षीय महेंद्र प्रसाद सिंह को उनके ही विधानसभा क्षेत्र बगोदर के निकट दुर्गीधवैया में 16 जनवरी 2005 को नक्सलियों ने गोलियों से भून दिया. इसी प्रकार झामुमो के 44 वर्षीय सांसद सुनील महतो को जमशेदपुर से कुछ दूर बागुड़िया में फुटबॉल मैच के दौरान 4 मार्च 2007 को और समता पार्टी के विधायक रमेश सिंह मुंडा को बुंडू बाजार के निकट 9 जुलाई 2008 को एक सार्वजनिक कार्यक्रम के दौरान नक्सलियों ने गोलियों का शिकार बनाया. इतना ही नहीं, प्रथम मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी के द्वितीय पुत्र अनूप मरांडी को गिरिडीह के देवरी प्रखंड अंतर्गत चिलखारी में फुटबॉल मैच और जतरा के दौरान 26 अक्टूबर 2007 की रात नक्सलियों ने गोलियों की बौछार कर मार डाला. नक्सली आतंक इतना बढ़ गया था कि शाम ढलने के बाद राज्य में एक जगह से दूसरी जगह का आवागमन बंद हो गया था. आम आदमी की कौन कहे, पुलिस बल तक को वे कुछ न समझते थे. 2005 में गिरिडीह में होमगार्ड की आर्मर से नक्सलियों ने सभी 71 हथियार लूट लिये थे. 2003-04 में चाईबासा के जंगल में एलआरपी पर निकले 31 पुलिस बलों को नक्सलियों ने शहीद कर दिया. पुलिस की टुकड़ी का नेतृत्व कर रहे तत्कालीन एसपी किसी तरह जान बचाकर भाग निकले थे. हमें यह मानकर चलना होगा कि उस दौरान एक भी सरकारी निर्माण कार्य बिना नक्सलियों को भेंट चढ़ाये पूरा नहीं हो पाता था. जैसा कि सुनने में आया था, नक्सली आतंक से चिढ़ी तत्कालीन मुख्य सचिव लक्ष्मी सिंह ने कैबिनेट के समक्ष मौखिक रूप से प्रस्ताव रखा था कि क्यों न हर निर्माण कार्य की लागत राशि 20 प्रतिशत बढ़ा दी जाये, ताकि यह बढ़ी राशि नक्सलियों को देकर उनका मुंह बंद कर दिया जाये.
तमाम नकारात्मक छवियों के बावजूद बिहार से कटकर अस्तित्व ग्रहण के बाद झारखंड में बहुत कुछ हुआ, जो इसकी बेचैनी में छिपा हुआ सुख कहा जायेगा. ऐसा भी नहीं है कि राज्य के तमाम नेता गलत ही रहे या कि सभी नौकरशाह निठल्ले और मीडिया निष्क्रिय बना रहा. यह भी नहीं है कि जनता नामसमझ बनी रही. यही जनता चुनाव-दर-चुनाव अमूमन 50 प्रतिशत विधायकों को बदलकर अपनी मनोभावना से अवगत कराती रही. उसने 2005 के चुनाव में भी ऐसा ही किया और 2009 के चुनाव में भी. बाद के चुनावों में भी उसने यही रुख कायम रखा. हां, 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के काफी पहले सिदो-कान्हु और चांद-भैरव के नेतृत्व में हुए संताल विद्रोह या उसके बाद तेलंगा खड़िया या मेदिनी राय या फिर बिरसा मुंडा जैसा खुल्लमखुल्ला विद्रोह झारखंड की जनता ने नहीं किया लेकिन अपने संवैधानिक अधिकार मतदान में उसने कोई चूक नहीं की. यत्र-तत्र थोड़ी बहुत चूक की भी तो संबंधित नेता की रॉबिनहुड करतूत के कारण.
यह भी सही है कि बिहार के औपनिवेशिक परिवेश से निकलने के बाद स्वतंत्र रूप से केंद्रीय सहायता मिलने लगी, शासन-प्रशासन ने राजस्व वृद्धि के उपाय ढूंढा, सीमित ही सही लेकिन रोजी-रोजगार के अवसर भी बढ़े. बाजार बढ़े. शिक्षा के दरवाजे निरंतर चौड़े होने लगे. रेल और हवाई यात्रा की सुविधाएं बढ़ने लगीं. लोगों की उम्मीदें परवान चढ़ने लगीं. इसी दौर में जेएसपीएल, आधुनिक समूह, कोहिनूर स्टील, नीलांचल समूह आदि ने उत्पादक इकाइयां स्थापित की. ऐसा हर क्षेत्र में बहुत कुछ हुआ, लेकिन इसी के साथ पूंजी का एकतरफा प्रवाह भी बढ़ा, जिससे विकास का लाभ उस स्तर तक नहीं पहुंच पाया, जिससे हर घर लाभान्वित हो सके. ठेकेदार और दलाल किस्म के लोगों ने सामाजिक लाभ का बड़ा हिस्सा गड़प लिया. दावे के साथ नहीं कह सकते कि आज भी वही स्थिति नहीं है. (जारी)
(नोटः यह श्रृंखला लेखक के संस्मरणों पर आधारित है. इसमें छपी बातों से संपादक की सहमति आवश्यक नहीं है.)