Prafulla kolkhyan
ऐसा लगता है कि भारत में ही नहीं, दुनिया के बड़े हिस्सा में विपत्तियों और आपदाओं का अटूट सिलसिला चल पड़ा है. चारों तरफ कोलाहल और कलह का माहौल ऐसा है कि जन-सरोकार से जुड़े मुद्दों पर बात भी करना मुश्किल है. इतिहास का यह वह दौर है जब जरूरी सवाल अप्रासंगिक और गैरजरूरी सवाल सिर पर सवार रहते हैं. हमारे देश के प्रधानमंत्री सपनों का जाल, नहीं माया-जाल पसारने में लगे हैं. पल की खबर नहीं, कल की बात करते हैं. 2047 के विकसित भारत की बात करते हैं. पांच साल के खंडित जनादेश पर खड़े हो कर पचास साल की बात करते हैं. वे सपनों की बात करते हैं, क्योंकि सपनों का कोई सबूत नहीं होता है. सपनों को सवाल पसंद नहीं, सपनों को सपने के बाहर का शोर पसंद नहीं है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सपनों के शहंशाह हैं. कुछ लोगों के मन में यह बात बैठ गई है कि वे सपनों के शहंशाह नहीं, सपनों के तानाशाह हैं. हालांकि हर बात को कानून से जोड़कर देखने-दिखानेवालों के मन में इस पर अलग-अलग राय है. लोकतंत्र के अनमने कर्णाधारों के लिए सपनों का शरणागत होना, आंख-कान मूंदकर आदेश-पालन में रात-दिन लगे रहना पवित्र कर्तव्य है. हालांकि प्रतिपक्षी दल कर्तव्य-निबाह की मर्म-कथाओं का सार संकेत ग्रहण नहीं करते हैं. ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि राजनीतिक आबो-हवा बदल रही है. जम्मू-कश्मीर और हरियाणा में विधानसभा चुनाव की घोषणा केंद्रीय चुनाव आयोग ने कर दी है. लेकिन इस या उस कारण से महाराष्ट्र, झारखंड विधानसभा और कई राज्यों के उप-चुनावों के बारे में कोई घोषणा नहीं की है. लोकसभा के लिए हुए आम चुनाव के परिणाम में भारतीय जनता पार्टी को लगे झटका के बाद यह पहला चुनाव होगा.
बदलाव के लिए आम चुनाव में दिखे जनता के मूड में स्थायित्व के बारे में अनुमान करने की दृष्टि से जम्मू-कश्मीर और हरियाणा के चुनाव का बहुत महत्व है. इसलिए विधानसभा चुनाव को लेकर राजनीतिक हलचल बढ़ गई है. राजनीतिक हलचल का मतलब? जन-समूह और मतदाताओं को भ्रमित करने के लिए तरह-तरह की चर्चाओं, अफवाहों का सिलसिला! भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में हवा बनाने के मकसद से मुख्य धारा की मीडिया में अटकल को अटकल बताते हुए उसे खबर की तरह पेश किया जाता है! इन राजनीतिक हलचलों के अलावा राजनीतिक आबोहवा में बदलाव के कुछ अन्य महत्वपूर्ण संकेत मिल रहे हैं. खबर है कि कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्दारमैया पर मुकदमा चलाने की अनुमति कर्नाटक के राज्यपाल ने दे दी है. भारतीय जनता पार्टी के नेता डॉ सुब्रह्मण्यम स्वामी को राहुल गांधी के भारत के नागरिक होने या बचे रहने पर ही इस समय नये सिरे से संदेह हो गया है! यों तो, डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी हैं भारतीय जनता पार्टी के ही नेता लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से उनकी बनती नहीं हैं. पूरे ‘गांधी परिवार’ और राहुल गांधी से उनकी शिकायत का कोई अंत ही नहीं है.
वे राहुल गांधी को भारतीय नागरिकता से ही वंचित करना चाहते हैं. उन्होंने नरेंद्र मोदी सरकार से राहुल गांधी की भारतीय नागरिकता छीनने की मांग करते हुए पत्र लिखा, पांच साल तक इंतजार किया. सरकार से कोई जवाब नहीं मिलने या संतोषजनक जवाब नहीं मिलने के कारण उन्होंने दिल्ली उच्च-न्यायालय में याचिका दायर की है. जिस आधार पर डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी ने भारत सरकार से राहुल गांधी की भारतीय नागरिकता रद्द करने की मांग की थी, उनमें जरा भी दम होता तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह अवसर मिलते ही कैसी कार्रवाई करते, किसी के लिए भी उसे समझना बहुत मुश्किल नहीं होना चाहिए. खैर, अब मामला दिल्ली उच्च-न्यायालय में है.
