Shyam Kishore Choubey
अर्जुन मुंडा के मुख्यमंत्रित्व वाली तीसरी सरकार चाहे जैसी भी थी, पूर्व की सात सरकारों से बेहतर पोजीशन में चल रही थी. दिल्ली के दबाव, अर्जुन मुंडा की चतुराई और जिस हाल में झामुमो सरकार में शामिल हुआ था, उसमें मंत्रियों की खुदमुख्तारी की बहुत गुंजाइश नहीं थी. वह सरकार हाउस भी अपेक्षाकृत अधिक सहज ढंग से फेस कर लेती थी. फिर भी विधानसभा के अंदर की दो घटनाएं ऐसी हुईं, जिन्होंने बरबस सबका ध्यान खींच लिया और एक इतिहास बन गया. जैसा कि आम तौर पर होता है, सदन की दूसरी पाली में अपेक्षाकृत कम उपस्थिति ही दर्ज होती है. चूंकि अपराह्नकालीन बैठकों में विधायकों के सवाल आते नहीं हैं, इसलिए शायद वे यह भी सोचते हों कि भाषण सुनने कौन जाये? दूसरी ओर संविधान के अनुच्छेद 193-3 के अनुसार सदन की कार्यवाही तभी चलेगी, जब कम से कम दस सदस्य या सदन के संख्याबल के दशांश सदस्य और इन दोनों शर्तों में से जिसकी संख्या अधिक हो, उपस्थित हों. 2012 के बजट सत्र में 26 मार्च को सदन की दूसरी पाली में सदन की कार्यवाही 15 मिनट के लिए इसलिए स्थगित करनी पड़ी, क्योंकि उपस्थित सदस्यों से सदन का कोरम पूरा नहीं हो रहा था, यानी दस सदस्य भी उपस्थित नहीं थे.
उसी वर्ष शीत सत्र में तो गजब ही हो गया. 05 दिसंबर 2012 को पहली पाली में सत्ता पक्ष और प्रतिपक्ष के विधायक आकर अपनी-अपनी सीट पर आसीन हो गये. अधिकतर मंत्री भी आ गए थे. आसन पर स्पीकर भी विराजमान हो गये थे. उन्होंने कार्यवाही शुरू करने की घोषणा की लेकिन तत्क्षण सभी विधायक और यहां तक मंत्री भी यह कहते हुए वाकआउट कर गये कि नौकरशाही हावी है, उनके विधायक मद की राशि जारी नहीं की जा रही है. दरअसल, सरकार द्वारा निर्धारित प्रावधानों के अनुसार किसी भी योजना के लिए ली गयी अग्रिम राशि (एसी बिल) के सापेक्ष खर्च राशि का पक्का बिल (डीसी बिल) जमा नहीं करने पर अगली निकासी नहीं की जा सकती. दूसरी ओर विधायक मद में डीसी बिल जमा ही नहीं हो पा रहा था. इस कारण वित्त विभाग ने इस मद की अगली राशि पर रोक लगा दी थी. सभा सदन से बाहर निकलकर विधायकगण अपने बयान जारी करने लगे और कहा कि जबतक सरकार यह नियम शिथिल नहीं करती, वे सदन के अंदर नहीं जायेंगे. उस दिन विधायकों, मंत्रियों ने दोनों पालियों में अपना बहिष्कार जारी रखा. उनके दबाव में देर रात वित्त विभाग ने इस महत्वपूर्ण प्रावधान का संशोधित रूप जारी कर दिया. दूसरे दिन से सदन बाकायदा चलने लगा. इसी सत्र में एक दिन ऐसा भी गुजरा, जब शून्यकाल में 15 में से 12 सूचनाएं विधायक मद की रुकी राशि पर ही थीं.
विधायक मद से कैसे काम होता है, इसके विस्तार में जाने की जरूरत नहीं है, क्योंकि हर कोई जानता है. इतना हर किसी को पता है कि विधायक इस मद में अपने क्षेत्र में निर्धारित योजना डीडीसी को सौंपते हैं. उन योजनाओं को संबंधित विभाग पूरा कराता है. हालांकि सच यही है कि विधायक योजना के साथ ही काम करानेवाले कार्यकर्ता या पसंदीदा व्यक्ति के नाम भी सामने रख देते हैं. अधिकांश मामलों में प्रशासन बिना काई लफड़ा किये इसे मान भी लेता है. ठेकेदार रूपी ये कार्यकर्ता मनमाना काम करते हैं, जबकि डीसी बिल जमा करने की जवाबदेही संबंधित सरकारी पदाधिकारी की होती है. यानी काम कराता कोई और है और डीसी बिल जमा करना पड़ता है किसी और को. इसलिए कट राशि बढ़ जाती है. चूंकि कई लोगों को उपकृत करना रहता है, इसलिए सामान्यतः माननीयगण छोटी-छोटी योजनाएं ही प्रस्तावित करते हैं, जिनमें अर्थ वर्क को प्राथमिकता दी जाती है.
झारखंड में यूं तो एसी बिल और डीसी बिल का लफड़ा काफी कुख्यात है लेकिन विधायक मद का मामला उन दिनों टॉप पर था. इसलिए इस मसले पर सत्ता पक्ष और प्रतिपक्ष एक हो गया था. यहां तक कि जिनकी कलम से कानून बनता है, वे मंत्री भी उसी सुर में सुर मिलाने लगे थे. आखिरकार वे विधायक पहले थे, मंत्री बाद में. बाकी योजनाओं पर गौर करें तो सीएजी की रिपोर्ट के अनुसार 31 मार्च 2019 तक राज्य में 5,478.51 करोड़ का डीसी बिल बकाया था. इसी प्रकार 31 मार्च 2019 तक केंद्र को 25,231 मामलों में 53,379 करोड़ रुपये मूल्य के उपयोगिता प्रमाण पत्र नहीं दिये जा सके थे. विकास बेचारा कहां बैठकर रोये? (जारी)
(नोटः यह श्रृंखला लेखक के संस्मरणों पर आधारित है. इसमें छपी बातों से संपादक की सहमति आवश्यक नहीं है.)
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