Shyam Kishore Choubey
जो भाजपा पूर्व की यूपीए सरकारों के समय एक भी मंत्री पद खाली रहने पर संवैधानिक मसला बताते हुए सड़क से सदन तक हल्ला-हंगामा करने और यहां तक कि राजभवन के समक्ष धरना-प्रदर्शन में नहीं चूकती थी, उसी भाजपा को रघुवर कैबिनेट में एक मंत्री पद पांच साल तक रिक्त रहने पर संविधान याद तक न आया. प्रतिपक्ष इस विषय पर हल्की-फुल्की आवाज उठाने के बाद शांत हो गया. उसको शायद यह भान हुआ कि चलो अच्छा ही हुआ, जब हमारी बारी आयेगी, तब भाजपा कुछ कहने लायक न रहेगी. संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार सौ से कम सदस्यों वाले सदन में मुख्यमंत्री सहित 12 मंत्री होने चाहिए, लेकिन सरकार मजबूत हो तो वह 11 क्या, तीन-चार मंत्रियों पर भी कार्यकाल पूरा कर ले सकती है. रोकने-टोकने वाला कोई हो तब तो! यह सोचने की बात है कि राज्य की पहली सरकार में मुख्यमंत्री सहित 27 मंत्री बनाकर जो भाजपा फेल हो गयी, उसके अगले संस्करण ने नियत 12 की जगह मुख्यमंत्री सहित 11 मंत्री ही बनाकर पांच साल अकड़कर सरकार चलायी. एक अघोषित संवैधानिक व्यवस्था यह भी है कि छोटे सदन साल में कम से कम 50 बैठकें जरूर हों, लेकिन झारखंड गवाह है कि ऐसा कभी न हुआ. सदन की बैठकों का मतलब है सत्ता पक्ष और प्रतिपक्ष द्वारा सहमति से जनहित में फैसले लेना, उनको कार्यरूप देना और यदि कोई अवरोध आता है, तो उसका समाधान करना. ऐसा हो पाता तो लालू प्रसाद का कथन सही साबित हो जाता, ‘सारा सोना झारखंड में चला गया’. या फिर जैसा कि हर मुख्यमंत्री ने इसे नंबर एक राज्य बनाने के सपने दिखाये, वैसा कुछ हो भी जाता लेकिन 21 वर्षों में हम कितनी तरक्की कर किस नंबर तक पहुंच सके, यह सबके सामने है. गो कि अभी भी इसकी गिनती नीचे से ही होती है, ऊपर से नहीं.
रघुवर दास सदन में चाहे जैसे भी हो, अपनी स्थिति बेहद मजबूत कर काम-काज की ओर प्रवृत्त हुए, तो गोड्डा के कुछ गांवों में अडाणी पावर प्लांट के लिए जमीन अधिग्रहण को लेकर सदन में फंस गये. उनकी सरकार ने वहां की जमीन का अधिग्रहण मूल्य इतना कम तय कर दिया था कि रैयतों में उबाल आ गया. यह मसला जेवीएम के प्रदीप यादव ने उठाया तो पूरे प्रतिपक्ष ने इसको हाथोहाथ लिया. सदन पूरी तरह से डिस्टर्ब रहने लगा, बल्कि यूं कहें कि सदन चलने की स्थिति ही न बन पाती थी. हार कर सरकार को विशेष कमेटी बनाकर उक्त जमीन की कीमत बाजार दर पर तय करनी पड़ी, लेकिन इसमें काफी समय जाया हो गया. खासकर बाबूलाल ने इसको मुद्दा बना लिया. वे गांव-गांव घूमकर, बैठक-सभा कर सबके दिल-दिमाग में यह भरने में कामयाब रहे कि यह सरकार कारपोरेटों के एजेंट की तरह काम कर रही है. इसे झारखंडियों की कतई फिक्र नहीं है. झामुमो भी इसी अभियान में लगा लेकिन उसके नेताओं में बाबूलाल की तरह घुकक्कड़ी की आदत नहीं थी. निश्चय ही शिबू सोरेन के बाद बाबूलाल एकमात्र नेता हैं, जो झारखंड की नब्ज की पकड़ रखते हैं और अहर्निश मेहनत करते हैं. शायद ही कोई इलाका हो, जहां वे नहीं गये हों या जहां के लोग उनको जानते न हों. वे अपनी व्यापक पहचान और स्वीकार्यता को वोट में नहीं बदल पाते, यह अजीब तिलिस्म है. शिबू और उनकी तुलना करें तो हम पाते हैं कि पलामू जैसे इलाके में बाबूलाल की पहचान अधिक है, क्योंकि आंदोलन काल में शिबू संताल परगना, धनबाद, कोल्हान आदि में अधिक सक्रिय रहे, जबकि वनांचल भाजपा अध्यक्ष रहते बाबूलाल पूरे झारखंड में घूमे. उनकी यह आदत बनी रही, जो भाजपा से अलग होने के बाद जुनून में बदल गयी.
