
बहुआयामी रचनाकार डॉ भारत यायावर की आज जयंती है. डॉ भारत यायावर का जन्म 29 नवंबर 1954 को कदमा हजारीबाग में हुआ था. उनका निधन 22 अक्टूबर 2021 को हुआ था. डॉ भारत यायावर तीन भाइयों के बीच के थे. उनका पूरा जीवन संघर्षमय रहा. शुरू से ही वे आर्थिक कठिनाइयों से जूझते रहे. उन्होंने रांची विश्वविद्यालय से एमए (हिंदी) किया. नामवर सिंह की कृतियों पर शोधकार्य के परिणाम स्वरूप पीएचडी की डिग्री ली. चास कॉलेज में प्राध्यापक बनें. फिर विनोदाभावे विश्वविद्यालय में स्थानांतरण हुआ जहां से 20 सितंबर 2021 को सेवा निवृत हुए.
भारत जी बचपन से ही बहुत परिश्रमी थे. स्कूल जीवन से ही अध्ययन और लेखन में उनकी विशेष रुचि थी जिसे उन्होंने आगे चलकर बहुत समृद्ध किया. वे दरअसल बहुआयामी व्यक्तित्व के स्वामी थे. प्रारंभ में नवतारा और फिर विपक्ष पत्रिका निकाली जो बहुत प्रतिष्ठित रही. पत्रिका निकालने के साथ उनका रचनात्मक लेखन भी तेजी से चलता रहा. वे संपादन, कविता, समीक्षा, आलोचना, जीवनी, संस्मरण आदि के क्षेत्रों में लगातार गंभीरता से कार्य करते रहे. उनकी महावीर प्रसाद दि्वेदी रचनावली हिंदी साहित्य की बड़ी उपलब्धि है.
भारत यायावर ने फनीश्वरनाथ रेणु के जीवन और साहित्य का गहरा अध्ययन किया. वे रेणु-विशेषज्ञ के रूप में प्रसिद्ध थे. रेणु पर उनकी कुल पच्चीस पुस्तकें प्रकाशित हैं, जिनमें मौलिक और संपादित शामिल हैं. “नामवर होने का अर्थ“ और “नामवर सिंह का आलोचना कर्म ” नामक पुस्तकें भी उनकी विशिष्ट देन है. झेलते हुए, मैं हूं, यहां हूं, हाल-बेहाल आदि उनके काव्य संकलन हैं. उनकी कविताओं में सामान्य पात्रों के जीवन, दुख-दर्द, स्वयं के जीवन, दुख-दर्द, स्वयं के अनुभव बड़े सहज-सरल ढंग से प्रस्तुत हुए हैं. “मैं वही हूं”. कविता में भारत यायावर का कवि बड़ी सहजता से कहता है :
मैं वही हूं जो कल था/ मंद गति से चलता हुआ/कुछ सोचता-विचारता हुआ/वही है घर-गृहस्थी का छोटा-मोटा जंजाल
भारत यायावर जमीन के कवि हैं. लोगों के प्रताड़ित जीवन पर कवि की विशेष दृष्टि रहती है. “घर से निकल कर” कविता में कवि बताता है-
यहां आकर मैंने देखा/जितनी ऊंचाई पर/देखता था खुद को/उतनी निचाई पर पांव जमे हैं/और जहां मैं खड़ा हूं/ वहां धुप्प अंधेरा है/ भूख से ऐंठती हैं अंतड़ियां/और लोग देख नहीं पाते…

ऐतिहासिक है एक समर्थ और समर्पित संपादक का असमय जाना
भारत यायावर अचानक हमलोगों के बीच से चले गये तो लगा कि ढेर सारा आधा-अधूरा काम कतार के बाकी साथियों के लिए छोड़ गये. अपनी रचनात्मक ऊर्जा के निवेश के लिए कविता उनकी पहली सहचरी बनी. बाद के दिनों में इस दायरे का क्रमिक विस्तार होता गया.
संपादन और संग्रहण का जो और जितना काम उन्होंने अकेले किया, वह निस्संदेह दूसरों के लिए आसान नहीं था. रेणु समग्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी, नामवर जैसे कई बड़े नाम भारत की कार्यतालिका में सुप्रतिष्ठि होते गये. एक समर्थ और समर्पित संपादक का इस तरह समय से पहले विदा होना एक ऐतिहासिक क्षति से कम हरगिज नहीं है. ध्यान में आती है उनकी पहली पत्रिका ‘नवतारा’ जिसमें अनिता रश्मि समेत कई नये कलमकारों को टेक मिली थी. इसी दौर में रमणिका गुप्ता को सार्थक लेखन से जोड़ने का काम भारत के बूते की बात थी. उन्होंने एक और अनियतकालीन पत्रिका ‘विपक्ष’ भी निकाली जिसके जरिए अपने समकालीन नये-पुरानी अनेक लेखकों सहारा दिया, रेखांकित होने का अवसर दिया.
उनकी एक खास पहचान कवि के रूप में भी बनी. मैं उनकी कविताओं का प्रशंसक रहा हूं. अपनी पहली दुबली काया वाली कविता पुस्तक ‘झेलते हुए’ में ही अपनी संभावनाओं का परिचय दिया. फिर ‘मैं हूं, यहां हूं’ और ‘बेचैनी’जैसे संग्रह आये. उनके अंतिम संग्रह को अच्छी चर्चा मिली. लेकिन इस विधा में उन्होंने खुद को केंद्रित नहीं किया.
शायद वह वर्ष 1988 था जब जनवादी लेखक संघ के राज्य सम्मेलन में मैंने राजेन्द्र यादव की कहानियों पर भारत यायावर की प्रखर टिप्पणी सुनी तो मैं हैरत में पड़ गया कि एक कवि इतना अच्छा पाठक और विश्लेषक कैसे हो सकता है! बहरहाल, भारत जी बड़ी संभावनाओं के साथ उभरते हुए साथियों में एक थे. मौतें होती हैं और होती रहेंगी, लेकिन जब भारत जैसे समर्थ शब्दकार की असमय विदाई होती है, तो लगता है कि ढेर सारा काम हम साथियों के लिए अधूरा छूट गया है.