Shyam Kishore Choubey
मैं एक बार पुनः कह रहा हूं और जरूरत के अनुसार आगे भी कहूंगा कि रघुवर दास ने मुख्यमंत्री के रूप में कई अच्छे कार्य किये. सबसे पहले तो नौकरशाही पर लगाम रखी. उनके दिमाग में जिस किसी भी कार्य या योजना ने अपनी अहमियत जतायी, उसे उन्होंने पूरा किया/कराया. झारखंड के लिए यह बड़ी बात थी और शायद आगे भी रहेगी. लेकिन जैसा कि उच्च राजनीतिक पदों पर आसीन व्यक्तियों के आसपास कुछ लोग सप्रयास घेरा बना लेते हैं, रघुवर भी उस घेराबंदी से अलग नहीं रह सके. यही उनकी कमजोरी बनी. उनके प्रभामंडल का दिन-रात बखान करते हुए ऐसे लोगों ने उनको कई सारे अपने लोगों से काट दिया. उन तक पहुंचने ही नहीं दिया. मुख्यमंत्री का प्रोटोकॉल ऐसा होता है कि हितचिंतक भी बिना अनुमति के उन तक पहुंच ही नहीं सकते. इसके बावजूद रघुवर में एक अच्छी आदत थी कि वे मोबाइल फोन कॉल वे स्वयं रिसीव करते थे. इन पंक्तियों के लेखक का यह आजमाया हुआ सत्य है. फोन रिसीव करने के बाद बातचीत में वे यह कहने में कतई नहीं चूकते थे कि आपसे भेंट हुए काफी टाइम हो गया. आप फ्री रहते हैं न! कल-परसों में फोन करता हूं तो हम बैठ कर बातें करेंगे. वह कल-परसों कभी नहीं आ पाता था. यही अनुभव कई लोगों ने शेयर किया.
मुख्यमंत्री बनने के पहले वे एक हद तक सरल, सज्जन और वक्त देनेवाले राजनेता थे. वे जल्द किसी से घुलते-मिलते नहीं थे लेकिन जिस किसी पर उनका भरोसा जमा, उसके सामने दिल खोलकर रख देते थे. कुछ राजनीतिक पेशबंदियां जरूर थीं लेकिन कुल मिलाकर ठीक-ठाक आदमी थे. लेकिन जिस दिन उन्होंने दो लाइन की यह शपथ ली-
‘मैं, रघुवर दास ईश्वर की शपथ लेता हूं, सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञान करता हूं कि मैं विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखूंगा मैं, मुख्यमंत्री के रूप में अपने कर्तव्यों का श्रद्धापूर्वक और शुद्ध अंतःकरण से निर्वहन करूंगा तथा मैं भय या पक्षपात, अनुराग या द्वेष के बिना, सभी प्रकार के लोगों के प्रति संविधान और विधि के अनुसार कार्य करूंगा.’
‘मैं, रघुवर दास ईश्वर की शपथ लेता हूं, सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञान करता हूं कि जो विषय पद के रूप में मेरे विचार के लिए लाया जाएगा अथवा मुझे ज्ञात होगा उसे किसी व्यक्ति या व्यक्तियों को, तब के सिवाय जबकि ऐसे पद के रूप में अपने कर्तव्यों के सम्यक निर्वहन के लिए ऐसा करना अपेक्षित हो, मैं प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से संसूचित या प्रकट नहीं करूंगा.’
उसी दिन सियासी हलके में एक चर्चा जोरों पर चल निकली कि सरयू राय का पत्ता कटा. सीपी सिंह को मंत्री बनाया जा चुका है तो दूसरे राजपूत सरयू राय के लिए कैबिनेट में जगह कहां से बन सकेगी? सीपी इसके पूर्व मुंडा सरकार के कार्यकाल में स्पीकर रह चुके थे. जैसा कि कहा जाता है, उन्होंने वह पद बेमन से स्वीकार किया था. वे मंत्री बनना चाहते थे और संभवतः पार्टी ने उनको आश्वस्त किया था कि अगली कैबिनेट बनाने का जब कभी अवसर आयेगा, तो आपको मौका दिया जायेगा. दूसरी ओर बिहार से आकर झारखंड में बसे सरयू राय का अलग महत्व था. बिहार में उन्होंने जिस प्रकार अलकतरा घोटाला और दाना घोटाला पर काम किया था, उनका वह करिश्मा राजनीति का ककहरा जाननेवाले के भी दिलोदिमाग में बसा हुआ था. झारखंड में जिस किसी भांति उन्होंने मधु कोड़ा के कार्यकाल में हुए घोटालों पर काम किया, वह उनकी पहचान और अधिक मजबूत कर चुका था. ऐसे ही 2005 में रघुवर के नगर विकास मंत्री रहने के दौरान सिवरेज-ड्रेनेज के टेंडर आवंटन में हुई कथित अनियमितता पर विधानसभा में रिपोर्ट पेश करने में भूमिका अदा की थी, वह भी उनके लड़ाकेपन का सबूत थी.
