Ranchi: आज चमचई का जमाना है. पद से हटने के बाद कोई नहीं पूछता. पद में बने रहने के लिए प्रतिष्ठा को दांव पर लगानी पड़ेगी. जो हमसे आज तक नहीं हुआ है और न होगा. आखिर कितना तेल लगाईयेगा. अब कईगो लंठ लोग इकट्ठा हो गया है. इसलिए हम तो पार्टी दफ्तर ही जाना छोड़ दिये. 2-3 साल से बीजेपी से बिल्कुल दूर हैं. यह दुख है वनांचल बीजेपी के अंतिम और झारखंड बीजेपी के पहले प्रदेश अध्यक्ष दुखा भगत का.
1980 में बीजेपी से जुड़े प्रो. दुखा भगत कहते हैं. अलग झारखंड बनने के बाद बीजेपी में कौन नेता था जी. जरा बताइये. दो ही लोग तो थे. मैं और बाबूलाल मरांडी ही तो थे जिन्हें संगठन की पड़ी थी. संगठन को खड़ा करने में हम दोनों का जितना कंट्रीब्यूशन था शायद ही किसी और नेता का रहा होगा. कड़िया मुंडा, रामटहल चौधरी, आभा महतो जैसे भी कई लोग थे जो संगठन से प्रेम करते थे. हम तो राजनीति से दूर हो गए भइया. पता नहीं अब ये लोग भी कहां हैं.
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आजकल संगठन में पैसे का बोलबाला
दुखा भगत कहते हैं आजकल संगठन में पैसा का बोलबाला हो गया है. जिसके पास पैसा उसी के पास पद है. आज कार्यकर्ता का सम्मान कहां है. नेता तो हमारे समय थे. कैलाशपति मिश्र और गोविंदाचार्य जैसे नेता भी थे. जिनके लिए संगठन ही सबकुछ था. मुझे और बाबूलाल मरांडी को खड़ा करने में इन दोनों का अहम रोल रहा है. एक जमाना था जब बिना बीजेपी दफ्तर गये खाना नहीं पचता था, लेकिन अब जाने का मन नहीं करता. वहां मर्यादा ही नहीं बची. तो जाकर क्या करेंगे.
पहले पोस्टरों से, फिर दायित्वों से हटे
1999 में बीजेपी की टिकट पर लोहरदगा लोकसभा सीट से चुनाव जीतकर दुखा भगत सांसद बने थे. लेकिन फिर 2004 में वो रामेश्वर उरांव से चुनाव हार गये. संगठन में भी प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर कार्यकाल खत्म हो गया. इसके बाद धीरे-धीरे संगठन में भी हाशिये पर चले गये. पहले राजनीतिक पोस्टरों से हटाये गये और फिर पार्टी के महत्वपूर्ण दायित्वों से. अपने राजनीतिक करियर को बचाने के लिए खूब हाथ पैर मारे.
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रांची से दिल्ली तक की दौड़ लगाई, लेकिन चुनाव में हार के बाद वो संगठन में अपना वजूद बचा पाने में नाकामयाब रहे. कहते हैं कभी किसी की जी हुजूरी करने की आदत नहीं थी. इसी स्वभाव के कारण राजनीतिक करियर खत्म हो गया.
राजनीतिक करियर बचाने के लिए इतना संघर्ष
राजनीति के बदले ट्रेंड ने सिर्फ दुखा भगत ही नहीं बीजेपी के कई समर्पित नेताओं को संगठन से दूर कर दिया है. जो मजबूत नेता और कार्यकर्ता पार्टी को उंचाइयों तक ले जाने में सक्षम थे वे दरकिनार कर दिये गये. कइयों ने पार्टी ही छोड़ दी. इंदर सिंह नामधारी, रामटहल चौधरी, बाबूलाल मरांडी, सरयू राय समेत दर्जनों नेता हैं जिन्होंने संगठन का प्रतिनिधित्व अपने-अपने क्षेत्र में मजबूती से किया.
डोमिसाइल प्रकरण के बाद बाबूलाल मरांडी के पर कतरे गये. झारखंड बीजेपी में लॉबिंग होने लगी. केंद्रीय नेतृत्व के पास शिकायतों का पुलिंदा पहुंचने लगा. तब आखिरकार बाबूलाल ने बीजेपी छोड़ने का फैसला कर लिया. खुद की नई पार्टी बना ली. हालांकि एक बार फिर वो बीजेपी में लौट आये हैं, लेकिन अब यहां बाबूलाल पहले जैसी मजबूत स्थिति में नहीं हैं. 1 साल से भी ज्यादा समय हो गया उन्हें नेता प्रतिपक्ष की मान्यता नहीं मिल पाई है.बीजेपी विधायक दल के नेता तो चुन लिये गये हैं, लेकिन अभी भी पार्टी के अंदर कई लोग उन्हें थोपा हुआ नेता मान रहे हैं.
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चुनाव हारने पर संगठन त्याग भी मांगता है!
दुखा भगत के बाद अभयकांत प्रसाद, यदुनाथ पांडेय, पीएन सिंह, रघुवर दास, रविंद्र राय, ताला मरांडी और लक्ष्मण गिलुआ भी बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष रहे. अध्यक्ष पद से हटने के बाद खुद को संगठन में बनाये रखने के लिए इन्हें काफी संघर्ष करना पड़ा. यदुनाथ पांडेय बीजेपी से जुड़े हुए हैं. बीजेपी के टिकट पर 1989 में सांसद भी बने. बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष रहते हुए संगठन को मजबूत किया, लेकिन अभी दरकिनार हैं.
पीएन सिंह ने प्रदेश अध्यक्ष रहते हुए संगठन का अच्छे से संचालन किया. उन्होंने बेहतर तरीके से पार्टी के साथ समन्वय स्थापित किया. पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं के बीच अच्छी पकड़ बनाई. 2005 में बीजेपी से विधानसभा चुनाव जीतने के बाद 2009 से लगातार धनबाद संसदीय सीट से 3 बार अपनी अपनी जीत दर्ज कराई. रघुवर दास ने बीजेपी में रहकर अच्छी राजनीतिक पारी खेली, लेकिन पिछला विधानसभा चुनाव हारने के बाद वे हाशिये पर चले गये हैं. रघुवर खुद को एक्टिव तो दिखा रहे हैं, लेकिन सीएम रहते जिस तरह संगठन पर उनका दबदबा था उससे कई लोग आहत थे. ऐसे लोगों के सामने संगठन में रघुवर खुद को असहज महसूस कर रहे हैं.
सरयू राय भी बीजेपी के समर्पित कार्यकर्ताओं में से एक थे, लेकिन रघुवर दास के कारण उन्होंने संगठन को अलविदा कह दिया और पिछले चुनाव में रघुवर को शिकस्त देकर बता दिया कि गलतफहमी न जियें. जनता ही जनार्दन है. पूर्व सांसद रामटहल चौधरी और पूर्व स्पीकर इंदर सिंह नामधारी समेत कई नेताओं ने पार्टी से मतभेद के बाद अपनी राह बदल ली.
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