Faisal Anurag
खेला होबे, देखा होबे, जीत होबे बनाम सिंडिकेट राज, कट कल्चर और राज्य- संपोषित अपराधियों के संरक्षण का अंत यानि ममता बनर्जी बनाम नरेंद्र मोदी का चुनावी जंग जोरों पर है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जहां ममता बनर्जी के दस सालों के शासन में अविकास की कहानी सुना रहे हैं वहीं ममता बनर्जी का पलटवार केंद्र सरकार की नाकामयाबियों को लेकर है. ममता बनर्जी बंगला हिंदी ओर अंग्रेजी के कुछ वाक्यों का इस्तेमाल कर अपने लड़ाकू व्यक्तित्व को उभार रही हैं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित भाजपा के नेताओं का जोर बंगाल को ध्रुवीकृत करने का है. इस पूरे जोर में उस सेक्युलर फ्रंट की चर्चा को गौण किया जा रहा है जिसने अब तक की सबसे बड़ी बिग्रेड रैली की. मुख्यधारा मीडिया के उलट तटस्थ प्रेक्षकों का मानना है कि प्रधानमंत्री की ब्रिगेड रैली में दावों के अनुकूल लोग जमा नहीं हुए, जबकि भारतीय जनता पार्टी ने भारी धन बहाया. सिलीगुडी की सभा को ममता बनर्जी ने प्रतीकात्मक बताया. ममता बनर्जी का जोर अपने दस साल के कामकाज के साथ ही अपनी फाइटर छवि को और पुख्ता करने पर है.
इसे भी पढ़ें- महिला संगठनों को सशक्त बनाने के लिए अभियान चलाएगा आदिवासी जन परिषद महिला मोर्चा
प्रधानमंत्री ने भारत की राजनीति में सिंडिकेट शब्द का उल्लेख कर 1967 के जमाने की याद ताजा कर दिया. जब कांग्रेस में बदनाम हुआ था ओर इंदिरा गांधी ने मोरारजी देसाई सहित अनेक नेताओं को आरोपित करते हुए कांग्रेस में टूट के हालात बना दिए थे. तब सिंडिकेट कॉरपारेटपरस्त और यथा स्थितिवाद पोषकों के लिए इस्तेमाल हुआ था.
दोनों रैलियों की तुलना करते हुए द टेलिग्राफ ने लिखा है मोदी के विपरीत, जिन्होंने कलकत्ता में अपने 70 मिनट के भाषण में एक निश्चित कथ्य के बिना एक भटकाव भरा दृष्टिकोण लिया. ममता सटीक थीं और विशिष्ट मुद्दों पर अपनी मारक क्षमता को केंद्रित किया. नरेंद्र मोदी ने जहां 2047 तक बंगाल को फिर अग्रणी भूमिका का सपना दिखते हुए केंद्र प्रायेजित योजना पर अमल नहीं करने का आरोप लगाया वहीं ममता बनर्जी ने कहा कि प्रधानमंत्री एक राजनीतिक अभियान के लिए बंगाल आते रहते हैं लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि वह केवल राजनीतिक प्रचार के लिए यहां हैं और यहां तक कि झूठ भी बोलते हैं.
बंगाल का चुनावी अभियान आमतौर पर भाषा की मर्यादा और बंगाली शिष्टाचार का उल्लंघन नहीं करता है. लेकिन इस बार के विधानसभा चुनाव में हिंदी पट्टी के प्रचार अभियान की झलक दिख रही है. भारतीय जनता पार्टी के अनेक नेता खुल कर सांप्रदायिक भेदभाव की बात कर रहे हैं. वहीं तृणमूल का जोर बंगाल की संस्कृति और अस्मिता पर है. दिलचस्प बात तो यह है कि भाजपा बंगाल में रोजगार देने का वायदा कर रही है.
इसे भी पढ़ें- फेसबुकिया प्यार: प्रेमी से शादी करने रांची से दुमका पहुंची लड़की, नाबालिग निकला लड़का
भाजपा के नेताओं का जोर इस बात पर हैं कि बंगाल में रेाजगार का सृजन करने में ममता बनर्जी की सरकार विफल रही है. ममता बनर्जी ने इस पर भी पलटवार कर देश और खास कर उन राज्यों में रोजगार के हालात का सवाल उठाया है जहां भाजपा शासन कर रही है वहां पिछले साल देश में बेरोजगारी दर तमाम रिकॉर्ड तोड चुकी है.
दस साल पहले जब ममता बनर्जी सत्ता से वामफ्रंट को बेदखल किया था तब वे नंद्रीग्राम और सिंगुर के किसान संघर्षो के रथ पर सवार थीं. पिछले पांच सालों में तो बंगाल बनाम केंद्र के अधिकारों और संसाधनों के वितरण का सवाल जोरों से उठता रहा है. प्रधानमंत्री बंगाल में ”अशोल पोरिबर्तन” का नारा दे रहे हैं, वहीं ममता बनर्जी तो देश में नरेंद्र मोदी की सरकार को ही बदलने की बात कर रही हैं.
मेगा रैलियों को यदि देखा जाए तो यह कहना मुश्किल है कि बंगाल में मुकाबला सीधा है. वामफ्रंट,कांग्रेस और आइएसएफ गठबंधन को अनदेखा करना राजनीतिक तोर पर भूल साबित हो सकती है. बंगाल के तटस्थ प्रेक्षको के अनुसार इस महागठबंधन की फरवरी अंत में आयोजित रैली के राजनीतिक संदेशों की अनदेखी नहीं की जा सकती है. इस बीच अल्ट न्यूज ने फैक्ट चेक के बाद कहा है कि प्रधानमंत्री की ब्रिगेड रैली में जिस भीड़ को प्रचारित किया जा रहा है, वह 2020 की वामरैली की तस्वीरें हैं.
पिछले कुछेक सालों में यह पहला अवसर नहीं है जब मीडिया चुनावों को कवर करने के बजाय प्रोपेगेंडा का हिस्सा दिखने लगा है. बंगाल एक संवेदनशील राज्य है जिसके लिए आर्थिक सवालों की भी अहमियत है. इस चुनाव को भावना बनाम वास्तविकता के खानों में बंटने की कोशिश कितनी कारगर होगी. यह तो दो मई को ही पता चलेगा. लेकिन मेगा रैलियों के संदेश की अपनी अपनी व्याख्या है. बंगाल भाषा के कवि नवारूण भट्टाचार्य की कुछ पंक्तियों को इस संदर्भ में याद किया जा सकता है.
यह मौत की घाटी नहीं है मेरा देश
जल्लादों का उल्लास मंच नहीं है मेरा देश
मृत्यु उत्पत्य का नहीं है मेरा देश
Disclaimer: ये लेखक के निजी विचार हैं.