Faisal Anurag
” यदि मैं किसी गरीब को खाना खिलाता हूं तो लोग मुझे संत कहते हैं लेकिन जब मैं पूछता हूं गरीबी का कारण क्या है तो वे ही कहते हैं मैं कम्युनिस्ट हूं. स्टेन स्वामी की जिंदगी इसी के आसपास केंद्रित रही है. ब्राजील के गरीबों के मुक्ति दूत पादरी येलदी कमेरा की यह उक्ति स्टेन के लिए भी एक सूत्र ही तरह सन्नद्ध रहा. उनकी संस्थानिक हत्या ने देशभर के प्रबुद्ध लोकतंत्र समर्थकों को पूरी तरह बेचैन कर दिया है. दुनिया भर में यह खबर आग की तरह फैली है.
भारत के लोकतंत्र,न्यायिक प्रक्रिया और संवैधानिक मूल्यों के हनन को लेकर इस घटना ने अनेक सवाल पैदा किए हैं. यह तो तय है कि सत्ता में बैठे लोग इन सवालों का कोई तार्किक जबाव नहीं देंगे, लेकिन उनके प्राधिकार यानी आथॉरिटी की आंच इससे और धूमिल हुई है. 84 साल का एक बूढ़ा व्यक्ति जो बगैर मदद के पानी भी नहीं पी सकता था, बिना इंसाफ हासिल किए ही मरने के लिए बाध्य कर दिया गया. झारखंड में उनके जानने वालों के लिए यह एक बड़ा आघात है. ऐसा आघात जिसकी गूंज देर और दूर तक सुनायी देगी.
फादर स्टेन स्वामी के अंतिम सन्देशों से कुछ शब्द का असर झारखंड में देखा जा सकता है. उन्होंने जेल जाने के पहले कहा था:”जो कुछ आज मेरे साथ हो रहा है, वह कोई नयी बात नहीं है. हम सभी इस तथ्य से अवगत हैं कि किस प्रकार हमारे महत्वपूर्ण बुद्धिजीवियों, वकीलों, लेखकों, कवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को जेलों में डाला गया है, सिर्फ़ इसलिए क्योंकि उन्होंने अपनी असहमतियों का इजहार किया था. मैं आज हर कीमत चुकाने को तैयार बैठा हूं, चाहे वह कितनी ही बड़ी क्यों न हो. अंतत: उन्हें कीमत चुकानी पड़ी और यह कीमत किसी भी लोकतंत्र को सवालों और संदेहों का सबब जैसा होता है.
स्टेन के सवालों,लेखों,भाषणों और अदालती सक्रियता को ही खतरा मान लिया गया. यह खतरा उन तमाम लोगों से महसूस किया जा रहा है, जो केंद्र सरकार की नीतियों के आलोचक हैं. जिन्होंने कॉरपारेटपरस्ती का खुला विरोध किया है. जो आदिवासी दलित वंचितों के न्याय के लिए सड़क पर उतरते हैं. जिन्होंने संविधान की हिफाजत और एक समानतामूलक लोकतंत्र की पैरवी करने का संकल्प कमजोर नहीं पड़ने दिया है. भारत ने इमरजेंसी में भी ऐसे न्यायिक हिरासत की मौतों ने इंदिरा गांधी की हार की पृष्ठभूमि तैयार की थी. कन्नड़ फिल्म अभिनेत्री स्नेहलता रेड्डी को कौन भूल सकता है. बैंगलुरु जेल में उन्हें एक तरह से मार दिया गया था. 1977 में जब चुनावों का दौर आया स्नेहलता ने लोगों की स्मृतियों को झकझोर दिया था. तानाशाहों की सीमा यह होती है वह लोकतंत्र और मानवाधिकार के महत्व को हमेशा कम करने की साजिश करता ही रहता है. आज की दुनिया में तो मानवाधिकार के सवाल बेहद महत्वूपर्ण हैं.
यही कारण है कि स्टेन की सांस्थानिक हत्या उनके जेल जीवन से कहीं ज्यादा असरदार दिख रहा है. राजनीति हो या अकादमिक दुनिया हर ओर इस मौत की गूंज सुनायी पड़ रही है. झारखंड में जिस तरह स्वत:स्फूर्त बैठकों और प्रतिरोध शुरू हुआ है, वह जल्द ही संगठित आकार लेने वाला है. स्टेन ने उन सवालों को उठाया जो झारखंड के आदिवासियों और वंचितों की जिंदगी से जुड़ा है. स्टेन ने रघुवर दास सरकार के लैंड बैंक के खिलाफ आदिवासियों को सजग किया. तब उन पर झारखंड सरकार ने देशद्रोह का मामला दर्ज कर दिया. कोयल कारो आंदोलन हो या ईचा खरखई, नेतरहाट का आंदोलन हो या संताल परगना में सिस्टर वालसा का आंदोलन,इस सबमें स्टेन हर एक के साथ खड़े रहे.
पांचवी अनुसूची का मामला हो, जेलों में 30 हजार से अधिक आदिवासी बंदी की रिहाई का सवाल स्टेन ने अदालत का दरवाजा खटखटाया, उसके दस्तावेज तैयार किए और उसे देशव्यापी बहस का मुद्दा बना दिया. खराब सेहत के बावजूद सीएनटी एसपीटी कानूनों की हिफाजत के हर अभियान में सक्रिय रहे. यह स्टेन ही थे जिनके लिए एक भी कार्यकर्ता का दर्द उनका अपना दर्द होता था और उनकी तड़प साफ महसूस की जा सकती थी. वे इस बात की गारंटी थे कि झारखंड में जहां कहीं नाइंसाफी होगी उनकी आवाज प्रतिरोध में उठेगी ही. ऐसे लोग अब कितने बचे हैं. यह दौर जबकि लोग अपने हितों को समाज हित से ज्यादा महत्व देते हैं स्टेन इस बात की गारंटी थे कि वे ग्रामीणों के दर्द को सुन कर चुप नहीं बैठेंगे.
स्टेन की प्रतिबद्धता,समर्पण और निडरता से घबरायी सत्ता ने उनके बहाने यह संदेश देने का नाकामयाब प्रयास किया है कि विरोध की हर आवाज का दमन स्वत: हो जाएगा. लेकिन स्टेन की मौत के बाद की देश भर की प्रतिक्रिया बता रही है, निरंकुश्ता की राह आसान नहीं है.
द टेलिग्राफ ने एक उदास हेडलाइन दिया है : फोरगिव अस नॉट, फादर. द टेलिग्राफ का यह हेडलाइन सब कुछ स्पष्ट कर रहा है. द इंडियन एक्सप्रेस के संपादकीय भी सवालों,रंज और बेचेनी से भरा हुआ है. यही नहीं स्टेन की मृत्यु विश्व मीडिया में भी चर्चा में है. हिटलर की फांसी के तख्ते को चुमते हुए ज्यूलिस फ्यूचिक ने कहा था, जो जिंदगी में निरपेक्ष नहीं रहता है वह लोगों की स्मृतियों जीवित रह प्रेरक बना रहता है.
स्टेन की मृत्यु पर भी साहिर लुधियानवी की ये पंक्तिया सार्थक हैं.
जिस्म की मौत कोई मौत नहीं होती