Faisal Anurag
उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनावों की दस्तक के साथ ही एक ओर जहां सांप्रदायिक विभाजन के मुद्दे उठने लगे हैं, वहीं दूसरी ओर फिर मोहन भागवत आखिर किन्हें यह संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं कि जो लोग मुसलमानों से देश छोड़ने को कहते हैं, वे खुद को हिन्दू नहीं कह सकते. इसके साथ ही भागवत यह भी जोड़ देते हैं कि विकास के लिए देश ऐसी बातें नहीं की जानी चाहिए. पिछले सात सालों से जिस तरह एक खास तरह का प्रचार अभियान चलाया गया है कि जो भारत के अल्पसंख्यकों को लेकर सवाल करता रहा है और उनके खिलाफ माहौल बनाता रहा है. भागवत यह भी कहते हैं कि हिंदू मॉब लिंचिंग नहीं कर सकते. इसके साथ ही यह भी जोड़ देते हैं कि मॉब लिंचिंग की हुई घटनाओं के संदर्भ में झूठे प्रचार भी हुए हैं. हिंदुओ और मुसलमानों के डीएनए एक होने की बात भी भागवत ने किया है. भागवत को यह भी बताना चाहिए कि गिरिराज सिंह हिंदू हैं या नहीं जिन्होंने सबसे पहले पाकिस्तान भेजने का फरमान देना शुरू किया था. बाद में कई विधायकों ओर सांसदो ने भी गिरिराज सिंह के स्वर में स्वर मिलाया. गिरिराज सिंह मोदी सरकार में पिछले सात सालों से मंत्री हैं.
वैसे तो भागवत के इन बयानों में कुछ भी नया नहीं है. आरएसएस प्रमुख ऐसी बातें कहते रहे हैं. इसके बावजूद पिछले सात-आठ सालो में जिस तरह के सांप्रदायिक सवाल उठे हैं और जिस तरह मुसलमानों के खिलाफ सुनियोजित अभियान चले हैं, आखिर उसके पीछे कौन सी ताकते हैं, इसकी पहचान स्पष्ट रूप से भागवत क्यों नहीं कर पा रहे हैं. यूपी में कोविड के कारण राज्य ओर केंद्र सरकार के खिलाफ गुस्से का माहौल दिखने लगा था. किसानों के आंदोलन के कारण भी यूपी की राजनीति में भाजपा के आशंकित हाने की बातें की जाने लगीं.
जिस तरह भाजपा नेतृत्व ने योगी आदित्यनाथ को लेकर राजनैतिक सरगर्मियां दिखायीं, उससे नेतृत्व परिवर्तन की खबंरे मीडिया में आने लगीं. लेकिन तभी जनसंख्या नियंत्रण, धर्म परिवर्तन जैसे मुद्दे उछलने लगे. बाकी कसर तो जिला पंचायत के चुनाव में पूरी हो गयी, जहां एक-एक करोड़ और एक एक स्कॉर्पियो पर वोट बिक गए. भाजपा ने 84 में 67 सीटें जीत लीं. 2016 में भी ऐसा ही नजारा दिखा था, लेकिन तब समाजवादी पार्टी सत्ता में थी और उसने भी 62 सीटें जीत ली थीं, लेकिन कुछ ही महीनों बाद हुए विधानसभा चुनाव में उसे मात्र 47 सीटों से संतोष करना पड़ा. बंगाल में भागवत और आरएसएस देख चुके हैं कि तमाम कोशिशें के बावजूद वे मुसलमान विरोधी माहौल नहीं बना पाए. यूपी बंगाल नहीं है और भाजपा के लिए यूपी का महत्व 2024 के चुनावों के नजरिये से अहम है. इसलिए एक ओर जहां ओवैसी बनाम योगी के बीच तीखी बयानबाजी शुरू हो गयी है, वहीं भागवत की कोशिश यह है कि वे कोविड से उभरे महौल के बीच एक ऐसी छवि का संदेश दें, जिससे विश्व में उठ रहे सवालों को अनदेखा किया जा सके. अमेरिका की संसद की एक समिति ने भारत में धार्मिक भेदभाव के सवाल को लेकर तीखी राय व्यक्त की थी.
भागवत ने यह नहीं बताया है कि आखिर मुूसमलानों के खिलाफ अभियान फिर कौन चला रहा है? सोशल मीडिया पर इतने सारे ग्रुप ओर मैसेज के पीछे आखिर फिर कौन सा समूह सक्रिय है? वे लोग कौन हैं और उनका किसके साथ सांगठनिक रिश्ता है? क्या भागवत उन्हें हिंदू मानने से इंकार करने को तैयार हैं? लेकिन यह तो संभव नहीं दिख रहा है, क्योंकि वही आधार तत्व है, जिसके सहारे भाजपा सत्ता में पहुंची है. इन तथ्यों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, क्योंकि चुनावों के समय इन्हीं सोशल मीडिया समूहों की ओर से भाजपा के लिए प्रचार अभियान किया जाता रहा है. बेहतर होता यदि भागवत ऐसे तत्वों के बारे में भी साफ-साफ बातें करते और उनके आकाओं को भी उजागर करते. भागवत की बातें निर्गुण हैं और उससे कुछ खास हासिल होने या एक नयी शुरुआत की उम्मीद भी नहीं बंधती है. भागवत की बातों पर प्रतिक्रिया भी हुई है और ओवैसी ने तीखा प्रतिरोध जताया है. उन्होंने कहा है कि हिंसा और नफरत गोडसे की विचारधारा का हिस्सा है. यह किसी से छुपा नहीं है कि इस विचारधारा के साथ कौन खड़ा है. औवैसी ने भागवत से सवाल किया है- ‘मोहन भागवत जी यह विचार क्या आप अपने शिष्यों, प्रचारकों, विश्व हिंदू परिषद-बजरंग दल के कार्यकर्ताओं को भी देंगे? क्या यह शिक्षा आप मोदी जी, शाह जी और भाजपा मुख्यमंत्री को भी देंगे?’ इस सवाल को पूछकर ओवैसी ने यूपी की राजनीति को एक तरह से वांछित और अपेक्षित संदर्भ भी दे दिया है.
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