झारखंड को बने 21वां साल चल रहा है. 14 नवंबर, 2000 की आधी रात और उसके बाद उस साल पैदा हुई पीढ़ी आज जवान हो चुकी है. पिछले विधानसभा चुनावों में उसने वोट देकर झारखंड की सरकार बनाने के काम में अपनी भागीदारी भी निभा ली है, लेकिन यह पीढ़ी इस बात से अनजान है कि घुटनों के बल चलते-चलते वे लोग अपने पैरों पर खड़े हो गये, लेकिन उनका राज्य, उनका झारखंड आज तक अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो सका है. 15 नवंबर, 2000 की आधी रात को सरकार के शपथ ग्रहण के समय अचानक जो नाटकीय सीन क्रियेट हुआ था, वह इन गुजरे 20 वर्षों में अनेक रोचक और दिलचस्प घटनाओं से भरा पड़ा है. इसमें रहस्य है, रोमांच है, साजिशें और समझौते भी हैं. इन्हीं किस्सों को किस्तों में लेकर लेकर आ रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार श्याम किशोर चौबे. एक पत्रकार के नाते श्री चौबे इन घटनाओं के साक्षी रहे हैं. हमारे आग्रह पर उन्होंने यह श्रृंखला लिखी है. (संपादक)
Shyam kishore Choubey
14 नवंबर, 2000 की ठीक आधी रात में राजभवन के वर्तमान गुलाब उद्यान में चैन की उम्मीद में बेचैन मजमा जुटा था. झारखंड को राज्य बनाये जाने की पटना, दिल्ली से लेकर रांची तक संवैधानिक औपचारिकताएं पूरी की जा चुकी थीं. बस एक ही औपचारिकता शेष थी, सरकार बनाने की. सरकार के मुखिया के बतौर भाजपा के बाबूलाल मरांडी को शपथ दिलायी जानी थी. इसके लिए सजे-धजे मंच पर दिल्ली से भेजे गये भव्य व्यक्तित्व वाले राज्यपाल प्रभात कुमार मौजूद थे. लेकिन अचानक ऐसा कुछ हुआ कि उन्हें मंच छोड़कर राजभवन की ओर प्रस्थान करते देखा गया. पता चला कि झामुमो, कांग्रेस, राजद आदि की युति (संयोजन) वाले नेताओं ने दावा कर रखा है कि बहुमत उनके साथ है. इसलिए बतौर मुख्यमंत्री शिबू सोरेन को शपथ दिलायी जाये. घंटा भर बाद राज्यपाल दावे का प्रतिपरीक्षण कर मंच पर लौट आये. उन्होंने बाबूलाल को ही शपथ दिलायी. उस रात जुटे मजमे की और राजनेताओं की जो बेचैनी नजर आयी, वह दरअसल इस राज्य की जन्मपत्री में, यूं कहें कि इसके भ्रूण में ही लिखी हुई थी. इस प्रकार एक विकलांग राज्य का इस सुख के साथ जन्म हुआ कि कोई संतान हुई तो सही. 50-60 वर्षों से जिसके लिए बेचैनी थी, वह चाहे जिस भी रूप-स्वरूप में सही अस्तित्व में आया तो. ऐसी सूरत में जो कुछ भी हासिल होता है, उसमें बेचैनी जज्ब रहती ही है. परिणामतः आज भी झारखंड एक बेचैन राज्य है. जब यह राज्य नहीं बनाया गया था, तब भी बेचैन था. राज्य बनने के बाद इसकी बेचैनी ठीक वैसे ही और बढ़ती चली गई, जैसे किसी विकलांग संतान के माता-पिता की बेचैनी इस उम्मीद के साथ क्रमशः बढ़ती चली जाती है कि कोई न कोई डॉक्टर-हकीम उसे दुरुस्त कर ही देगा. 21 वर्षों का अनुभव बता रहा है, ‘मर्ज बढ़ता गया, ज्यों-ज्यों दवा की’.
