Faisal Anurag
इतिहास को जब कभी सेल्यूलाइड पर उतार जाता है, अक्सर वह या तो मिथकीयता का शिकार हो जाता है या फिर उसके बहाने राजनीतिक और सांस्कृतिक वर्चस्ववादी ताकतों के मिथकीय अवधारणाओं को तर्कसंगत बनाने का प्रयास किया जाता है. सांस्कृतिक राष्ट्रवाद इतिहास के तथ्यों के साथ खिलवाड़ करता है और दृश्य माध्यमों के इस्तेमाल कर अपने अनुकूल इतिहास की व्याख्या करने लगता है. जर्मनी में नाजीवाद के दौर में साहित्य,सिनेमा,कला,खेल और संगीत तक को नाजीवादी प्रचार की तरह बदलने का उदाहरण मौजूद है. शीतयुद्ध के दौरान तो हॉलीवुड में भी सोवियत काल को लेकर दुष्प्रचार करने वाले फिल्मों का निर्माण हुआ. भीतर में तो इतिहास को लेकर विवाद खड़ा करने का सिलसिला सदियों पुराना है. लेकिन भारतीय सिनेमा का इतिहास तो लगभग 135 साल का ही सफर तय किया है.
आजाद भारत में जब कभी इतिहास के किसी कालखंड या नायक को लेकर फिल्म बनाने के प्रयास हुए हैं, उसकी ऐतिहासिकता को लेकर अनेक सवाल उठे हैं. लेकिन शूजित सरकार की नयी फिल्म सरदार उधम यह बताता है कि बिना झूठ, जोर या नफरत के बीच भी शुद्ध देशभक्ति की फिल्म कैसे बनाई जा सकती. इन दिनों भारत में ऐसी अनेक फिलम बन चुकी हैं या बन रही हैं जिनका दावा तो देशभक्ति की है. लेकिन क्या सच में वे इतिहास को हुबहू पेश कर रही हैं? केसरी हो उरी या फिर शेरशाह सब को इस निष्कर्ष पर कसने की जरूरत है. लेकिन शूजित सरकार ने सरदार उधम के माध्यम से एक ऐसे शहीद ए आजम का परिचय संसार को दर्शकों के समक्ष पेश किया है, जिन्हें केवल एक बलिदानी बनाकर पेश किया जाता है. शहीद ए आजम के रूप में दो ही नाम उभरते हैं,एक भगत सिंह का और दूसरा उधम सिंह का. उधम सिंह भगत सिंह के वैचारिक सहयात्री रहे हैं और उनके हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएसन से जुड़े थे. उन्होंने तो ब्रिटेन में इंडियन वर्कर्स के संगठन से भी जुड़े थे. उन्होंने केवल जालियांवालाबाग के हत्यारे माइकल ओ”डायर से शहीदों का बदला भर नहीं लिया था, बल्कि वैचारिक तौर पर एक परिपक्व और प्रतिबद्ध स्वतंत्रता के नायकत्व को भी जिया था. उनका सपना एक समाजवादी भारत का निर्माण था, जिसे शहीद ए आजम भगत सिंह ने पेश किया था.
शूजित सरकार की फिल्म सरदार उधम एक ऐसी ऐतिहासिक फिल्म है, जो विचार के धरातल पर तथ्यों और दस्तावेजों से न तो कोई खिलवाड़ करता है और न ही वह किसी प्रोपेगेंडा का शिकार होता है. लंबे समय बाद यह एक ऐसी फिल्म है, जिसमें डॉक्यूमेंट्री की तरह कथा को रचाया बसाया गया है. विकी कौशल ने सरदार उधम के व्यक्तित्व और विचार को बखूबी पेश किया है. विकी कौशल का भी यह एक तरह से सिनेमाई पुनर्जन्म से कम नहीं है. मसान और राजी से पहचान बनाने वाले विकी ने इस फिल्म को जिस तरह जिया है, वह भी भारतीय सिनेमा के लिए महत्वपूर्ण है.
सरदार उधम बायोपिक शैली असामान्य संयोजन का रेखांकन करता है. एक रियेलिटी शो की हवा के साथ. शूजित सरकार की फिल्म महान भगत सिंह (जिनकी भूमिका अमोल पाराशर ने की है ) के साथ नायक के जुड़ाव के माध्यम से समय और स्थान पर आगे बढ़ती है. जलियांवाला बाग से उनका सीधा व्यक्तिगत लिंक, उनके लड़ाई को यूरोप ले जाने का निर्णय, जहां वह श्रमिकों के आंदोलनों और आयरिश विद्रोह से परिचित हो जाता है. ब्रिटिश कार्यकर्ता एलीन पामर (भूमिका कर्स्टी एवर्टन की) के साथ उनकी दोस्ती इस फिल्म की रचना प्रक्रिया के हिस्से हैं.
शूजित सरकार ने लगभग तीन दशकों तक सरदार उधम पर काम किया. उन्होंने स्वयं बताया कि किसी तरह वह जालियांवाला बाग गए और यह विषय उनके दिमाग में चस्पा हो गया. फिर शोध किया, इस बीच सात फिल्में बनायीं और फिर सरदार उधम सिंह को रचा. एक लंगी तपस्या के बाद यह रचना सामने आयी है, जिसमें इतिहास अपनी वास्तविकताओं के साथ हर दृश्य और संवाद में मुखर है. शूजित सरकार भगत सिंह और उधम सिंह दोनों से गहरे स्तर पर प्रभावित हैं. यह भी दृश्य दर दृश्य अहसास किया जा सकता है.
उधम सिंह पर गदर पार्टी के विचारों और भगत सिंह के विचारों का जबरदस्त असर था. इस फिल्म ने भारतीय स्वतंत्रता की कथा को एक तरह से समृद्ध किया है, जिसमें स्वतंत्रता संग्राम की क्रांतिकारी के विचारों और समानता,स्वतंत्रता और भाईचारे के सबसे बड़े सपनों से आज की पीढ़ी को परिचित कराता है. ओ”डायर को नजदीक से गोली मारने के बाद सरकार उधम सिंह ने कोर्ट में समर्पण कर दिया. जब कोर्ट में उनसे उनका नाम पूछा गया तो उन्होंने कहा मेरा नाम राम मुहम्म्द सिंह आजाद है. यानी आज जिसे सेकुलर मूल्य कहा जाता है उसकी सबसे मजबूत आवाज सरदार उधम सिंह ने 1940 में बुलंद किया था. आज जब यह शब्द सुनायी पड़ता है तो वह अनेक कुंठाओं को चुनौती देता है.