जो येन-केन-प्रकारेण पूरे ‘गांधी परिवार’ को राजनीतिक रूप से पंगु करने के लिए भारतीय जनता पार्टी किसी भी हद तक जा सकती है, इसके लक्षण साफ-साफ दिख रहे हैं. हालांकि खुद राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) में भारतीय जनता पार्टी अकेले दम पर बहुमत में नहीं है. इसलिए नरेंद्र मोदी सरकार का रुख ‘बहुत कुछ’ तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) के नेता एन चंद्रबाबू नायडू और जनता दल यूनाइटेड के नेता नीतीश कुमार के मौन-मुखर रुख पर भी निर्भर करेगा. इस समय भारतीय जनता पार्टी अपनी राजनीतिक परियोजना और ‘मित्र-धर्म निभाव’ में कब क्या कर बैठेगी, कुछ भी कहना मुश्किल है. महत्वपूर्ण सवाल यह है कि यदि ‘न्याय योद्ध राहुल गांधी को इन्हीं उलझावों में पड़े रहेंगे, तो ‘सामग्रिक न्याय’ संस्कृति संबंधित उन मुद्दों पर अपना ध्यान कैसे केंद्रित कर सकेंगे, जिन्हें पूरी ताकत से न्याय-पत्र में शामिल किया गया है.
यह ठीक है कि ‘न्याय-पत्र’ कांग्रेस का घोषणा पत्र है, लेकिन व्यवहारतः वह इंडिया अलायंस का राजनीतिक दस्तावेज है. यह बात कभी नहीं भूलने में ही सयानापन है कि ‘न्याय योद्धा’ राहुल गांधी के लिए राजनीतिक परेशानी खड़ी करके किसी राजनीतिक समस्या के समाधान के संभव होने की बात सोचना भी सत्यानाशी कुमति के अलावा कुछ नहीं है. विभिन्न मुद्दों पर जन-आक्रोश बढ़ रहा है. जन-आक्रोशों में राजनीतिक दलों के अंतर्विरोध खुलकर सामने आ रहे हैं. जन-सरोकार के मुद्दों पर राजनीतिक दल नागरिकों को एक-दूसरे के विरुद्ध खड़ा कर देता है. अ-प्रासंगिक और बे सिर पैर के राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप का सिल-सिला असल में जन-आक्रोश का इस्तेमाल जनता के खिलाफ ही कर लेने का षड़यंत्र होता है.
पेपरलीक, हत्या, बलात्कार, कृषि-उपज के न्यूनतम-समर्थन (MSP), विकराल बेरोजगारी, बेसम्हार महंगाई जैसे किसी मुद्दे पर आक्रोश हो, राजनीतिक प्रवक्ताओं के लिए तो लगता है अपनी बयान-बहादुरी और वफादारी साबित करने का मौका ही मिल जाता है. इन राजनीतिक प्रवक्ताओं को ऐसे मुद्दों की संवेदनशीलता से वाकिफ कराते हुए समझदारी से पार्टी का पक्ष रखने की सलाह संबंधित राजनीतिक दलों के शीर्ष नेतृत्व दे सकते हैं, लेकिन नहीं देते हैं. उन से उम्मीद भी क्या की जा सकती है! उन से उम्मीद न करे तो फिर किन से उम्मीद रखे! कुछ भी कहना मुश्किल है. राजनीतिक विच्छिन्नता और अराजकता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. राजनीतिक दल लोकतंत्र की प्रक्रिया के प्रत्यक्ष और मूर्तिमंत स्वरूप होते हैं. उन से जुड़े साधारण-असाधारण सदस्य के अपराध के लिए पूरे दल को जवाबदेह बनाकर राजनीतिक-अग्रता हासिल करने की प्रवृत्ति अंततः लोकतंत्र को ही क्षतिग्रस्त कर देती है. पता नहीं राजनीतिक दलों को स्थिति की गंभीरता कब समझ में आयेगी!
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.
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