
“जानते हैं रतन जी, रेणु पर काम करने का मतलब है— रेणु के साथ-साथ चलना, रेणु को आत्मसात कर खुद में ही रेणु हो जाना…. ” सच कहूं, तो उन दिनों अपने प्रियवर मित्र, प्रेरणास्रोत और महज़ एक साहित्यकार नहीं, बल्कि अपने-आप में एक साहित्यिक संस्था भारत यायावर की ऐसी दार्शनिक बातों को मैं बहुत हल्के में लिया करता था. वे सिरफिरे से लगते थे -इतने समर्थ कवि होने के बावजूद वे कहां रेणु के पीछे भागते फिर रहे हैं. एक दिन वे सुबह सुबह घर आये. खुशी तो ऐसे छलक रही थी उनके चेहरे से, जैसे कोई बहुत बड़ा युद्ध जीत कर आये हों. आते ही कंधे से लटक रहे झोले से एक किताब निकाली थी उन्होंने और मुझे थमाते हुए चहक से पड़े थे. “लीजिये रतन जी ! पहली प्रति आपके लिए.”
मैंने किताब पर नजर डाली-‘वन तुलसी की गंध’. यही शीर्षक था किताब का, जो उनके द्वारा संपादित रेणु पर पहली पुस्तक थी. हालांकि इससे पूर्व उनकी खुद की लंबी कविता की पुस्तिका ‘ झेलते हुए ‘ प्रकाशित हो चुकी थी. लेकिन अपनी प्रथम प्रकाशित कृति पर भी वे उतने प्रसन्न नहीं हुए थे, जितने अपनी इस संपादित पुस्तक पर. दरअसल उनके पूरे साहित्यिक जीवन में मैंने महसूस किया था कि अपने लेखन से अधिक रुचि उन्हें संपादन में थी. आगे उन्होंने अपने समय की खासी महत्वपूर्ण पत्रिका ‘ विपक्ष’ का भी संपादन किया था . फिर विपक्ष सिरीज के अंतर्गत अपने संपादन में स्वप्निल श्रीवास्तव, श्याम अविनाश आदि कई कवियों की रचनाओं को स्वतंत्र पुस्तिका रूप में प्रकाशित किया था.
हजारीबाग में मेरा आगमन 1979 के मार्च महीने में हुआ था. मकसद था- जीवन-यापन. कवि-लेखक बनने की लालसा तो दूर -दूर तक सपने में भी नहीं पाली थी मैंने. हालांकि स्वान्तः सुखाय यदा-कदा कुछ तुकबंदियां जरूर कर लिया करता था. उन्हीं दिनों में भैया कामेश दीपक ( अब स्वर्गीय ) जो एक जाने माने कवि थे, के जरिए भारत यायावर से संबंध जुड़ा. दरअसल भैया ने एक ऐसा साहित्यिक संसार सौंप दिया जिसने तय कर दिया था कि मेरे जीवन की दिशा की मंजिल क्या होनी है. भारत जी का मेरे घर लगभग रोजाना का आना जाना लगा रहा था. लगभग दिन के चार-साढ़े चार के आस-पास वे आते, फिर बैठ कर बातचीत करते हुए चाय-वाय पीते, उसके बाद मुझे लेकर घर से बाहर निकल जाते. फिर हम सड़कें नापते हुए, झील किनारे घूमते हुए या आरक्षी विद्यालय के मैदान में बैठकर देर तक गप्पें मारते रहते. वहां से उठकर हम रमणिका गुप्ता के ‘ मुद्रक प्रेस ‘ आ जाते, जहां रमणिका जी तो नहीं होतीं, पर कवि प्राणेश कुमार जरूर मिल जाते. प्राणेश जी ही मुद्रक प्रेस के कर्ता-धर्ता हुआ करते थे. फिर वहां से प्राणेश को साथ लेकर कवि शंकर ताम्बी की कपड़े की दुकान ‘ खंडेलवाल वस्त्रालय ‘ आ जाते. हमें देखकर ताम्बी जी चहक से पड़ते, फिर दुकान अपने बेटों के सुपुर्द कर गद्दी के एक छोर पर आ बिराजते. धीरे -धीरे वहां और भी साहित्यिक मित्र, जैसे कथाकार सुनील सिंह, शायर जहीर गाजीपुरी आदि भी जुटने लगते. भीड़ कुछ अधिक हो जाती तो हम पुस्तकायन ( किताब की दुकान ) में जा बिराजते. वह हमारे एक विद्वान और बुजुर्ग मित्र त्रिवेणी कान्त ठाकुर जी की दुकान थी.
