Faisal Anurag
किसानों और सरकार के बीच बातचीत फिर संभव है. यह सवाल जितना आसान है जबाव उतना ही कठिन. केंद्र सरकार ने किसानों को फिर से बातचीत के लिए आमंत्रित तो किया है, लेकिन इस आमंत्रण में ही कई पेंच हैं. पहला पेंच तो यही है कि सरकार ने बातचीत के लिए तारीख तय नहीं की है. उसने कहा है कि किसान ही तरीख तय कर लें और आ जाएं. सरकार न तो तारीख बता रही है और न ही किसान संगठनों के लिए उसके पास कोई नया प्रस्ताव है. साफ दिख रहा है कि वार्ता के लिए यह आमंत्रण बेमन से दिया गया एक खानापूर्ति मात्र है. प्रधानमंत्री सहित सरकार के तमाम मंत्री और भारतीय जनता पार्टी तो किसान आंदोलन के खिलाफ अभियान तेज कर चुके हैं. आंदोलन में शामिल किसानों को नकली बता कर सरकार के मंत्री और भाजपा ने इरादा साफ कर दिया है.
कृषि मंत्री ने किसानों को एक लंबा पत्र लिखा है. यह पत्र न केवल सरकार का इरादा बताता है बल्कि तथ्यों को ले कर गलतबयानी भी कर रहा है. किसान संगठनों ने तो कृषि मंत्री के इस पत्र में दिये गये तथ्यों को झूठ का पुलिंदा कहा है. उदाहरण के लिए इस पत्र में कृषि मंत्री ने दावा किया है किसानों की जमीन पर कोई खतरा नहीं है, ठेके में जमीन गिरवी नहीं रखी जाएगी और जमीन के किसी भी प्रकार के हस्तांतरण का करार नहीं होगा. लेकिन किसान संगठनों के अनुसार, यह कानून की गलतबयानी का ही नमूना है. वास्तविकता यह है कि ठेका खेती कानून की धारा 9 में साफ लिखा है कि किसान की लागत की जो अदायगी कंपनी को करनी है, उसकी व्यवस्था कर्जदाता संस्थाओं के साथ एक अलग समझौता करके पूरी होगी, जो इस ठेके के अनुबंध से अलग होगा.
लेकिन कर्जदाता संस्थाएं जमीन गिरवी रख कर ही कर्ज देती हैं. ठेका खेती कानून की धारा 14(2) में लिखा है कि अगर कंपनी से किसान उधार लेता है, तो उस उधार की वसूली कंपनी के कुल खर्च की वसूली के रूप में होगी, जो धारा 14(7) के अन्तर्गत भू-राजस्व के बकाया के रूप में की जाएगी.
कृषि मंत्री के तामम दावों को किसानों ने न केवल खारिज कर दिया है, बल्कि किसान यह भी कह रहे हैं कि कृषि मंत्री के दस तथ्य तो गलतबयानी पर आधारित हैं. भाजपा की सरकार तो किसानों के आंदोलन के खिलाफ जिस तरह का प्रोपेगेंडा अभियान चला रही है, उससे किसानों के आंदोलन के और लंबा होने और उसका विस्तार होने की संभावना है. किसानों ने आंदोलनरत मरने वाले 33 किसानों को शहीद का दर्जा दिया है. इसके साथ ही किसानों ने बताया है कि लगभग 1 लाख गांवों में इन किसानों के लिए श्रद्धांजलि सभा का आयोजन किया गया है.
किसान आंदोलन से ही जुड़ा हुआ एक और तथ्य है, जिसपर संजीदगी से गौर करने की जरूरत है. इस तथ्य पर विशेषज्ञ अनिल चौधरी ने रौशनी डाला है. अनिल चौधरी के अनुसार, सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस), न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) और कृषि उत्पादन विपणन समिति (एपीएमसी) एक पैकेज डील है. यह तीनों एक दूजे के भरोसे ही खड़े रह सकते हैं. एक के हटने से तीनों को गिर जाना है.
एपीएमसी बिखरने से एमएसपी का कोई मतलब नहीं और दोनों के बिना पीडीएस नहीं या उसका उलट पीडीएस के बिना APMC नहीं दोनों के बिना एमएसपी नहीं. तीन कृषि कानून किसानों, व्यापारियों और ग्राहकों सभी के लिए हानिकारक हैं.
किसान आंदोलन के संदर्भ में एक और विवाद तो फेसबुक ने तब खडा किया जब उसने किसानों एक किसान एकता मोरचा पेज पर रोक लगा दिया. हालांकि अन्य सोशल मीडिया साइट पर जिस तरह से इसका विरोध हुआ पेज तो बहाल कर दिया गया लेकिन फेसबुक कोई उचित कारण बता नहीं पा रहा है. भारत में फंसबुक पर भाजपा ओर उसके समर्थन को ले कर पहले भी आरोप लग चुके हैं और फेसबुक को इंडिया हेड आंखी दास को हटना पडा. लॉकडाउन पीरियड में फेसबुक ने जियो में भारी निवेश किया. इस समय किसान जिओ के तमाम उत्पादों का बहिष्कार कर रहे हैं. इसका असर भी दिख रहा है. अडानी और अंबानी पर किसानों का आरोप है कि उन्हीं के दबाव में केंद्र ने तीनों कानूनों को बनाने में जल्दबाजी दिखायी है.
किसानों का आंदोलन जिस तरह कारपारेटविरोधी माहौल बना चुका है उससे केंद्र सरकार खासी परेशान है. बावजूद इसके मोदी सरकार न तो पीछे हटने को तैयार है और न ही किसानों को साथ संवाद रखने में दिलचस्पी दिखा रही है. राह निकलने तक तीनों कानूनों के स्थगन कें लिए केंद्र तैयार नहीं है. ऐसी स्थिति में चारो ओर से किसानों के सामने आंदोलन को और तीखा और तेज करने ही एकमात्र विकल्प है.