Satya Sharan Mishra
Ranchi: राज्य में 14 साल तक बनी सभी सरकारें कमजोर रही. बैसाखियों के सहारे खड़ी सरकारों से 2014 में राज्य को मुक्ति मिल गई, लेकिन उसके बाद बनी बहुमत की सरकारों में सत्ता की जिद हावी हो गई. कमजोर और बिना रीढ़ वाली सरकार से राज्य को मुक्ति मिली तो कमजोर विपक्ष से पाला पड़ गया. रघुवर दास ने सत्ता के जिद की जो नयी परंपरा शुरू की हेमंत सोरेन भी उसी राह पर चल रहे हैं. पहले रघुवर ने सीएनटी-एसपीटी, नियोजन और स्थानीय नीति, बकोरिया, तबरेज मॉब लिंचिंग, भूमि अधिग्रहण कानून और पत्थलगड़ी जैसे मुद्दों पर विपक्ष की आवाज को नजरअंदाज किया. अब हेमंत सोरेन की सरकार पिछली सरकार से मिली सीख उसे ही लौटा रही है. सरकार में आते ही नियोजन नीति निरस्त करते हुए हेमंत सोरेन कोर्ट गये. पत्थलगड़ी समर्थकों पर दर्ज किये मुकदमों को वापस लिया. विधानसभा में बीजेपी की तरफ से किये गये मांगों को अनसुना किया गया और अब रूपा तिर्की मामले में बीजेपी की तरफ से किये जा रहे सीबीआई जांच की मांग पर भी हेमंत सोरेन चुप्पी साधे हुए हैं.
बहुमत के मद में बढ़ा डिक्टेटरशिप !
2014 में सत्ता संभालते ही बहुमत वाली रघुवर सरकार ने ताबड़तोड़ फैसले लेने शुरु कर दिया. सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन, स्थानीय और नियोजन नीति बनाने जैसे कई फैसले सरकार ने लिये. मुख्य विपक्षी पार्टी जेएमएम सदन से सड़क तक प्रदर्शन करता रहा, लेकिन सरकार अपने फैसले से पीछे नहीं हटी. बहुमत के मद में डिक्टेटरशिप बढ़ गई. विधानसभा के अंदर विपक्ष चीखता-चिल्लाता रहा कि सरकार का फैसला जनहित और मूलवासियों के हित में नहीं है इसे वापस ले लिया जाए. सरकार पर दबाव बनाने के लिए प्रमुख विपक्षी दल जेएमएम उस वक्त पूरे के पूरे सत्र का दौरान बॉयकॉट कर सदन के बाहर रहा, लेकिन तत्कालीन रघुवर सरकार अपने फैसले से पीछे हटने को तैयार नहीं थी. उस वक्त ऐसा लग रहा था झारखंड में विपक्ष है ही नहीं. सरकार को न विपक्ष का सहयोग चाहिए था और किसी मुद्दे पर उसकी सहमति. बिना विपक्ष के चले विधानसभा सत्र में ताबड़तोड़ विधेयक पारित और पास हुए. क्योंकि विरोध करने के लिए सदन में विपक्ष था ही नहीं. कांग्रेस और जेवीएम विपक्ष में थे, लेकिन सरकार के बहुमत की आवाज के सामने उनकी आवाज भी दब गई. विपक्ष की सभी मांगों को सरकार ने दरकिनार कर दिया.
बहुमत के आगे दब गया विपक्ष का शोर
बकोरिया कांड की सीबीआई जांच, पत्थलगड़ी समर्थकों पर दमनात्मक कार्रवाई बंद करने और तबरेज अंसारी मॉब लिंचिंग जैसे मुद्दे को लेकर जेएमएम आवाज उठाता रहा. सीबीआई जांच की मांग करता रहा, लेकिन विपक्ष के शोर ने सत्ता की जिद के आगे दम तोड़ दिया. मुख्यमंत्री रघुवर दास का एटीट्यूट और बॉडी लैंग्वेज ऐसा हो गया था मानो हिटलरशाही चल रही हो. राजनीति में विपक्ष की भूमिका ही न हो. सरकार अपने लिये फैसलों और किसी भी सूरत में बैकफुट पर आने को तैयार नहीं थी. एक वक्त तो ऐसा भी आया जब सरकार के सामने कमजोर पड़ा जेएमएम पूरी तरह शांत हो गया. महंगाई, बेरोजगारी, घोटाले और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर सिर्फ कांग्रेस और जेवीएम ही आवाज उठा रही थी. ऐसा लगने लगा मानो अब जेएमएम का राजनीतिक करियर ढलान पर है.
यहां भी दांव पड़ गया उल्टा
विधानसभा अध्यक्ष की शक्तियों का इस्तेमाल करने की सीख भी जेएमएम ने बीजेपी से ही ली है. जेवीएम के 6 विधायकों के बीजेपी में विलय के मामले पर पूरे कार्यकाल के दौरान स्पीकर के न्यायाधीकरण में केस चलता रहा और जेवीएम से बीजेपी इंपोर्ट किये गये विधायक सरकार में मंत्री पद पर बने रहे. बीजेपी की पिछली सरकार का यह दांव भी उसपर उल्टा पड़ गया. इस बार बाबूलाल मरांडी को नेता प्रतिपक्ष का दर्जा दिये जाने के मामले में स्पीकर की तरफ से पेंच फंस गया. डेढ़ साल हो गये और बाबूलाल अबतक नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी पर नहीं बैठ पाये हैं.
फैसलों पर सहमति नहीं होती थी तो सहयोगी ही गिरा देते थे सरकार
झारखंड की राजनीतिक स्थिति कभी बैलेंस नहीं रही. कभी सरकार कमजोर रही तो कभी विपक्ष कमजोर रहा, लेकिन जब सरकारें कमजोर थी तब सरकार के फैसले एकतरफा नहीं होते थे. अगर सरकार दबाव के बाद भी फैसले नहीं बदलती थी तब विपक्ष छोड़िये सत्ता पक्ष के लोग ही सरकार गिरा देते थे. डोमिसाइल प्रकरण में राज्य के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी की सरकार से विदाई हो गई थी. वहीं इसके बाद अर्जुन मुंडा की सरकार एक सड़क की वजह से गिर गई. हाट-गम्हरिया रोड प्रकरण ने सत्ता की चाबी अर्जुन मुंडा से निर्दलीय मधु कोड़ा तक पहुंच गई थी. इसके बाद कोड़ा भी नहीं बचे. कोयला घोटाला में नाम आते ही मधु कोड़ा के खिलाफ सहयोगी कांग्रेस ने मोर्चा खोल दिया. कोड़ा को इस्तीफा देना पड़ा और जेल भी गये.