Sunil Badal
दिल्ली की श्रद्धा वालकर (27) और आयुषी यादव(21) की अमानुषिक हत्या संयोग से चर्चा में है, वर्ना लाखों ऐसी लड़कियां गांवों से लेकर शहरों तक से लापता हो गईं हैं, उनकी हत्या हो गई या उन्हें खामोश कर दिया गया.
झारखंड के अलावा छत्तीसगढ़, बंगाल, ओडिशा और बिहार में मानव व्यापार से लेकर संदिग्ध विवाह और काम दिलाने के नाम पर ले जाकर बेच देने और शोषण के लाखों मामले दर्ज हैं और बहुत से मामले सामने आते भी नहीं.
दरअसल यह एक द्वंद है बदलते भारत और आधुनिकता के भ्रम के बीच. लगभग चार दशक पूर्व जब रंगीन टीवी के रूप में सूचना और मनोरंजन की क्रांति हमारे घरों में घुसी तो ब्यूटी पार्लरों की बाढ़ गांव से शहर तक आई और चुंबन पर आपत्ति करने वाला आम भारतीय बिना शादी किए लिव इन रिलेशनशिप को भी कानूनी स्वीकार कर लिया. इसका सबसे ज्यादा असर उन निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों पर पड़ा, जो पंरपरा से भी बंधे थे और पिछड़े भी कहलाना नहीं चाहते थे.
श्रद्धा पालघर महाराष्ट्र की तो आयुषी मूलतः गोरखपुर की थी और दोनों के मन में दो प्रकार के द्वंद थे. श्रद्धा अच्छी पढ़ी लिखी मासकॉम की विद्यार्थी रही थी और कॉल सेंटर में काम करती घर से दूर थी तो आयुषी यह समझने की भूल कर बैठी थी कि 99 प्रतिशत भारतीय फिल्मों और धारावाहिकों में जाति धर्म विहीन प्रेम विवाहों के दृश्यों और गीतों पर ताली बजाने और नाचने वाला भारत इसे स्वीकार नहीं करता .
श्रद्धा अपने बगावती फैसले के कारण माता पिता के अभिभावकत्व से दूर अकेली निर्भर थी उस आफताब पर जिसके आकर्षण और भय से वह पुलिस को अपने टुकड़े किए जाने की धमकी के आवेदन को वापस ले लेती है. यहां उसके साथ इस बात का भी भय था कि समाज उसे वापस स्वीकार नहीं करेगा! जब सारे रास्ते बंद हों तो उसे बंद करने वाला समाज और माता पिता के साथ मनोरंजन के वे सौदागर जिम्मेदार हैं, जो अपने मुनाफे के लिए भारत की सच्चाई के बजाय फैंटेसी फैलाते हैं कि प्यार बड़ा होता है जाति, धर्म और समाज का बंधन नहीं. यहां एक बात समझने की है कि समाज का दबाव या प्रभाव उचित अनुचित का निर्णय में भले दकियानूसी करे, पर उसकी उपस्थिति श्रद्धा को अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने में मदद जरूर करती.
दूसरी तरफ आयुषी को भी उसके सबसे प्रिय और रक्षक पिता ने मार डाला और उसके भाई की ट्रॉली में पैक कर फेंक दिया, क्योंकि समाज सवाल उठाता कि बेटी ने अंतरजातीय विवाह क्यों किया? क्या समाज उस परिवार के दर्द और दुःख को थोड़ा भी कर पाएगा, जो अब वे झेल रहे हैं? सोचना समाज को है कि कमी कहां पर है, जो देह प्रदर्शन, उन्मुक्त यौन संबंध और विद्रोह के बीच मूक दर्शक बना है या सीधे हत्या करने पर उतारू है. समय के हिसाब से मान्यताएं बदलती ही हैं, पर समन्वय कैसे हो? क्या ऐसा कर अशांत पश्चिमी मॉडल उचित है या कट्टर भारतीय प्राचीन मॉडल के बीच कोई रास्ता निकाल सकता है? समाज को सोचने का समय आ गया है.
समस्या कभी ऑनर किलिंग तो कभी आत्महत्या तो कभी प्रेमी के हाथों हत्या या परित्याग से एक संकेत अवश्य मिल रहा है कि सदियों पुरानी सामाजिक व्यवस्था से युवा पीढ़ी का विद्रोह और परिवार या समाज से बहिष्कार जैसी स्थिति के बाद लौटने के रास्ते बंद कर समाज इससे पलायन कर रहा है. भारत में क्षमा और दया पर आधारित सामाजिक व्यवस्था के बीच नीति निर्धारक तत्वों की स्पष्ट अंतरधाराएं बहती रही हैं, जिसमें अब कई मान्यताओं का प्रभाव है, पर इतना तो स्पष्ट है कि इसे संवाद और समन्वय से ही हल किया जा सकता है, न कि छोड़ देने से .
श्रद्धा या आयुषी को कटने या मरने के लिए छोड़ देना एक परिवार का दर्द नहीं है, बल्कि पूरे समाज की समस्या है . अक्सर भारतीय विवाह व्यवस्था में तलाक़ शब्द के न होने और लड़की की विदाई के बाद अर्थी ही लौटने वाली सीमा रेखा की आलोचना होती है, पर क्या पश्चिम की तरह सुबह शादी और शाम को तलाक़ जैसे मॉडल को आदर्श माना जाए, जिसमें अशांति तो जीवनपर्यंत रहती है और उपेक्षित मां या बच्चे को ही दोषी माना जाता है? क्या पाश्चात्य संस्कृति से भारत अशांत हो रहा है या रूढ़िवादी भारतीय परिवार युवाओं की पसंद नापसंद के स्थान पर दहेज के दबाव में बेमेल विवाह से समस्या को और बढ़ा रहा है? क्या भारत की स्वयंवर व्यवस्था जैसे उदाहरण स्वतंत्रता के प्रतीक नहीं?
दरअसल नई पीढ़ी और प्राचीन विचारों वाली पारंपरिक पीढ़ी के बीच संवादहीनता से खाई बढ़ी है. महानगरों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों में महत्वपूर्ण स्थान रखने वाले ग्रामीण पृष्ठभूमि के जीवन साथी नहीं चाहते तो बुरा क्या है? युवाओं में परस्पर आकर्षण स्वाभाविक है, पर अंध आकर्षण और भावावेश में निर्णय ग़लत भी सकते हैं, पर यदि समाज लौटने का दरवाज़ा बंद कर दे या स्वयं अपने बच्चों को सम्मान के नाम पर मार डालने जैसा जघन्य अपराध करे तो उस परिवार में शांति आ जाएगी? समाज को ऐसी जटिल समस्या से भागने के बजाय संवाद से, रास्ते खुले रखकर पुनर्विवाह जैसे उपायों तक की संभावनाओं को टटोलना चाहिए, न कि अपने कलेजे के टुकड़े को उसके हाल पर मरने के लिए छोड़ देना चाहिए, क्योंकि यह दर्द भी जीवन भर सताता है.
Disclaimer: ये लेखक के निजी विचार हैं.