Shyam kishore Choubey
तो ऐसे-ऐसे 16 नवंबर 2000 की घोर अंधेरी रात में बाबूलाल मरांडी के नेतृत्व में झारखंड में भाजपा, समता, जदयू, आजसू आदि की पहली मिलीजुली सरकार बन गयी. सभी सहयोगी दलों को संतुष्ट करते हुए उन्होंने 27 सदस्यीय जंबो मंत्रिपरिषद बनायी. दूसरी बार सांसद चुने गये बाबूलाल को केंद्र सरकार में वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के राज्यमंत्री की भली-चंगी स्थिति छुड़वाकर झारखंड की तीमारदारी के लिए रांची भेजा गया था. राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की सेवा के बाद वे वनांचल झारखंड के अध्यक्ष के तौर पर नाम कमा चुके थे. जिन परिस्थितियों में उन्होंने झारखंड की कमान संभाली, उन हालात ने ही आगे उनको एक तरह से सड़क पर ला दिया. उनको सांसदी त्याग कर बरास्ता उपचुनाव विधायक बनना पड़ा. मुख्यमंत्री की कुर्सी फिसली तो कहीं के न रहे. बहरहाल, राज्य को उन्होंने झारखंड का एक तरह से पहला बजट (2001-02 का पहला बजट) 7,174.12 करोड़ का दिया, जिसमें योजना मद 2,551.80 करोड़ रुपये का था. गाड़ी चल निकली. जिस राजधानी रांची की सड़कें अपराधियों के डर से शाम के छह-सात बजते-बजते वीरान हो जाती थीं, उन पर पुलिस सायरनों की गूंज होने लगी. देर रात तक चहल-पहल रहने लगी.
जैसा कि विपरीत ध्रुवों के मिलन पर होता है, राग खटराग में बदल जाते हैं. इस पहली ही सरकार में खटराग द्रोह में बदलने लगे. ललबतिया सुख, बड़े-बड़े हाकिम-हुक्काम की सलामी, ठेकेदारों-चमचों की भीड़ ने सबको सम्मोहित कर लिया. जो लोग हजार-दो हजार को तरसते थे, उनको लाखों-करोड़ों के सपने आने लगे.
बाबूलाल ने तत्कालीन मुख्य सचिव वीएस दुबे संग मिलकर बेशक विकास का एक खाका खींचा था, लेकिन नियुक्तियों के पट खोलने की गरज से उन्होंने बिहार की जिस डोमेसाइल नीति पर आंख मूंदकर दस्तखत कर दिये, वह एक बदनुमा दाग साबित हुआ. पूरा राज्य इस आग में जलने लगा. अजीब किस्म के दंगे-फसाद में आधा दर्जन जानें चली गयीं. दुर्भाग्य यह कि डोमेसाइल नीति, जिसे अब स्थानीय नीति कहा जाता है और नियोजन नीति आजतक झारखंडियों को न केवल उहापोह में रखे हुए है, अपितु सरकारी कामकाज निपटाने वाले लगभग 50 फीसद पद खाली हैं.
जैसा कि विपरीत ध्रुवों के मिलन पर होता है, राग खटराग में बदल जाते हैं. इस पहली ही सरकार में खटराग द्रोह में बदलने लगे. ललबतिया सुख, बड़े-बड़े हाकिम-हुक्काम की सलामी, ठेकेदारों-चमचों की भीड़ ने सबको सम्मोहित कर लिया. जो लोग हजार-दो हजार को तरसते थे, उनको लाखों-करोड़ों के सपने आने लगे. खुद भाजपा के अंदर भी पसंद-नापसंद की बातें चलने लगीं. इन्हीं परिस्थितियों में समता-जदयू खेमे वाले मंत्री लालचंद महतो, मधु सिंह, रमेश सिंह मुंडा, जलेश्वर महतो, बच्चा सिंह, जोबा मांझी और बैजनाथ राम ने 13 मार्च 2003 को इस्तीफा कर दिया. हालांकि इनके इस्तीफे स्वीकार नहीं किये गये थे, फिर भी चलते बजट सत्र में वे अपोजिशन बेंच पर जा बैठे. इतना ही नहीं, बजट के विरोध में इन्होंने वोटिंग की. बजट पारित न हो सका. दूसरी सरकार बनाने की जोड़-तोड़ चलने लगी. यूपीए अपने विधायकों को छिपाने लगा. तपे-तपाये राजनेता माने जाने वाले स्पीकर इंदर सिंह नामधारी ने एक बार यहां तक कह दिया, मेरे पैरों में कोई घुघरू बंधा दे तो मेरी चाल देख ले. उनको विरोधी खेमे से मुख्यमंत्री बनाये जाने की हवा चार दिन की चांदनी साबित हुई. हार-पारकर चार दिनों बाद 17 मार्च को बाबूलाल मरांडी ने खुद इस्तीफा कर दिया. सरकार गिर गयी. जाहिर है, अंतर्विरोधों से सरकार गिरी. तब बाबूलाल ने एक राजफाश किया कि राजस्व मंत्री मधु सिंह ने एक बड़ी डील का आफर किया था. नहीं मानने पर ही कुचक्रियों ने षडयंत्र रचा.
