Dr. Pramod Pathak
हवा महल कभी आपने देखा है? मैंने भी नहीं देखा. मगर इसका मतलब यह नहीं कि हवामहल नहीं होता. हवाई किले बनाने में तो वैसे भी हम लोग बहुत आगे हैं. तो कल्पना शक्ति से इतना तो अंदाजा लगाया ही जा सकता है कि हवामहल कैसा होगा. वह महल जो हवा में खड़ा हो. यानी बिना बुनियाद के. आजकल हम ऐसे ही दौर से गुजर रहे हैं जिसमें हर जगह हवा महल खड़ा करने की पुरजोर कोशिश हो रही है. कागज पर तो यह हो भी जा रहा है. हकीकत का पता नहीं. वैसे सारी कवायद तो कागज ही खत्म करने की है. सब कुछ पेपरलेस. मगर जब सब कुछ पेपरलेस हो जाएगा, तब हवामहल कैसे बनेगा यह देखना होगा. शायद केवल कंप्यूटर स्क्रीन पर. खैर, हकीकत तो धीरे-धीरे समझ में आ ही जाएगी. जो भी हो फिलहाल भारत को जोर शोर से डिजिटल बनाने की कोशिश हो रही है.
बड़े-बड़े लोग टीवी पर बड़े-बड़े कमर्शियल के जरिए डिजिटल अपनाने की दुहाई दे रहे हैं. डिजिटल के कई अर्थ हो सकते हैं. यानी एक ऑनलाइन चलने वाली व्यवस्था, जिसे हम वर्चुअल व्यवस्था या आभासी व्यवस्था भी कह सकते हैं. स्मार्ट सिटी की परिकल्पना भी इसी आधार पर है. वैसे वर्चुअल का डिक्शनरी में शब्दार्थ है, वह जो दिखाई नहीं दे. जैसे मिस्टर इंडिया में अनिल कपूर. इस लिहाज से वर्चुअल रियलिटी, जो आज कल का बड़ा ही प्रचलित मुहावरा है, एक प्रकार से तो विरोधाभासी हुआ. मगर यह सब दर्शन का विषय है. प्रबंधन तो अलग विधा है. हालांकि दर्शन और प्रबंधन में काफी समानता है. दोनों ही विषयों में बड़े-बड़े शब्दों से छोटी-छोटी बातें समझाई जाती हैं. वह भी इस तरह कि आम आदमी को समझ में न आए.
तो साहब डिजिटीकरण की प्रक्रिया तेज रफ्तार से चल रही है. लगता है आने वाले कुछ दिनों में रोटी भी डाउनलोड कर खानी पड़ेगी. और यदि नहीं खा सकते तो भूखे रहिए. और इसे मजाक समझने की भूल न करें. सब कुछ ऐप आधारित है. बहुत से लोग तो ऐसा समझ भी रहे हैं कि ऐप से सब कुछ हो सकता है. कुछ लोग तो इसे लेकर वाकई सीरियस हैं. इन लोगों में कई सरकारें भी शामिल है. स्वच्छता सर्वे, ईज ऑफ लिविंग सर्वे और न जाने क्या-क्या. लगता है कचरा भी ऐप से उठ जाएगा. लोगों को पूरा विश्वास है कि यह संभव है. बस 5 जी के बाद एक दो जी और आने की देरी है. डिजिटल इंडिया या वर्चुअल इंडिया कई जगह तो अस्तित्व में भी आ गई है.अभी एक-दो दिन पहले की ही बात है. रायपुर के एक होटल में मुझे रुकना पड़ा. बड़ा सा पांच सितारा होटल. शाम को कमरे में पहुंचने के बाद जब मुझे कुछ खाने की इच्छा हुई तो मैंने रूम डायनिंग मेनू ढूंढने की कोशिश की. आमतौर पर बड़े होटलों के कमरों में रूम में खाना मंगवाने के लिए रूम डायनिंग मेनू उपलब्ध रहता है. मगर मुझे ऐसा कुछ अपने कमरे में दिखा नहीं. मैंने रूम सर्विस को फोन किया कि भाई रूम डाइनिंग का मेनू भेज दो.
उधर से जवाब मिला कि मेनू की हार्ड कॉपी उपलब्ध नहीं है. कमरे में टीवी के पास वाले टेबल पर एक कागज रखा हुआ है, जिसपर एक क्यूआर कोड बना हुआ है. मुझे अपने स्मार्ट फोन द्वारा उस क्यूआर कोड को स्कैन करके मेनू डाउनलोड कर लेना है. खाने के लिए क्या-क्या उपलब्ध है यह पता चल जाएगा. मेरी समझ में नहीं आया कि इसे उसकी धृष्टता मानूं या मूर्खता.पर मेरा गुस्सा होना स्वाभाविक था. मैंने उससे तीखे अंदाज में कहा कि क्या यह कोई संवैधानिक बाध्यता है कि हर नागरिक के पास एक मोबाइल फोन वह भी स्मार्ट वाला होना आवश्यक है. और क्या यह भी कोई बाध्यता है कि उसे मोबाइल के द्वारा यह सब क्रिया प्रक्रिया आनी चाहिए. और यदि ऐसा नहीं है तो आप नागरिक अधिकार से वंचित हैं. शायद उसे थोड़ी अक्ल आई और उसने कहा कि वह एक वेटर को कमरे में भेज रहा है जो मुझे उनके किचन में खाने के लिए क्या क्या उपलब्ध है, यह बता देगा. खैर वेटर आया और अपने मोबाइल पर मुझे मेनू दिखाया. यह उस देश का आलम है जिस देश में स्वयं सरकार को स्वीकार करना पड़ रहा है कि 80 करोड़ लोगों की गरीबी को ध्यान में रखते हुए मुफ्त राशन देने की आवश्यकता है.
जहां व्यावहारिक साक्षरता दर अब भी करीब सत्तर फीसदी होगी. और व्यवहारिक साक्षरता कितनी कारगर है, यह भी सर्वविदित है. एक और भी सच्चाई है कि यहां एक अच्छी खासी आबादी मोबाइल साक्षरता के नाम पर कॉल उठाना व बात करना भर जानती है. जमीनी सच्चाई यह है कि डिजिटल भारत की तुलना में इस शेष भारत की आबादी कई गुना ज्यादा है. नमूना सर्वेक्षण के लिए संक्रांति के दो दिन पहले से ही इस ठंड में भी मंदिरों के बाहर भीख मांगने वालों की संख्या गिनना काफी होगा. क्या भिखारियों को भी क्यूआर कोड के जरिए भीख दिया जाएगा. रातों रात डिजिटल इंडिया बनाने की जल्दी के पीछे क्या कारण है यह समझना जरूरी है. दरअसल समस्या कहीं और है.जब राजा को समझाने वाले सही बात नहीं बताते तो इसी तरह की सोच पनपती है.
डिजिटल इंडिया की सोच भी ऐसे ही कुछ कारणों से है. डिजिटिलाइजेशन होना चाहिए, इससे किसी को एतराज नहीं है. लेकिन किस रफ्तार से और कितना यह सोचना होगा. उसके लिए पहले जमीन तैयार करनी होगी. विकास का अर्थ समझना होगा. टेक्नोलॉजी अपनाने की आपाधापी में टेक्नोलॉजी का उद्देश्य ही लुप्त हो रहा है. डिजिटल बनाने के शोर के पीछे कहीं कुछ और मामला तो नहीं है. थोड़ा सोचने वाली बात है. डिजिटल चलन तो हो सकता है लेकिन बाध्यता क्यों?
डिस्क्लेमर : ये लेखक के निजी विचार हैं.