Faisal Anurag

किसानों की जिस तरह भाजपा मंत्री पुत्र ने हत्या की है, शायद ही इसका डैमेज कंट्रोल संभव नहीं. हालांकि इस तरह का भ्रम पैदा किया जा रहा है. मंत्रीपुत्र को गिरफ्तारी से बचाने के प्रयास भाजपा के लिए न केवल घातक साबित होने जा रहा है बल्कि तिकोनिया नरसंहार के बाद किसानों का आंदोलन पूरे उत्तर प्रदेश में तेजी से असर दिखाने लगा है. एक ओर जहां किसानों ने राजनैतिक दलों से दूरी बनाए रखा है वहीं विपक्ष के नेताओं ने भी हत्याकांड का विरोध करते हुए इस बात का पूरा ख्याल रखा है कि किसानों के आंदोलन की स्वायत्तता प्रभावित नहीं हो. यह एक ऐसा चक्रब्यूह है जिसे बेधने का हुनर न तो आदत्यिनाथ के पास दिख रहा है और न ही भाजपा के थिंकटैंक के पास. केंद्रीय गृह राज्य मंत्री अजय मिश्र टेनी ने जरूर बब्बर खालसा का नाम उछाल का अपने बेटे के बचाव का नाकाम प्रयास किया है. किसानों ने एक वीडियो जारी किया है, जिसमें मंत्रीपुत्र आशुतोष मिश्र थार जीप से उतर कर भागते हुए दिख रहा है और जीप के एक चक्के में कुचले गए किसान का शव भी दिख रहा है. जाहिर है जिस टेनी ने चार दिनों पहले सबक सिखाने और लखीमपुर खिरी छोड़ कर भागने के लिए मजबूमर कर देने की धमकी दी थी उसका यह दावा कि आशुतोष घटना स्थल पर था नहीं कि भद पिट गयी है.
लेकिन इससे बड़ा सवाल तो यह है कि भाजपा के बड़े नेताओं की चुप्पी बताती है कि वे टेनी और उसके बेटे के साथ एकजुट हैं. कुछ स्थानीय नेताओं ने गोपनीय तरीके से सरकार की नीति पर सवाल जरूर खड़ा किया है, लेकिन खुल कर बोलने का साहस उनमें भी नहीं है. वरूण गांधी इकलौते सांसद हैं, जिन्होंने योगी को एक कड़ा पत्र लिखा है और किसानों का पक्ष लिया है. वरूण गांधी पिछले कुछ समय से किसानों के पक्ष को लेकर लगातार आवाज उठाते रहे हैं.
जिस तरह विपक्ष के नेताओं के साथ योगी सरकार ने व्यवहार किया है, इससे एक बात तो साफ हो गयी है कि आइएएस और आइपीएस अधिकारी पार्टी सदस्य की भूमिका निभाने लगे हैं. उन्हें न तो कानून की किताब की याद है और न ही संविधान की. योगी ने अधिकारियों को इस तरह सांचे में डाल रखा है जहां लोकतंत्र की बातें भले ही कितनी भी की जाएं ऐसे प्रयोग करने वालों का दमन करने में वे आगे कर दिए जाते हैं. यही हालत ज्यादातर भाजपा शासित राज्यों में देखा जा रहा है. प्रधानमंत्री भले ही यूएनओ के मंच से मदर ऑफ डेमोक्रेसी का प्रतिनिधि होने की बात करें उनके ही शासन काल में नौकरशाही,पुलिस और न्याय की जिम्मेवारी वाली संस्थान पूरी तरह बदले हुए हैं.
कानून कहता है कि किसी भी नागरिक को 24 घंटे से अधिक पुलिस हिरासत में नहीं रखा जा सकता, लेकिन कांग्रेस की नेता प्रियंका गांधी को जिस तरह गैरकानूनी हिरासत में रखा गया है और वकील से भी नहीं मिलने दिया जा रहा है एक ऐसी बानगी है जो देश के आमजानों के हालात को भी बताता है.सवाल यह है कि क्या किसी भी पुलिस अधिकारी को इस तरह गैर कानूनी कार्य करने का साहस कौन दे रहा है.
भाजपा की केंद्र सरकार हो या राज्य सरकारें सभी में नौकरशाही को असीमित निरंकुशता की पूरी छूट दे दी गयी है. हरियाणा के मुख्यमंत्री का किसानों के खिलाफ हिंसा करने वालों के बचाव और हिंसा के लिए उकासने वाला बयान बताता है कि न तो संविधान और न ही किसी कानून और ही न्यायपालिका का कोई भय. त्रिपुरा के भाजपायी मुख्यमंत्री तो पहले ही अपने अधिकारियों को कह चुके हैं कि वे अदालतो की अवमानना की न तो परवाह करें और न ही उससे डरे. कल्पना करें अगर किसी नेता ने मनोहर खट्टर जैसी बातें कहीं होती तो क्या सरकारी महकमा चुप रहता. जाहिर है अब तक न जाने देशद्रोह सहित कितनी धाराओं में केस दर्ज किया जा चुका होता.
इस तरह की निरंकुश होने की ताकत के स्रोत आखिर क्या हैं. एक तो वह आर्थिक ताकत है, जिसमें देश के दो बड़े कॉरपोरेट घरानों के हाथों देश की पूरी सरकारी संपत्ति को बेचने की छूट हासिल कर ली गयी है. दूसरी है, श्मशान, कबिसतान, पाकिस्तान और अब्बजान के बहाने धार्मिक जहर घोलने की राजनीति. इस जहर का नशा इतना गहरा है कि भाजपा का आलाकमान जनता है कि उसकी राजैतिक ताकत तब तब बनी रहेगी, जब तक इस अफीम को लोग चाटते रहेंगे. यही कारण हे कि 314 दिनों वाले किसानों के आंदोलन को ले कर मोदी सरकार पूरी तरह निरपेक्ष बनी हुई है. उसे यह भी पता है कि उसके कोर वोट आधार में किन्हीं भी हालात में छिटकने वाला नहीं है. इस नशों में तो सामाजिक न्याय की पक्षधर बहुजन जातियां भी डूबी हैं. किसान आंदोलन ने जरूर इस अफीम के नशों के खिलाफ सजगता दिखायी है, यही उसकी ताकत है लेकिन उसके राजनैतिक असर के लिए जरूरी है कि वह समाजिक संदर्भो में बड़ी पहल ले.

जिन सरकारों ने भी नौकरशाही के फीड पर राजनैतिक फैसले किए हैं उन्हें अतीत में सबक सीखना पड़ा है. यूपी के ही भट्टापसरौल का किसान आंदोलन इसका उदाहरण है, जब मायावती को इसकी कीमत चुकानी पड़ी थी. योगी सरकार अपने नेताओं कार्यकर्ताओं से ज्यादा नौकरशाही पर ही निर्भर है. तिकोनिया के बाद का राजनैतिक माहौल इसी का परिचायक है. दमन करने वाली सरकारें एक ही खुद के ही रचे जाल में फंसने के लिए अभिशप्त होती हैं.