भारत देश जब 1947 में आजाद हुआ था, उसके पहले अंग्रेज बहादुरों का कहना था कि यह देश शासन चलाने वालों की अनुभवहीनता के कारण लोकशाही का बोझ नहीं उठा पायेगा. इसके ठीक उलट झारखंड बनने के पहले बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद ने कहा था, तब तो सारा सोना झारखंड में चला जायेगा, बिहार में बालू ही शेष रहेगा. उनके आकलन का वह ‘सोनार झारखंड’ किस बेचैनी में पलता रहा, यह ‘राज्यवादी’ झारखंडी ही समझ रहे हैं. उस सोच की तुला पर तोला जाये, तो निष्कर्ष निकलता है, झारखंड एक अमीर राज्य है, जिसके निवासी गरीब हैं. यह गरीबी अनेक स्तरों पर मौजूद है. केवल धन ही नहीं, शिक्षा, स्वास्थ्य, नागरिक सुविधाओं और यहां तक कि सामाजिकता और पहचान के मामले में भी वे गरीब हैं. आम झारखंडी पूरी दुनिया को भले ही अपना मानता हो और हर किसी का स्वागत करता हो, लेकिन उसकी अन्य स्थलों पर कितनी पूछ है और कैसी पहचान है, यह किसी से छिपा हुआ नहीं है. और तो और झारखंडी अधिकारियों और नेताओं तक को राजनीति की काशी दिल्ली में कितना सामाजिक व्यवहार मिलता है, यह वे ही जानते होंगे. झारखंड से चुनाव जीतकर दिल्ली जानेवाले राजनेताओं को कैसे-कैसे मंत्रालयों की जवाबदेही मिलती रही है, यह भी बताने की जरूरत नहीं. 21वर्षों के झारखंड के राजनीतिक-आर्थिक फैसले दिल्ली ही करती रही है. कैसे हैं हम?
झारखंड एक अमीर राज्य है, जिसके निवासी गरीब हैं. यह गरीबी अनेक स्तरों पर मौजूद है. केवल धन ही नहीं, शिक्षा, स्वास्थ्य, नागरिक सुविधाओं और यहां तक कि सामाजिकता और पहचान के मामले में भी वे गरीब हैं.
दरअसल, झारखंड जितना इसकी जरूरतों और आंदोलनों की वजह से राज्य बनाया गया, उससे अधिक राजनीतिक वजहें थीं. यहां से दिल्ली का हित सधना राजनीति की नजर में अधिक आवश्यक था. यह तो कहिए कि राज्य बनने से सात-आठ साल पहले झारखंड क्षेत्र स्वशासी परिषद का गठन कर दिया गया था. यह परिषद हालांकि डिफंक्ट ही रही, फिर भी इस राज्य के नेताओं में थोड़ी राजनीतिक चेतना जगी, जो बाद में काम आयी. इसके पूर्व 81 विधायकों वाले तत्कालीन दक्षिण बिहार यानी झारखंड के नेताओं को पटना में कैसी-कैसी जवाबदेही मिलती रही थी, वह भी गौर करने लायक है. हालांकि कामाख्या नारायण सिंह, विनोदानंद झा, केबी सहाय, विंदेश्वरी दुबे जैसे कतिपय नेताओं को बिहार में जरूर तरजीह दी गयी, उन्हें प्रसिद्धि भी मिली लेकिन वे ऐसे समदर्शी थे, जो झारखंड के लिए प्रतिबद्ध होकर काम करने में दिलचस्पी नहीं ले पाते थे. आखिरकार उनकी भी चुटिया दिल्ली से ही बंधी हुई थी. कहने-सुनने में खराब जरूर लगेगा, लेकिन झारखंडी नेता बिहार में बैक बेंचर ही बनाकर रखे जाते रहे. यह इलाका एक तरह से राजनीतिक-आर्थिक औपनिवेश ही बनाकर रखा गया. दूसरी बात यह भी कि वह न तो तीव्र विकास, न ही क्षेत्रीयता के उभार का दौर था. नेतृत्व वर्ग विधायक-सांसद बनकर ही आत्म-मुग्ध रहता था. वह खाओ-खिलाओ वाला दौर भी नहीं था. उस दौर के विषय में एकीकृत बिहार में परिवहन और राजस्व मंत्री तथा झारखंड में तीन मर्तबा स्पीकर रह चुके इंदर सिंह नामधारी ने मार्के की बात कही थी, ‘बिहार में सत्ताधारियों की आंख में फिर भी शर्म रहती थी. कोई लाख-दो लाख ले लेता था तो सकुचाया रहता था. यहां तो करोड़ से नीचे की कोई बात ही नहीं करता’. (जारी)
(नोटः यह श्रृंखला पूर्णतः लेखक के संस्मरणों पर आधारित है. इसमें छपी बातों से संपादक की सहमति आवश्यक नहीं है.)