Faisal Anurag
क्या श्रम कानूनों को भी तीन कृषि कानूनों की तरह नरेंद्र मोदी सरकार वापस लेगी ? यदि ऐसा होता है तो क्या इसे सरकार की किसी नीतिगत बदलाव का संकेत माना जाए या फिर मात्र एक चुनावी एजेंडा. यह सवाल इसलिए भी है कि नरेंद्र मोदी सत्ता में आने के बाद से ही आर्थिक सुधारों की बात करते रहे हैं और पांच ट्रिलियन डालर की इकोनॉमी बनाने के लिए भारत की अर्थ संरचना को पूरी तरह बदल देने का इरादा जताते रहे हैं. बावजूद इसके मोदी सरकार के समाने सबसे बड़ा सवाल यह है कि बेहतर आर्थिक रास्ते को ले कर उसकी घोषणाओं और राजनैतिक जरूरतों में तालमेल किस तरह बैठाए. तमाम कोशिशों के बावजूद चुनावों में हार का भय उसे पूरी तरह एक झटके के साथ आर्थिक सुधर की राह में रोड़ा बन खड़ा है. हालांकि सरकार समर्थक अर्थशास्त्री तो चाहते हैं कि बड़े सुधार एक झटके में हों. लेकिन राजनीतिक ज़रूरत और जनता के वोट की चिंता ऐसा करने से सरकार को रोकती रहती है. कृषि कानूनों को कोविड के दौर में पहले तो अध्यादेश के माध्यम से लाया गया फिर सदन की परंपराओं को नजरअंदाज कर पारित करा दिया गया. कमोवेश यही स्थिति श्रम कानूनों को लेकर भी है.
कृषि कानूनों की वापसी के लिए कैबिनेट से मंजूरी मिल चुकी है और कैबिनेट ने एमएसपी पर कमेटी बनाने की भी बात की है. लेकिन बिजली के नए विधेयक और श्रम कानून भी हैं जिनका पुरजोर विरोध हो रहा है. किसान नेताओं ने तो साफ कर दिया है कि वे एमएसपी पर कमेटी बनाने को लेकर ही संतुष्ट नहीं हैं बल्कि वे इस पर कानूनी गारंटी भी चाहते हैं. लेकिन सरकार समर्थक कृषि जानकार सरकार पर दबाव बना रहे हैं कि वह कानूनी गारंटी न दे. कारपारेट भी न तो कृषि कानूनों की वापसी से संतुष्ट है और न ही वह एमएसपी के पक्ष में है. बड़े कारपोरेट की निगाह कृषि भूमि पर है जिसे वे किसी भी तरह किसानों से हासिल कर लेने के लिए सरकार से कानून चाहते हैं.
सरकार कमेटियों की सीमा यह है कि उसमें ज्यादातर सदस्य सरकार के होते हैं और किसानों की भूमिका नगण्य होती है. कृषि के सवाल पर जब 2019 में नीति आयोग संवाद कर रहा था तब मात्र तीन किसान नेताओं को आमंत्रित किया था. उन किसान नेताओं ने जब संवाद के बहिष्कार की धमकी दी तब उन्हें बोलने का मौका दिया गया. श्रम कानूनों पर न तो मजदूर संगठनों को ठीक से सुना गया और न ही आर्थिक सुधारों के सवाल को कभी चुनावी एजेंडा बना कर पेश करने का प्रयास किया गया. यह तक ससंद के दोनों सदनों में सेलेक्ट कमेटी को विचार करने का अवसर देने के बजाय सीधे विधेयक को पारित करा दिया गया.
किसान और श्रमिक असंतोष के पीछे व्यापक विचार विमर्श के अवसर सीमित किए जाने का संदर्भ भी है. श्रम कानूनों को लागू करने की समय सीमा तीन बार बढ़ायी जा चुकी है. श्रमिक संगठन कंपनियों को नियुक्ति और बर्खास्तगी के असीमित अधिकार दिए जाने सहित समय के घंटों को ले कर भी विरोध जाता रहे हैं. यही नहीं श्रमिक संगठनें ने कोविड के दौर में श्रम सुधार के नाम पर सात राज्यों के बनाए गए कानूनों का भी विरोध किया है. नए प्रावधान तो अंतर्राष्ट्रीय श्रम मानकों के खिलाफ भी हैं.
श्रम कानानों को ले कर केन्द्र दुविधा से बाहर नहीं निकल पा रहा है. वह चुनावों के ठीक पहले किसी भी हाल में लोकप्रिय नहीं रहने का जोखिम नहीं उठाना चाहती है. जब कि कारपारेट ने साफ कहा है कि यदि इन कानूनों की वापसी का सिलसिला जारी रहा तो आर्थिक सुधारों को झटका लगेगा.नरेंद्र मोदी के एक देश एक चुनाव को लेकर देश में सहमति नहीं बनने से भी कारपारेट नाराज है. बारबार चुनाव का दबाव सरकार को न तो तेज गति और एक ही झटके में अर्थिक सुधार से रोकता है. कृषि कानूनों की वापसी पांच राज्यों के चुनाव को ध्यान में रख कर किए जाने की बात अब हर कोई महसूस करने लगा है. एक तरह से कारपारेट की बढ़ती चिंता बताती है कि वह लोककल्याण की नीतियों के प्रति अनुदार है. श्रम कानून सरकार के लिए एक बड़ा संकट है.मोदी सरकार के सलाहकार जानते हैं कि 2004 में अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार को आर्थिक सुधारों की कीमत चुकानी पड़ी थी. उसमें सबसे बड़ा मुद्दा सरकारी प्रतिष्ठानों को बेचने और पेंशन योजना की समाप्ति था. मोदी सरकार से 2022 और 2024 के चुनावों को ध्यान में रखते हुए किसान और श्रमिक तबके की बढ़ती नाराजगी से चिंतित है. कारपारेट की नाराजगी और राजनैतिक लोकप्रियता का अंतरविरोध मोदी सरकार की सबसे बड़ी चुनौती है.