Faisal Anurag
बंगाल में राजनीतिक भगदड़ का दूसरा फेज, बिहार में लोजपा में चिराग पासवान के अस्तित्व पर संकट और बिहार में ही नीतीश कुमार का ऑपरेशन कांग्रेस. समकालीन राजनीति के ये कुछ ऐसे घटनाक्रम हैं. सत्ताभूख की दास्तान और नेताओं के अहम का टकराव भारतीय राजनीति की लोकतंत्र विरोधी त्रासदी बनती जा रही है. मन्ना डे के गाये गीत राजनीति में निरंतर प्रसंगिक हो गयी है: कसमे वादे प्यार वफा सब बातें हैं बातों का क्या, कोई किसी का नहीं ये झूठे नाते हैं नातों का क्या. नेताओं की यही छवि बन कर उभर रही है. दावे से यह कहना बेहद मुश्किल हो गया है कि शायद ही कोई नेता हो जो पार्टी के विचारों से लंबे समय से सत्ता से बाहर रहते हुए भी जुड़ा रह जाए. यह समझना भी अब मुश्किल पहेली नहीं है कि पार्टी से अलग होने के पीछे असहमति प्रमुख है या वह लालच जो उन्हें दिया जाता है.
वैसे तो दलबदल भारत के लिए कोई बात नहीं है. आया राम गया राम तो मुहावरा ही है. लेकिन अब तो हकीकत इससे भी कहीं ज्यादा गंभीर हो गयी है. बंगाल में जो कुछ हो रहा है वह एक लाइलाज बीमारी की ओर इशारा है. पिछले साल के अंतिम दिनों में तृणमूल कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में जाने की लाइन लगी हुई थी. मई के चुनाव परिणाम के बाद अब दृश्य उलट गया है. राज्यपाल की बैठक में जब भाजपा के विधायक पहुंचे, तब भाजपा नेताओं के पसीने साफ दिखने लगे. 70 में 24 विधायक अनुपस्थित थे. यह अनुपस्थिति कोई रहस्य नहीं है. बंगाल के गांवों और कस्बों में यह नजारा आम हो गया है जब ऑटो पर माइक बांधे नेता दलबदल के लिए जनता से माफी मांग रहे हैं. तृणमूल कांग्रेस और ममता बनर्जी को छोड़कर भाजपा जाने का यह पश्चाताप भी भारत की राजनीति का अनूठा अध्याय ही है. यह तो तय है कि भाजपा में मची भगदड़ केंद्रीय नेतृत्व को शर्मसार करने वाला है.
बिहार में चिराग पासवान को जिस तरह उनके चाचा और चचरे भाई ने ही खारिज किया है, वह किसी मध्यकालीन राजाओं के महलों के वीभत्स साजिश की याद दिला देता है. चिराग के चाचा पशुपति पारस की कुल राजनीतिक जमापूंजी रामविलास पासवान का छोटा आज्ञाकारी भाई होना ही है. बतौर नेता उनकी अपनी अलग से कोई पहचान नहीं है. यहां तक कि वोटरों पर भी उनका प्रभाव ज्यादा नहीं है. लेकिन यह तो नीतीश कुमार और भाजपा की कारीगरी है कि वह विद्रोही बन कर उभरे हैं. पारस ने उस चिराग पासवान को नकारा है जिसे उनके बड़े भाई नेक ही लोजपा का उत्तराधिकारी बना दिया था. तब तो पारस की जुबान भी नहीं खुली. यह केद्रीय मंत्रीपरिषद में जगह पाने के लालच के साथ ही कुछ अप्रत्यक्ष डील का ही नतीजा रहा है कि जीवन भर आज्ञाकारी रहने वाला भी अब बोलने और विद्रोह करने का साहस जुटा पाया है.
बिहार विधानसभा के चुनाव के समय चिराग पासवान ने नीतीश कुमार का मुखर विरोध केवल अपने दम पर ही तो नहीं किया था. आरएसएस और भाजपा के कई नेता जिसमें बिहार के भाजपा मुख्यमंत्री के दावेदार माने जाने वाले राजेंद्र सिंह भी शामिल है, चिराग के साथ अपने मन से ही तो नहीं गए थे. दरअसल चिराग पासवान के बारे में बिहार में तो यही चर्चा थी कि वे भाजपा की स्क्रिप्ट को ही पढ़ रहे थे. यह तो बंगाल के लोगों के चुनावी इरादे का ही असर है कि भाजपा नीतीश कुमार को महत्व देने के लिए बाध्य है. नीतीश कुमार के दबाव पर एनडीए की बैठकों से चिराग को अलग रखा गया और अब जब वे कैबिनेट में अपने पिता के उत्तराधिकारी के रूप में जगह पाने की सोच रहे थे, उन्हें हाशिए पर धकेल दिया गया. चिराग पासवान के सामने दो रास्ते हैं, पहला कि वे भाजपा जदयू के सामने आत्म समर्पण कर दें या फिर अपने वोटरों के पास जाएं और बिखरी राजनीति को नए तरीके से खड़ा करें. उनके वे साथ जो ठीक चुनाव के समय साथ आए थे, अब भाजपा में लौटने की कोशिश कर रहे हैं.
नीतीश कुमार के इशारे पर बिहार विधानसभा में अपनी ताकत बढ़ाने के लिए ऑपरेशन कांग्रेस को अंजाम देने का खेल शुरू हो चुका है. यह खेल तो विधानसभा चुनाव परिणाम के बाद से ही चर्चा में आता जाता रहा है. लेकिन इस बार संकेत कुछ ज्यादा ही साफ है. इस काम में उनके दो सांसद सक्रिय हैं. चर्चाओं के अनुसार, कांग्रेस के 10 विधायकों को नीतीश के सिपहसलारों ने अपने पक्ष में करने की होड़ तेज कर दी है. कांगेस के कुछ और विधायकों पर भी उनकी नजर है. नीतीश कुमार के इशारे पर खेला जा रहा ऑपरेशन कांग्रेस न केवल जीतनराम मांझी बल्कि मुकेश सहनी के दबाव को भी कम करेगा. वैसे भी मुकेश सहनी का अपने विधायकों पर नियंत्रण नहीं के बराबर है. मांझी भी रिस्क लेने की स्थिति में नहीं हैं. आने वाले दिनों में बिहार में तेजस्वी यादव और कांग्रेस के नेतृत्व की भी परीक्षा होगी कि वे अपने गठबंधन को ऑपरेशन से बचा पाते हैं या शिकार हो जाते हैं.