तपे-तपाये राजनेता माने जाने वाले स्पीकर इंदर सिंह नामधारी ने एक बार यहां तक कह दिया, मेरे पैरों में कोई घुघरू बंधा दे तो मेरी चाल देख ले. उनको विरोधी खेमे से मुख्यमंत्री बनाये जाने की हवा चार दिन की चांदनी साबित हुई. हार-पारकर चार दिनों बाद 17 मार्च को बाबूलाल मरांडी ने खुद इस्तीफा कर दिया. सरकार गिर गयी.
उधर, दिल्ली में भाजपा मानो इन परिस्थितियों के लिए तैयार बैठी थी. अगले ही दिन मरांडी कैबिनेट के कल्याण मंत्री अर्जुन मुंडा को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी गयी. बाबूलाल के तमाम बागी गोद में बैठा लिये गये. उस कैबिनेट में 26 सदस्य रखे गये, जिनमें भाजपा के सुदर्शन भगत को बिना कोई विभाग दिये मुख्यमंत्री सचिवालय से अटैच किया गया था. कहने की बात नहीं कि बाबूलाल की बनिस्बत अर्जुन मुंडा राजनीतिक तौर पर कुछ अधिक चौकस साबित हुए. लेकिन उनके ही मुख्यमंत्रित्वकाल में एक ऐसी घटना हुई, जिसकी रवायत की गूंज-अनुगूंज राज्यसभा चुनावों में आज तलक सुनी जाती है. बाबूलाल ने जिस मंत्री मधु सिंह पर ‘डील’ का आक्षेप किया था, उन पर ही राज्यसभा चुनाव में दिल्ली की एक बड़ी ‘पार्टी’ से डील का आरोप लगा. कई किस्म की बातें चलीं और अंततः 30 जून 2004 को उनको बर्खास्त कर दिया गया. मधु सिंह कम्युनिस्ट आंदोलन की सियासी उपज थे और बहुत छोटी पहचान से इस ऊंचाई तक पहुंचने में कामयाब हुए थे लेकिन अर्श से फर्श पर आने में देर न लगी. कहने की बात नहीं कि राजनीतिक और प्रशासनिक दृष्टि से झारखंड का यह प्रयोग काल बहुत उत्साहजनक साबित न हुआ. और तो और यह ऐसे पदचिह्न छोड़ गया कि यह राज्य अभी भी प्रयोगशाला ही बना हुआ है. उसी समय इसकी जो पहचान बनी, वह मिटने का नाम नहीं ले रही. आदर्श विधानसभा बनाने का ख्वाब तो खैर दिवास्वप्न भी साबित न हो सका. साल-दर-साल बढ़ते बजट आकार और केंद्र की भांति-भांति की योजनाओं के कारण निश्चय ही सड़क, भवन, बिजली आदि की उपलब्धता बढ़ी लेकिन इन ढांचाओं मात्र से किसी भी रियासत की पहचान नहीं कायम होती. (जारी)
(नोटः यह श्रृंखला पूर्णतः लेखक के संस्मरणों पर आधारित है. इसमें छपी बातों से संपादक की सहमति आवश्यक नहीं है.)