Faisal Anugrag
पुलवामा,जंगलराज और जंगलराज का युवराज. पीएम नरेंद्र मोदी के चुनाव प्रचार अभियान के तीन मुद्दे हैं. बिहार चुनाव में तेजस्वी यादव की सभाओं में उमड़ रही भीड के बीच पीएम नरेंद्र मोदी मतदाताओं को अतीत का प्रेत खड़ा कर एनडीए की संभावनाओं को मजबूत बनाना चाहते हैं. दूसरी ओर तेजस्वी यादव रोजगार और बिहार की बदहाली के पीच पर डटे हुए हैं. नरेंद्र मोदी सहित तमाम एनडीए नेता महागठबंधन के सरकारी नौकरी के मुद्दे को नजरअंदाज कर रहे हैं. दो दौर के मतदान के बाद बिहार का राजनीतिक महौल बेहद अनिश्चय में है. जमीनी सूचनाओं और मीडिया के दावे अलग-अलग हैं. बिहार में जिस तरह युवाओं का आक्रोश दिख रहा है वह अभूतपूर्व है.
बिहार के युवाओं ने 1967 और 1977 में भी बड़े उत्साह के साथ सत्ता बदलाव के फ्रंट पर दिखे थे. लेकिन 2020 की कहानी कुछ और ही महसूस की जा रही है. 2014 में नरेंद्र मोदी की चुनावी सभाओं में जिस तरह का उत्साह दिखता था, उससे भी अलग बिहार का परिदृश्य दिख रहा है. हर दौर के साथ ही युवा ज्यादा मुखर हो रहे हैं.ऐसा लगता है कि युवाओं ने गोलपोस्ट पर धावा बोला है और उनका आक्रोश उन तमाम नाकामियों का सारांश जैसा है, जो पिछले अनेक सालों से वे और उनकी पूर्ववर्ती पीढ़ी झेलती आ रही है. इस स्पष्टता के बावजूद बिहार के भीतर खोमोशी और बेचेनी भी है. 10 नवबंर को ही साफ होगा बिहार क्या जनादेश देता है. लेकिन एक तथ्य तो स्पष्ट है कि बिहार ने चुनाव को एक नया अर्थ दिया है. लोगों की समस्याओं को केंद्र में रख कर दशकों बाद कोई चुनाव हो रहा है. जाति का सवाल पहले के चुनावों के जैसा केंद्रीय भूमिका में नहीं दिख रहा है.
बिहार में तेजस्वी यादव ने 10 लाख सरकारी नौकरियों का सवाल उठाया तो जबाव में भाजपा ने 19 लाख रोजगार की बात की. भाजपा ने फ्री वैक्सिन देने का वायदा भी किया. लेकिन रोजगार के सवाल पर भाजपा के लिए तेजस्वी का नारा कहीं ज्यादा मारक बनता हुआ दिखा है.
इस चुनाव की एक खास बात यह भी है कि एक युवा लोक गायिका नेहा सिंह राठौर ने बिहार में चुनाव के ट्रेंड को सेट करने में बड़ी भूमिका निभाया है. बिहार जैसे राज्य के लिए भी यह एक बड़ा ट्रेंड है. बिहार के लोग भविष्य का सपना देखना चाह रहे हैं. लेकिन नरेंद्र मोदी समेत तमाम एनडीए के प्रचारक लालूराज के दौर के सहारे लोगों की सहानुभूति को अपनी ओर करने में लगे हुए हैं. अंतिम दौर के चुनाव अभियान को धुवीकृत करने के लिए फ्रांस के कार्टून और हत्या के विवाद को खड़ा कर रहे हैं.
10 नवंबर को ही पता चलेगा कि रोजगार और लॉकडाडन के श्रमिक दर्द का सवाल क्या असर दिखायेगा. भाषा के नजरिये से देखा जाये तो बिहार में नेताओं के फिसलने की तमाम हदें भी पार कर ली गयी हैं.
तेजस्वी यादव ने अंतिम दो दौर के पहले बेगुसराय में दिनकर यूनिवर्सिटी और जरूरत होने पर मंत्रियों विधायकों का वेतन काट कर भी नौकरी देने के वायदे मास्टर स्ट्रोक की तरह प्रस्तुत किया है. रामधारी सिंह दिनकर राष्ट्रकवि माने जाते हैं. उनके नाम का उल्लेख चुनाव के बीच में एक राजद नेता और मुख्यमंत्री पद के दावेदार के द्वारा किया जाना बेहद अर्थपूर्ण हैं.
आमतौर पर राजद को उस जाति का विरोधी माना जाता रहा है, जिस जाति से दिनकर जी आते हैं. लेकिन बिहार की राजनीति में राजद ने पहली बार दिनकर के बहाने एक बड़ा संदेश उछाल दिया है. देखना है कि बिहार किस तरह इसपर प्रतिक्रिया देगा.
बिहार में बेरोजगारी का सवाल इस अर्थ में भी महत्वपूर्ण है कि देशभर में सबसे ज्यादा बेरोजगारी बिहार में ही दर्ज हैं. जबकि आबादी की लिहाज से बिहार उत्तरप्रदेश के बाद ही आता है. वैसे तो बिहार में बेरोजगारी की दर राष्ट्रीय औसत से हमेशा ही ज्यादा रही है.
लेकिन लॉकडाउन के बाद तो यह दर 46 प्रतिशत से भी ज्यादा हो गयी है. लॉकडाउन के पहले मार्च में देशभर में बेरोजगारी की दर 8.8 प्रतिशत थी, वहीं बिहार में 15.4 फीसद दर्ज की गयी थी. इस समय देशभर में 23.5 प्रतिशत बेरोजगारी की दर दर्ज की गयी है. लेकिन बिहार में यह 46.2 प्रतिशत है. ऐसे में बेराजगार युवाओं का आक्रोश यदि कोई नयी इबारत लिखे तो अचरज नहीं किया जा सकता है. पुलवामा या जंगलराज या जंगलराज का युवराज के असर को बेरोजगारी और श्रमिक बदहाली में कौन बड़ा चुनावी हथियार साबित होगा बिहार इसका भी गवाह बनेगा.