झारखंड की औद्योगिक राजधानी जमशेदपुर की राजनीति भाजपा के दो नेताओं की प्रतिद्वंद्विता में हमेशा फंसी रही है. ये दोनों नेता हैं अर्जुन मुंडा और रघुवर दास. सरयू राय दोनों के मिडिल प्वाइंट पर खड़े रहते हैं. जैसा कि बताया जाता है, जब 2010 में अर्जुन मुंडा के मुख्यमंत्रित्वकाल की तीसरी पारी चल रही थी, तब भी सरयू ने सिवरेज-ड्रेनेज मामले की जांच कराने की बात कही थी, लेकिन मुंडा ने हां-हां में उसको टाल दिया था. इस विषय पर विधानसभा समिति द्वारा पेश रिपोर्ट में निष्पक्ष एजेंसी से जांच कराने की अनुशंसा थी. ऐसा प्रतीत होता है कि सिवरेज-ड्रेनेज मामले की टीस रघुवर के दिल में बसी हुई थी. इसी कारण वे सरयू को मंत्री नहीं बनाना चाहते थे.
सरयू रांची या पटना तक सीमित रहने वाले राजनेता नहीं हैं. दिल्ली में भी उनकी काफी पूछ है. अर्जुन मुंडा या रघुवर के काफी पहले से वे संघ, जनसंघ और फिर भाजपा से जुड़े रहे थे. पत्रकारिता से राजनीति में आये सरयू जितने मेहनती हैं, उतने ही अध्ययनशील भी. लालू प्रसाद और नीतीश कुमार के सहपाठी रहे सरयू राजनीति में माहिर हैं. उनकी व्यावहारिक बुद्धि 2013 में ही उन्हें मोदी-शाह के करीब ले गयी थी. जब गुजरात की राजनीतिक जोड़ी सरदार पटेल की विशाल प्रतिमा के लिए लोहा जमा करने का अभियान चला रही थी, तब उसने सरयू को इस विषय पर झारखंड की जवाबदेही सौंपी थी. दिल्ली के इन संपर्कों ने सरयू को मंत्री बनाये जाने का दबाव बनाया तो रघुवर विवश हो गये. अपेक्षाकृत छोटा और नेकनामी न दिलानेवाला विभाग पाकर सरयू कुंहके तो जरूर लेकिन मौन साध गए. इसी को किस्मत मानकर काम करने लगे. कुछ दिनों तक कैबिनेट में दोनों के रिश्ते ठीक-ठाक ही रहे लेकिन धीरे-धीरे टन-फिस्स शुरू हो गयी.
पूर्ववर्ती सरकार, यानी हेमंत सरकार के दौरान ही सुदीर्घ केंद्रीय प्रतिनियुक्ति से विमुक्त कराकर झारखंड के मुख्य सचिव के पद पर लाये गये राजीव गौवा जबतक रांची में रहे, शासन-प्रशासन पर बहुत आंच नहीं आयी. जैसी कि चर्चा थी, गौवा की दिल्ली वापसी के बाद अमित खरे को यह पद दिया जाना था. उन दिनों वे मुख्य सचिव के समकक्ष पद विकास आयुक्त के तौर पर काम कर रहे थे. लेकिन रातोंरात गेम पलट गया. राजबाला वर्मा मुख्य सचिव बना दी गयीं. अमित खरे दिल्ली चले गये. इन दोनों पदाधिकारियों की तुलना करें, तो पाते हैं, बिहार के कुख्यात दाना घोटाले का राजफाश करने में अमित खरे ने भी भूमिका अदा की थी. उन दिनों राजबाला पटना की डीएम हुआ करती थीं. कहने की बात नहीं कि राजधानी का डीएम यानी मुख्यमंत्री का करीबी. दाना घोटाला मामले में राजबाला से भी सीबीआई को पूछताछ करनी थी, लेकिन कभी इजाजत नहीं मिली. यहां तक कि गौवा ने भी उनको इस विषयक पत्र दिया था, लेकिन राजबाला होने का मतलब समझिए, वह पत्र राजबाला तक ही सीमित रहा. झारखंड के प्रायः हर मुख्य सचिव ने ऐसा ही पत्र उनको दिया था. राजनीतिक और प्रशासनिक महकमे में एक हास-परिहास आम था, “जिसका राज-उसी की बाला.” मुख्य सचिव बनने के बाद तो उनका रुतबा इस कदर बढ़ गया कि लोग राजमाता कहने लगे. (जारी)
(नोटः यह श्रृंखला लेखक के संस्मरणों पर आधारित है. इसमें छपी बातों से संपादक की सहमति आवश्यक नहीं है.)
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