Ranchi: झारखंड में अपनी खोई जमीन दोबारा हासिल करने के लिए जेडीयू फिर से एक्टिव हो गया है. लेकिन इस बार भी पार्टी ने निष्क्रिय नेता पर दांव खेला है. राज्य की राजनीति में हाशिये पर जा चुके खीरू महतो को जेडीयू ने फिर से एक्टिवेट किया है. उन्हें प्रदेश अध्यक्ष का पद देकर फिर से झारखंड में संगठन को रिचार्ज करने की कोशिश की है. लेकिन खीरू की राहें आसान नहीं हैं. क्योंकि झारखंड में जेडीयू के पास न नेता, न मुद्दा और न कार्यकर्ता ही बचे हुए हैं. जनाधार भी खत्म हो चुका है. 2019 के विधानसभा चुनाव में राज्य में 47 सीटों पर चुनाव लड़े जेडीयू को एक फीसदी वोट भी नहीं मिल पाया था. चुनाव में मिला यह जनादेश जेडीयू के लिए साफ संदेश था कि झारखंड में पार्टी रिजेक्ट हो चुकी है.
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राज्य में हमेशा बीजेपी की पिछल्लगू बनी रही जेडीयू
एकीकृत बिहार में झारखंड के हिस्से वाले विधानसभा क्षेत्रों में जेडीयू का बड़ा दबदबा था. नीतीश हमेशा सत्ता के केंद्र में रहे. झारखंड अलग राज्य बनने के बाद यहां इंदर सिंह नामधारी, लालचंद महतो और रमेश सिंह मुंडा जैसे नेता जेडीयू का चेहरा बने. लेकिन ये चेहरे पार्टी को आगे नहीं ले पाये. बीजेपी के साथ गठबंधन के नाते इन नेताओं ने सरकार में जगह पाई. नामधारी स्पीकर रहे, रमेश सिंह मुंडा और लालचंद को मंत्री पद मिला. पार्टी इतने में ही खुश थी. इतने अच्छे मौके का लाभ लेकर राज्य में संगठन को कैसे मजबूत किया जाए, यह रणनीति तैयार नहीं की गई. नीतीश कुमार का पूरा ध्यान बिहार में सिमटा रहा और झारखंड में संगठन दिनों दिन हाशिये पर जारी रही.
आदिवासी चेहरों की अनदेखी जेडीयू को पड़ी भारी
झारखंड में जेडीयू का अस्तित्व खत्म होने के पीछे बड़ी वजह ये रही कि पार्टी ने झारखंडी भावनाओं की अनदेखी की. नये राज्य में वोटर्स आदिवासी चेहरा ढूंढ रहे थे. जेडीयू के पास रमेश सिंह मुंडा ही एकमात्र बड़ा आदिवासी चेहरा थे. उनकी हत्या के बाद तो आदिवासी चेहरा पार्टी में कोई था ही नहीं. उधर बाबूलाल मरांडी, शिबू सोरेन और अर्जुन मुंडा जैसे नाम आदिवासियों के बीच बड़ी पहचान बन गई. यह बात जबतक जेडीयू को समझ में आती ,तबतक काफी देर हो चुकी थी.
जब आदिवासी कार्ड खेला तबतक हो चुकी थी देर
पार्टी ने देखा कि जलेश्वर महतो और राजा पीटर जैसे प्रदेश अध्यक्षों से राज्य में संगठन किनारे लगता जा रहा है. तब पार्टी ने सालखन मुर्मू को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर आदिवासी कार्ड खेला. लेकिन सालखन भी संगठन और राज्य की जनता की उम्मीदों पर खरा नहीं उतर सके. बीजेपी से अलग होकर झारखंड में 2019 के विधानसभा चुनाव में जेडीयू ने 48 सीटों पर उम्मीदवार उतार दिया और इस चुनाव ने जेडीयू का भ्रम तोड़ दिया. एक भी सीट पार्टी नहीं निकाल पाई. जेडीयू को महज 73 प्रतिशत वोट मिले. पूरे झारखंड में जेडीयू महज 1 लाख 10 हजार 120 वोट पर सिमट गई. सालखन मंझगांव से चुनाव लड़े थे. चुनाव के नतीजे आये तो वे 12वें नंबर पर थे. मात्र 1889 सीट मिली थी. झगांव सीट से जेडीयू के प्रदेश अध्यक्ष सालखन मुर्मु खुद भी चुनाव हार गए, उनकी हालत इतनी बुरी रही कि वे 12वें नंबर पर चले गए. इस सीट पर उन्हें मात्र 1889 वोट मिले. राज्य सरकार में मंत्री रही सुधा चौधरी भी छतरपुर से बुरी तरह हार गईं.
2005 में 6 सीटें जीतने वाली जेडीयू 2019 में 1 फीसदी वोट नहीं ला सका
कभी राज्य सरकार में मंत्री पद लेने और बीजेपी पर दबाव बनाने वाला जेडीयू राज्य में बैशाखियों पर आ चुका है. 2005 में राज्य में हुए पहले विधानसभा चुनाव में जेडीयू ने 18 सीटों पर चुनाव लड़ा और लगभग 33 फीसदी का स्ट्राइक देते हुए 6 सीटें जीती थीं. इसके बाद 2009 में जेडीयू को जनता की नाराजगी का सामना करना पड़ा और उसके दो कैंडिडेट ही चुनाव में जीत पाए. इसके बाद 2014 में जेडीयू ने बीजेपी का साथ छोड़ अपने दम पर चुनाव लड़ा. लेकिन पार्टी का यहां खाता भी नहीं खुला. इसके बाद व्यापक रणनीति बनाकर जेडीयू ने 2019 में 47 उम्मीदवार उतार दिये. एक भी कैंडिडेट चुनाव नहीं जीत पाया. अधिकांश की तो जमानत ही जब्त हो गई.
चुनौतियों से लड़कर खुद को चमका पायेंगे खीरू ?
आदिवासी चेहरा से कोई फायदा नहीं होता देख जेडीयू ने एक बार फिर से गैर आदिवासी चेहरे पर दांव लगाया है. लेकिन जिस नेता को संगठन सौंपा गया है, उसने कभी प्रदेश स्तर की राजनीति नहीं की है. 2005 के बाद अपने विधानसभा में भी इनकी पकड़ रही. यही वजह है कि 2019 के चुनाव में पार्टी ने मांडू से खीरू का टिकट काट कर दुष्यंत भाई पटेल को दे दिया था. अब एक बार फिर खीरू महतो वनवास खत्म कर राजनीति की मुख्य धारा में लौटे हैं. प्रदेश स्तर की राजनीति में खुद को चमकाने और संगठन के मजबूत बनाने का उनके सामने सुनहरा मौका है, चुनौतियां भी हैं. देखना दिलचस्प होगा इन चुनौतियों का सामना खीरू कैसे करेंगे.
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