रघुवर ने राजनीतिक तौर पर एक गलती और की. उन्होंने अंग्रेजों के काल से चले आ रहे सीएनटी एक्ट और आजादी के बाद बनाये गये इसी तर्ज पर, बल्कि इससे भी अधिक कड़े एसपीटी एक्ट में संशोधन विधेयक सदन में तीव्र विरोध के बावजूद पारित करा दिया. इनमें कुछ शर्तों के साथ जमीन अधिग्रहण में छूट की व्यवस्था थी. ये विधेयक तत्कालीन राजस्व मंत्री अमर कुमार बाउरी ने सदन पटल पर 23 नवंबर 2016 को रखा था, जिन्हें प्रचंड विरोध के बावजूद पारित करा लिया गया था. प्रतिपक्ष के लिए यह ‘गोड्डा’ से भी बड़ा हथियार साबित हुआ. उसने खासकर जनजातीय क्षेत्र में इसके विरोध में जबर्दस्त माहौल तैयार कर दिया. रैयतों के मन में यह बात घर कर देने में प्रतिपक्ष सफल रहा कि यह सरकार जमीन हड़पने पर आमादा है. चूंकि सीएनटी और एसपीटी एक्ट केंद्रीय कानून हैं, इसलिए इनमें कोई भी संशोधन केंद्र सरकार ही कर सकती है. रघुवर के लिए यही बड़ा पेंच साबित हुआ. गर्वनर द्रौपदी मुर्मू ने दोनों संशोधन विधेयकों को स्वीकृति के लिए दिल्ली भेज दिया, जिन्हें काफी विलंब के बाद अस्वीकृत कर दिया गया. अब सोचिए, रघुवर की कैसी स्थिति बनी होगी. जमीन के मसले उनकी राजनीतिक जमीन लील लेने की तैयारी करने लगे. कोढ़ में खाज की तरह रघुवर के ही कार्यकाल में ईसाई मिशनरियों के एनजीओ और कुछ अन्य केंद्रों पर शिकंजा कसा जाने लगा. राज्य में कन्वर्टेड ईसाइयों में सर्वाधिक तादाद आदिवासियों की ही है. स्थिति यहां तक है कि एक ही परिवार का कोई सदस्य ईसाई है तो कोई सरना. रघुवर के कृत्य से पांच वर्षों में कुल मिलाजुलाकर जनजातीय समुदाय में सरकार विरोधी माहौल बन गया. इसका पूरा फायदा झामुमो और कांग्रेस को 2019 के चुनाव में मिला. सरना और क्रिश्चियन आदिवासी एकजुट हो गये. राज्य की 28 जनजातीय सीटों में से 26 सीटें यूपीए के खाते में चली गयीं. झामुमो के गलत निर्णयों के कारण भाजपा के हिस्से में खूंटी और उसकी बगल की तोरपा दो ही सीटें आ सकीं. झामुमो ने इन दोनों सीटों पर अलोकप्रिय उम्मीदवार दे दिया था, अन्यथा बहुत संभव था कि वह इन पर भी कब्जा जमा लेता. यह चुनाव आते-आते यूपीए फोल्डर से जेवीएम अलग हो चुका था और उसने सभी सीटों पर प्रत्याशी दिये थे लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि वोटरों को रघुवर सरकार पलटने की संभावना यूपीए में नजर आयी. इसलिए बाबूलाल के प्रत्याशी कोई करिश्मा न दिखा सके.
हमारे देश की लोकशाही में संगठन का अहम रोल होता है. सरकार नीतियां बनाकर लागू करती है, जबकि उसके लाभालाभ के पक्ष में जनमत संगठन ही तैयार करता है. रघुवर काल में भाजपा संगठन का आलम यह कि उसके प्रदेश अध्यक्ष बनाये गये संतालपरगना स्थित बोरियो के विधायक ताला मरांडी. दुर्भाग्य यह कि भाजपा प्रदेश अध्यक्ष बनते ही वे विवादों में आ गए. उनका पारिवारिक विवाद इतना गूंजा कि उनको आनन-फानन में चलता कर सिंहभूम के सांसद लक्ष्मण गिलुआ को यह जवाबदेही दी गयी. गिलुआ का न तो कद बड़ा था, न ही वे बहुत दक्षता से संगठन चला सके. संगठन खेमों में बंटा हुआ था. विधानसभा चुनाव हार जाने के बाद अर्जुन मुंडा मौन साधे हुए थे. रांची से दिल्ली तक उनका यथा अवसर ही उपयोग किया जाता था, लेकिन उनकी सक्रियता बरकरार रखने का कोई उपक्रम न किया गया, जैसे कि 2019 में विधानसभा चुनाव हार जाने के बाद रघुवर को भाजपा का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाकर उनकी अहमियत बनाये रखी जा रही है. दूसरी ओर न केवल प्रदेश भाजपा, अपितु पूरे राज्य में मुंडा के चाहनेवालों की कमी नहीं थी. रघुवर और अर्जुन मुंडा में कभी तालमेल न रहा. इन परिस्थितियों में रघुवर के अच्छे कार्यों की भी जनमानस तक पहुंच न बन पायी. उन्होंने अपनी समझ से एक अच्छा ही कदम उठाया था, जिसके तहत ठेका-पत्ती और पैरवी-सिफारिश से कार्यकर्ताओं को दूर रखा गया. नौकरशाही को भी यह संदेश दे दिया गया था. इससे कार्यकर्ताओं में हताशा थी, घोड़ा घास से दोस्ती करेगा तो खायेगा क्या? कार्यकर्ताओं की आमदनी का कोई जरिया न रहे तो अपनी जमापूंजी लगाकर संगठन के लिए काम करनेवालों की तादाद निश्चय ही कम ही होगी. (जारी)
(नोटः यह श्रृंखला लेखक के संस्मरणों पर आधारित है. इसमें छपी बातों से संपादक की सहमति आवश्यक नहीं है.)
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