Faisal Anurag
आर्थिक तौर पर पिछड़े अफ्रीकी देशों का ओलंपिक मेडल रिकॉर्ड आर्थिक तौर पर उभरते देशों की तुलना में बेहतर क्यों है. इस सवाल को नजर अंदाज करने का मतलब है हकीकत से मुंह फेर लेना. वास्तविकता को नकारने वाले कभी कामयाबी का परचम बुलंद नहीं कर सकते हैं. टोक्यो ओलंपिक भी अपवाद नहीं हे. अनेक उस जैसे देशों ने गोल्ड हासिल किया है जो दुनिया के नक्शे पर होने के बावजूद लोगों की जानकारी में नहीं हैं.
सेन मरिनो इन देशों में से एक है. यह दक्षिण यूरोप का बेहद कम मशहूर देश है. इसके एक शूटर ने गोल्ड जीत कर देश को चर्चित किया है. है तो यह ब्रिटिश टेरीटरी लेकिन इसे स्वशासन का अधिकार प्राप्त है. ट्रिथोलेन में इसकी एक महिला एथलिट ने अपने देश को गोल्ड सम्मान दिलाया है. लेकिन अनेक ऐसे देश हैं जो दुनिया में मायने तो रखते हैं लेकिन उनका ओलंपिक में गोल्ड जीतने का रिकॉर्ड दयनीय है.
इथोपिया, कीनिया, जमेका जैसे देशों के एथलिटों ने ट्रैक एंड फील्ड में बादशाहत कायम कर लिया है. आखिर यह चमत्कार कैसे हुआ है इसपर अनेक समाजशास्त्रियों ने गहन विश्लेषण और अध्ययन किया है. ये तीनो देश आमतौर पर गरीबी और आर्थिक पिछड़ेपन के मापदंडों पर इन देशों की रैकिंग चिंताजनक है. बावजूद अफ्रीका और अरब मूल की खेल प्रतिभाओं ने न केवल अमेरिका, फ्रांस और ब्रिटेन को शीर्ष बना दिया है. फ्रांस की फुटबॉल टीम की सामाजिक और नस्ल विविधिता को इस संदर्भ में देखा जा सकता है.
भारत का ओलंपिक रिकॉर्ड बताता है कि दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी के गतिरूद्ध सामाजिक मोबिलिटी और गरीबी उन्मूलन से इसका गहरा संबंध हैं. यही नहीं भारत में जाति के संदर्भ को भी इससे जोड़ कर देखने की जरूरत है जिसे हर बार नजरअंदाज कर दिया जाता है. सवाल तो यह भी है कि इथेपिया, जमैका, नाइजीरिया सहित सेंट्रल एशिया के अनेक देशों से भारत की प्रगति की तुलना नहीं की जा सकती है, लेकिन ओलंपिक के प्रदर्शन बताते हैं कि भारत जैसे कुछ देश बेहद गंभीर सामाजिक सवालों को नजरअंदाज करने के कारण ही दुनिया के शीर्षस्थ खेलमंच के पोडियम तक कभी-कभी ही अपने राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रगान को लहराते और धुन बजते सुनते हैं. भारत में इसकी भी गहन छानबीन की जानी चाहिए कि पिछले कई ओलंपिक से भारत की लड़कियां ही क्यों मुकाबले को रोमांचक बना पाती हैं और पोडियम तक पहुंच पायीं हैं.
टोक्यों में ओलंपिक आठवें दिन में हैं. भारत के पास अभी भी केवल एक सिल्वर मेडल है जिसे मणिुपर की एक लड़की मीरा चानू ने हासिल किया है. पीवी सिंधु, लवनीना सेमीफाइनल और डिस्कस थ्रो में कंवलप्रीत फाइनल में पहुंच कर उम्मीदों को रौशन किया है. सिुधु तो लगातार दूसरे ओलंपिक में एक मेडल के करीब हैं. लेकिन कंवलप्रीत कौर की कामयाबी कहीं ज्यादा बड़ी है. डिस्कस थ्रो में भारत की वह पहली महिला हैं जो फाइनल का सफर तय किया है. ये एथलिट जिन सामाजिक आर्थिक विषमताओं से निकलते हैं उसे भी जानने और समझाने की जरूरत है. लवनीना बारोगहेन के पिता का मार्मिक उद्गार है ” मैं 2500 रुपये महीना कमाता हूं लवनीना की मां ने ही अपनी बेटी को काबिल बनाया है. उसके परिश्रम का ही फल है कि वह पोडियन की दावेदार बनी है”
भारत के अनेक एथलिट जो चमके ओर उम्र की ढलान पर पहुंच कर गुमनामी में खो गए. उनकी कहानियां किसी को भी डराने के लिए काफी हैं. पीटी उषा और अंजु बॉबी जार्ज तो अपवाद सी हैं. जिन्होंने भारत का नाम भी रेशन किया और अकादमी खोल कर सम्मानजनक जीवन बनाया. ऐसा कितने एथलिट कर सकते हैं. पिछले कुछ समय से जरूर खिलाड़ियों को नौकरी देने का प्रचलन बढ़ा है लेकिन सिर्फ इतने ही वह मुकाम नहीं हासिल किया जा सकता है जिससे सबसे बड़े देशों में एक भारत का ही सिक्का चले.
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यदि तीन देशों से ही भारत की तुलना की जाए तो यह बहुत कुछ कह देता है. इथोपिया आकाल, भूख, राजनैतिक अस्थिरता और हिंसा का पर्याय जैसा जाना जाता है. लेकिन इसके एथलिटों ने अपने देश को 23 गोल्ड, 11 सिल्वर और 21 ब्रांज के साथ कुल 55 पदक अब तक दिलाएं हैं.
जमैका का नाम क्रिकेट और उसेन बोल्ट के लिए ही जाना जाता है. लेकिन इसने ओलंपिक में भी अबतक जितने मेडल जीते हैं उसमें 22 गोल्ड, 35 सिल्वर और 21 ब्रांज है. कीनिया का भी रिकॉर्ड देख लीजिए. उसने कुल 103 मेडल जीते हैं जिसमें गोल्ड 31 रजत 38 कांस्य 34 हैं. भारत की तुलना तीन विकासशील देशों के साथ भी कर कर दिया जाता है जो ब्रिक्स के भी हिस्सा हैं.
फुटबॉल के विश्वकप को पांच बार हासिल करने वाले इस देश के पास ओलंपिक में स्वर्ण 31, रजत 39 कास्य 66 कुल 136 पदक हैं. रंगभेद की भयावहता झेल चुके दक्षिण अफ्रीका की आजादी तो अभी चार दशक से भी कम पुरानी है लेकिन उसमें भी 27 गोल्ड, 33 सिल्वर और 29 ब्रांज के साथ कुल 89 पदक हासिल किए हैं. भारत का रिकॉर्ड की तुलना इससे कर लीजिए. भारत ने अब तक 30 मेडल जीते हैं जिसमें 9 गोल्ड हॉकी के आठ के साथ 9 सिल्वर के साथ 12 ब्रांज हैं.
जरूरत इस बात की है कि खेलों के लिए जरूरी सामाजिक और आर्थिक विषमता के संदर्भ को गहरायी से समझने और सही लक्षण को पहचानने की जरूरत है.
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