भारत यायावर और प्राणेश कुमार के संयोजकत्व में सम्भावना संगोष्ठी नाम की एक साहित्यिक संस्था भी हुआ करती थी, जिसमें नियमित तौर पर पाक्षिक गोष्ठियां हुआ करती थीं. हजारीबाग में साहित्यिक वातावरण का वह स्वर्णिम काल था, जिसके केंद्र में हुआ करते थे- भारत यायावर और प्राणेश कुमार. गोष्ठी वाले दिन तो उनकी सक्रियता देखते ही बनती थी. नये से नये रचनाकार के यहां भी खुद सायकिल से जाकर आमंत्रित करते और ज़िद करके उसे गोष्ठी में घसीट ही लाते.
1980 में भारत जी से जब मेरा नया-नया ही परिचय हुआ था, उनकी उम्र यही कोई 25-26 वर्ष रही होगी. तब तक वे अपने संपादन में ‘ नवतारा ‘ पत्रिका के लघुकथा विशेषांक और एक साझा काव्य संकलन ‘ एक ही परिवेश का प्रकाशन करवा चुके थे. मुझे तब घोर आश्चर्य होता, जब विश्वविद्यालय में उन्हें पढ़ाने वाले शिक्षक भी उन्हें भरपूर आदर दिया करते थे. इतना ही नहीं, शहर के गणमान्य बौद्धिक और प्रशासनिक अधिकारियों के बीच भी ससम्मान उनकी उठ-बैठ थी. भारत जी निरंतर लिखते रहने को प्रेरित करते रहते. मुझे लघु – पत्रिकाओं के पते उपलब्ध करवा कर कहते कि मैं अपनी रचनाएं उनमें प्रेषित भी करता रहूं. मैं भेज भी देता, रचनाएं प्रकाशित भी होतीं. बाद में तो रचना के लिये संपादकों के आमंत्रण भी आने लगे थे. उसी क्रम में भारत यायावर और प्राणेश कुमार के प्रोत्साहन से मेरा पहला और अंतिम काव्य-संग्रह ‘ यात्रा में ‘ भी प्रकाशित हो गया था.
1982 में भारत यायावर की नियुक्ति, बतौर हिंदी प्राध्यापक , चास महाविद्यालय, चास ( बोकारो ) में हो गयी और उन्हें चास जाना पड़ा. हमारे बीच पत्राचार का सिलसिला निरंतर चलता रहा था. भारत जी को जब भी मौका मिलता, उनके हजारीबाग आने-जाने का सिलसिला बना ही रहता. और जब भी आते, बस-स्टैंड से सीधे मेरे पास पहुंचते, फिर मेरे साथ ही शहर की ओर निकलते और रात तक मित्रों से मिलते -जुलते हुए अपने गांव कदमा की ओर प्रस्थान करते.
भारत जी पागलों की तरह रेणु जी के खोजीराम की भूमिका में खुद को समर्पित करते चले गये. इधर-उधर से रेणु की कोई रचना या उनपर लिखे लेख आदि खोजते. धीरे-धीरे पूरी तरह रेणुमय हो चुके थे. रेणु पर संपादित उनकी पुस्तकें लगातार आने लगी थीं, जिससे उन्हें ख्याति भी भरपूर मिलने लगी थी. फिर राजकमल प्रकाशन से रेणु रचनावली भी आ गयी. उसके बाद दो खंड़ों में रेणु की जीवनी भी. फिर उनके संपादन में महावीर प्रसाद द्विवेदी रचनावली भी प्रकाश में आ गयी और अभी वे अपने समय के प्रसिद्ध कथाकार राधाकृष्ण की रचनाओं पर काम कर रहे थे. उनकी समस्त रचनाओं को वे दो खंड़ों में प्रकाशित करना चाहते थे, जिनमें से एक खंड प्रकाशित करवा भी चुके थे. दूसरे खंड की तैयारी में जुटे ही थे कि ….
कोई आठ-दस वर्ष पूर्व उनका तबादला विनोबा भावे विश्वविद्यालय, हजारीबाग में हो गया था. राहत का अनुभव करते हुए कहा था उन्होनें, ” भागमदौड़ से मुक्ति मिली, रतन जी ! अब मैं यहां निश्चिंत होकर काम कर पाऊंगा….” आज देह-स्तर पर भारत यायावर हमारे बीच नहीं हैं, मगर हम सभी द्वारा रचित पन्ने -पन्ने में उनकी उपस्थिति किसी अमूल्य निधि के समान सुरक्षित है. इतना ही नहीं, उनके अपने द्वारा संपादित कार्य ठीक उस सुगंधितत फूल के इत्र के समान है, जिसने खुद को निचोड़ -निचोड़ कर सारे इत्र देश के हवाले कर दिया, जिसकी सुगन्ध से अनंत काल तक हिंदी साहित्य की धरती सुवासित रहेगी.
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