Faisal Anurag
विकास के सवाल पर ही चुनाव लड़ा जा सकता है ? इस सवाल के जबाव में ही केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी के राजनीतिक अवसरवाद और सत्ता की असरदार होती प्रवृति का जबाव अंतरनिहित है. विकास के सवाल पर आखिरी चुनाव कब लड़ा गया, स्मृति पर जोर डालने के बाद ही इसका जबाव मिलता है. 2014 के चुनाव में जरूर विकास के कई मुद्दों को उछाला गया था. लेकिन जाति और धर्म का ध्रुवीकरण मख्य था. अब जबकि उत्तर प्रदेश में विधानसभा का चुनाव होने वाला है. एक बार फिर विकास का मुद्दा न जाने का कहां छुपा दिया गया है.
दावे जरूर किए जाते हैं, लेकिन मुख्य जोर तो अब्बजान के बहाने बहुसंख्यक सांप्रदायिकता को सलहना ही है. हर कदम इसी आधार पर उठाया जा रहा है कि जाति समूहों को किस तरह आकर्षित किया जाए और किस तरह ध्रुवीकरण को अकाट्य बना दिया जाए. आदित्यनाथ ने अब्बजान का सहारा लिया है और यह उनकी चिरपरिचत पहचान का ही रूप है. हालांकि भाजपा दावा करती रही है कि आदित्यनाथ के शासन में दंगे नहीं हुए, लेकिन इस दौर में ही सबसे ज्यादा ध्रुवीकरण की प्रक्रिया भी चली है. हालांकि कोविड और बेरोजगारी जैसे सवालों से विकास के एजेंडे से भाजपा परेशान है. लेकिन वह जाति के बहाने वोटरों को साधने में लगी हुई है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राजा महेंद्र प्रताप के नाम पर विश्वविद्यालय की नींव रखी. वह भी अलीगढ़ में. यह वही अलीगढ़ है, जहां के मुस्लिम विश्वविद्यालय की दुनिया भर में पहचान है. इसी अलीगढ़ का नाम बदल कर हरिगढ़ रखने के लिए प्रसतव भी पारित कर दिए गए हैं. यह अलीगढ़ जाटों का गढ़ भी है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश किसान आंदोलन का भी केंद्र है. किसान आंदोलन में जाटों के साथ अन्य तबकों के किसान भी खुल कर हिस्सा ले रहे हैं. यही नहीं 2013 में जिस पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सुनियोजित दंगे के बाद भाजपा की चुनावी राह आसान हुई थी, वहीं अब किसान एक दूसरे से दंगों के लिए माफी मांग रहे हैं. लंबे समय के बाद हिंदू और मुसलमानों के बीच की तमाम दूरियां सिमटती प्रतीत हो रही हैं. लेकिन इन्हीं जाटों के वोट के लिए ठीक चुनाव के पहले राजा महेंद्र प्रताप के नाम पर विश्वविद्यालय की नींव रखने की बात की जा रही है. दरअसल किसी भी राजनीतिक कदम के लिए टाइमिंग महत्वूपर्ण होती है.
प्रेक्ष्क तो सवाल उठा ही रहे हैं. राजा महेंद्र प्रताप की याद ठीक चुनाव के पहले ही खास कर किसान आंदोलन के लगातार असरदार होते जाने के क्रम में ही क्यों आयी है. यह वही महेंद्र प्रताप हैं जो खुद को वामपंथी कहते थे और सोवियत क्रांति के प्रणेता कामरेड लेनिन से मिलने मास्को तक गए थे. लेनिन से उनकी दो मुलाकतें हुई थीं. काबुल में बनी भारत की पहली आजाद सरकार के वे प्रधानमंत्री भी चुने गए थे, जिसमें मुसलमानों की प्रमुख भूमिका थी. यही नहीं 1957 के लोकसभा चुनाव में इसी महेंद्र प्रताप ने निर्दलीय लड़ते हुए अटल बिहारी वाजपेयी को करारी शिकस्त दी थी. महेंद्र प्रताप जीवन भर खुद को सेकुलर समाजवादी होने की बात करने के लिए जाने जाते रहे हैं. लेकिन भाजपा और मोदी ने इसी प्रतीक का इस्तेमाल किया है.
भाजपा ठीक चुनावों के पहले आजादी के जमाने के नेताओं को अपनाती नजर आती है. उसे ऐसे आयकन के रूप में पेश करने लगती है, मानो भाजपा के ही वे रहे हैं. बंगाल में भी यही देखा गया था. लेकिन यूपी की चुनौती केवल छवि को हड़पने तक ही सीमित नहीं हैं बल्कि किसान आंदोलन में दरार डालकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अपनी संभावना को बनाए रखना है.
पश्चिमी ही नहीं पूरे यूपी में ही जाति इंजीनिरिंग ही विकास के सवाल पर हावी है. सात सालों से केंद्र ओर पांच सालों से यूपी में सरकार चलाने और आर्थिक नीतियों को कॉरपारेट परस्त कर देने के बावजूद आखिर विकास के एजेंडे पर ही चुनाव लड़ने का साहस न तो भाजपा में है और न किसी अन्य दल में विकास के नए एजेंडे का ब्लूप्रिंट रखने का साहस. यही भारतीय राजनीति का त्रासद पहलू है जो अवसरवादी सत्ताकरण की प्रवृति को ही चुनाव का मुख्य पहलू बना देता है.