Faisal Anurag
जिस सोशल इंजीनिरिंग की फसल को भारतीय जनता पार्टी राजनैतिक पूंजी मानती है वह उसके हाथों से रेत की तरह फिसलती—सी जा रही है. पिछड़े नेताओं के दलबदल का तो यही संकेत है.भारतीय जनता पार्टी के रणनीतिकार इससे हतप्रभ दिखने लगे हैं उनकी कोशिशों के बावजूद पार्टी छोड़ने वालों का सिलसिला थम नहीं रहा. 2014, 2017 और 2019 में भाजपा में शामिल होने वालों का सिलसिला थम ही नहीं रहा था. इस बार तमाम कोशिशों के बावजूद भाजपा के अनेक सिटिंग विधायकों का असंतोष आलाकमान की पकड़ पर भारी दिखने लगा है. भाजपा जहां अपने 100 वर्तमान विधायकों का टिकट काटने का मन बना चुकी थी अब माना जा रहा है कि शायद ऐसा नहीं हो. भाजपा की समस्या यह है कि मतदाताओं को हिंदू बनाम मुसलमान के वोट में बांटने की उसकी कोशिशें परवान नहीं चढ़ पायी है वहीं राज्य के बोरोजगार युवा और आमजनों की नाराजगी भी मुफ्त राशन के बावजूद बरकरार है.
यूपी के चुनाव मैदान में तो कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी भी है लेकिन राजनैतिक माहौल भाजपा बनाम सपा में बदलता नजर आ रहा है. समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने तमाम जाति समूहों के राजनेताओं की पार्टियों के साथ तालमेल बैठा कर भाजपा के सोशल इंजीनियरिंग के ब्यूह को एक तरह से कमजोर कर दिया है. 2014 और 2017 और 2019 में जिन सामाजिक तानेबाने के साथ धार्मिक राष्ट्रवाद का मुलम्मा बना कर भाजपा ने चुनाव में कामयाबी हासिल किया था इस बार वही गणित उसके साथ नहीं दिखने लगा है. पहले तो ओम प्रकाश राजभर को जो लोग कमजोर मान रहे थे वही लोग कहने लगे हैं कि स्वामी प्रसाद मौर्य के विद्रेाह के बाद यह संदेश पुख्ता हुआ है कि पिछड़े दलित और समाज के वंचना के शिकार अन्य ताकतों ने बदलाव का मन बना लिया है. हालांकि यह भविष्यवाणी महंगी साबित होने के रिस्क पर भी प्रेक्षकों की माने तो 2014 के बाद पहली बार यूपी की राजनीति में सांप्रदायिक राष्ट्रवाद को मुद्दा बनाने में कामयाबी नहीं मिली है.
हालांकि योगी आदित्यनाथ के भषाणों को गौर से देखे तो उनकी अब भी कोशिश यही है कि चुनाव को भाजपा अपने आजमाए गए मुद्दे पर ही लड़े. आदित्यनाथ ने चुनाव का एलान होते ही कह दिया कि यह चुनाव 80 बनाम 20 के बीच है.साफ है कि जो काम धर्म संसद के नाम पर किए जाने की कोशिश की गयी, योगी ने उसे अपने अंदाज में स्पष्ट कर दिया. लेकिन अब दिखने लगा है कि यह दावं कारगर शायद ना हो क्योंकि जिन लोगों ने भाजपा से विद्रोह किया है वे जाति के 80 प्रतिशत के प्रतिनिधि हाने की बात कर रहे हैं. यानी यूपी में यदि 80 बनाम 20 को सामाजिक न्याय की गोलबंदी बन सकती है और यही भाजपा की चिंता का बड़ा विषय है.
वैसे तो चुनावों के पहले दल बदल होते हैं, लेकिन 2014 में देखा गया था भाजपा ने दलबदल को चुनावी माहौल में अपनी ताकत बना कर पेश किया था. तो क्या यही परिदृश्य 2022 में दुहराया जा रहा है लेकिन भाजपा के विपक्ष में. यूपी और बिहार उन राज्यों में हैं जहां जाति नेताओं को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. यूपी की जाति राजनीति के अनेक समाजिक आर्थिक संदर्भ हैं और वे जब कभी प्रभावी होते हैं उसमें धार्मिक पहचान का सवाल चुनावी तौर पर गौण हो जाता है. यूपी में जिस तरह तमाम पिछड़ी,अतिपिछड़ी और दलित जातियों में पहचान की भूख के साथ सत्ता हिस्सेदारी की चाह पैदा हुयी है उसे कौन का राजनैतिक दल बेहतर तरीके से इस्तेमाल करता है चुनावी नतीजे इसी पर निर्भर होते हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी विभिन्न जातियों के नायकों के बहाने जातियों को साधने का उपक्रम किया है.
यूपी की राजनीति में पिछले आठ सालों से भिन्न तातियों के नायकों के बहाने जातियों के राजनैतिक गोलबंदी के भी प्रयास हुए. लेकिन पिछड़ी जाति के प्रभावी नेताओं के अचानक हुए विद्रोहों ने नायकों के बहाने जातियों को साधने की रणनीति को लेकर कुछ सवाल खड़े कर दिए हैं. हालांकि भाजपा के सूत्र आश्वस्त है कि कुछ नेताओं के दलबदल से उसके सोशल इंजीनियरिंग की मजबूत दीवार हिली तो हैं लेकिन उसमें कोई सूराख नहीं पैदा हुयी है. लेकिन स्वतंत्र प्रेक्षकों की माने तो इस बार का दृश्य कुछ अलग कहानी सुना रहा है.