Nand Kishore Acharya
एक महाशक्ति के रूप में सोवियत संघ के पतन व बिखराव से जहां अंतरराष्ट्रीय शक्ति संतुलन के डगमगाने का एहसास हो रहा है, वहीं बहुत-से राजनीतिक विश्लेषकों को एक वैचारिक असंतुलन का अनुभव भी होने लगा है. रूसी क्रांति के बाद से ही यह माना जाने लगा था कि दुनिया पूंजीवाद और समाजवाद के दो वैचारिक ध्रुवों में बंटी है, जिनमें अंततः समाजवाद की जीत निश्चित है, क्योंकि पूंजीवाद अपने अंतर्विरोध से ही लड़खड़ा जाएगा. पूंजीवाद के समर्थक इसीलिए साम्यवाद की असफलता पर कुछ अधिक खुश दिखाई दे रहे हैं क्योंकि वे महसूस करते हैं कि कल चाहे महाशक्ति के रूप में कोई अन्य पूंजीवादी देश अमेरिका का मुकाबला करने के लिए खड़ा हो भी जाय, पर यह तय है कि एक आर्थिक-राजनीतिक विचारधारा के रूप में पूंजीवाद अंतिम तौर पर जीत चुका है.
लेकिन यदि पूंजीवाद और साम्यवाद के इस कथित द्वंद्व के आवेश से थोड़ा अलग हटकर विचार करें तो यह साफ दिख जाता है कि पूंजीवाद और साम्यवाद में यदि कभी कोई द्वंद्व रहा भी है तो वह दो पूर्णतया भिन्न या विरोधी विचारधाराओं का द्वंद्व नहीं है. वह अधिक से अधिक वैसा ही है जैसा एक ही मजहब के दो संप्रदायों या एक ही संप्रदायों की दो शाखाओं के बीच होता है. दूसरे अर्थों में यह द्वंद्व बुनियादी नहीं, बल्कि ऊपरी बातों को लेकर अधिक होता है. पूंजीवाद और साम्यवाद का वैचारिक द्वंद्व– खासतौर पर आर्थिक संदर्भ में वस्तुतः द्वंद्व का एक आभास मात्र ही था. दोनों ही संप्रदायों का बीज औद्योगीकरण या औद्योगिक विकासवाद है.
यदि हम यह नहीं भी मानें कि प्रौद्योगिकी ही हमारे मानसिक और संस्थागत बदलाव का एकमात्र निर्धारक कारण है तो भी इतना तो मानना ही पड़ेगा कि वह हमारे समूचे जीवन को प्रभावित करने वाला एक अत्यंत महत्वपूर्ण घटक है, जिसकी कतई अनदेखी नहीं की जा सकती है. यह तो तय ही है कि हमारी आर्थिक-राजनीतिक संस्थाएं तो अनिवार्यतः उसकी प्रवृत्ति से ही निर्धारित होती हैं. प्रौद्योगिकी की इस भूमिका को महात्मा गांधी ने भी गहराई से पहचाना था- यद्यपि उनकी मान्यता यह थी कि उसका चुनाव और विकास हम अपनी मनोवृत्ति के अनुसार करते हैं. मशीनीकरण इसलिए उनके विचार में हमारी लालची मानसिकता का परिणाम है, यद्यपि जब हम एक बार इसे अपना लेते हैं तो लगातार एक दुश्चक्र में फंसते जाते हैं.
यह आश्चर्यजनक है कि स्वार्थ और लालच जैसी वृत्तियों को भी आधुनिकतावादी अर्थशास्त्री विकास के लिए जरूरी समझता है. प्रसिद्ध अर्थशास्त्री कीन्ज ने प्रथम युद्ध के बाद भयंकर आर्थिक मंदी से निकलने के लिए इन वृत्तियों को उचित ठहराया था. उन्होंने लिखा, “अभी तो आने वाले कम से कम सौ साल तक हमें अपने-आप को और प्रत्येक व्यक्ति को इस भुलावे में रखना होगा कि जो उचित है, वह गलत है और जो गलत है वह उचित है, क्योंकि जो गलत है वह उपयोगी है- जो उचित है वह नहीं. अभी हमें कुछ अरसे तक लोभ, सूदखोरी और एहतियात की पूजा करनी होगी, क्योंकि इन्हीं की सहायता से हम आर्थिक आवश्यकताओं के अंधेरे रास्ते से निकल कर रोशनी में कदम रख सकेंगे.” यह ध्यान देने की बात है कि पूंजीवादी और सोवियत समाजों में न तो उत्पादन की पद्धति और उपकरणों में कोई बुनियादी अंतर था और न उनके प्रबंधन में.
उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में एक अमरीकी इंजीनियर फ्रेडरिक विनस्लो टेलर ने ‘वैज्ञानिक प्रबंधन’ नाम की प्रबंधन तकनीक का विकास किया था, जिसकी मूल मान्यता थी कि एक मजदूर से काम लेते हुए उस पर उन्हीं सिद्धांतों को लागू किया जाना चाहिए, जो एक मशीन के पुर्जे पर लागू होते हैं. यह घनघोर पूंजीवादी मान्यता कही जा सकती है और बहुत-से समाजवादी मित्रों को शायद यह जानकर धक्का लगे कि लेनिन के विचारों में यह ‘वैज्ञानिक प्रबंधन’न केवल पूंजीवादी विकास का सही रास्ता था, बल्कि समाजवादी उत्पादन व्यवस्था की समस्याओं का भी एकमात्र समाधान था. यही कारण था कि जिस लेनिन ने क्रांति से पूर्व उत्पादन व्यवस्था मजदूरों को सौंपने की बात कही थी, उसी ने क्रांति के बाद स्पष्ट कर दिया कि उत्पादन-प्रबंधन की जिम्मेदारी मजदूरों की नहीं बल्कि राज्य के नौकरशाहों की है. इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि पूंजीवाद और समाजवाद का वैचारिक संघर्ष वास्तविक नहीं, बल्कि एक भ्रम ही अधिक रहा और यह भी कि साम्यवाद की असफलता से किसी वैचारिक संघर्ष के समाप्त हो जाने का शोक मनाने का कोई औचित्य नहीं है, बल्कि हमें इस असफलता का शुक्रगुजार होना चाहिए कि इसने हमारे एक भ्रम को पूरी तरह नष्ट कर दिया.
पूंजीवाद और साम्यवाद के द्वंद्व से पीड़ित वातावरण में गांधीजी और मार्क्स को आमने सामने करके बहुत-से विचारक गांधीजी को पूंजीवादी मुक्त बाजार की अर्थव्यवस्था के समर्थन में घसीट लाने का कुप्रयास करते रहे हैं. दूसरी ओर, गांधी और मार्क्स के समन्वय का प्रयास करने वाले आधुनिकतावादी प्रौद्योगिकी और केंद्रीकरण के साथ गांधीजी की अहिंसा के सिद्धांत को मिलाने की कोशिश करते रहे हैं- यह भूल जाते हुए कि यह प्रौद्योगिकी और केंद्रीकरण अनिवार्यतया अहिंसा की मानसिकता के शत्रु हैं.
आज की दुनिया का असली वैचारिक द्वंद्व, खासतौर पर आर्थिक संदर्भ में, स्वदेशी और सार्वभौमिक प्रौद्योगिकी तथा विकेंद्रीकरण और केंद्रीकरण के बीच है. प्रत्येक प्रौद्योगिकी की अपनी राजनीति होती है, इसलिए हमारी राजनीतिक संरचना भी मुख्यतः प्रौद्योगिकी के चुनाव से तय होनी है. आधुनिक प्रौद्योगिकी में आस्था रखने वालों के बीच यदि कोई संघर्ष होता है तो वह एक कृत्रिम संघर्ष है. जब हम प्रौद्योगिकी की बहुलता को स्वीकार करते हैं तब हम सामाजिक-सांस्कृतिक क्षेत्र में भी एक बहुलवादी दृष्टि की वांछनीयता पर जोर दे रहे होते हैं, जबकि इसके बरक्स जब हम एक सार्वभौमिक प्रौद्योगिकी को चुनते हैं तो प्रकारांतर से सामाजिक, सांस्कृतिक क्षेत्र में भी एकपंथवाद या राजनीतिक क्षेत्र में प्रत्यक्ष या परोक्ष, किसी-न-किसी प्रकार के अधिनायकवाद को चुन रहे होते हैं. साम्यवाद के भ्रम से मुक्ति के बाद आज का असली संदर्भ यही है. क्या हम इसे पहचानेंगे?
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.