कोरोना और भारत का हेल्थकेयर सिस्टम, आग लगने पर कुआं खोदने की कवायद

Faisal Anurag

कोरोना लहर के ताजा दौर में भारत के हेल्थकेयर सिस्टम को लेकर फिर सवाल उठने लगे हैं. न तो पिछले साल के लॉकडाउन के दौरान बने हालातों से सबक लिया गया है और न ही मेडिकल जर्नल लेसैंट के उस अध्ययन रिपोर्ट के बाद, जिसमें स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता और पहुंच की दृष्टि से भारत को 195 देशों में 145वीं रैंकिंग दी गयी थी. दो साल पहले छपी उस रिपोर्ट की रैंकिग में कोई सुधार नहीं हुआ है. इस रिपोर्ट के अनुसार हम चीन, बांग्लादेश, श्रीलंका और भूटान से भी पीछे हैं. नीति आयोग हेल्थकेयर के लिए 2035 के सपने दिखा जरूर रहा है, लेकिन उसके दस्तावेजों और आंकड़ों में वास्तविक जमीनी हालात की चर्चा नहीं की गयी है. 2035 तक बेहतरीन स्वास्थ्य देखभाल के सपने आकर्षक तो हैं, लेकिन देश के अनेक शहरों से मरीजों की उन तकलीफों की रिपोर्ट आने लगी है, जिसमें बेड और वेंटिलेटर की कमी फिर उजागर हो गयी है. दावा तो यह किया गया था कि वेंटिलेटर की कमी नहीं होने दी जायेगी और इसके लिए 2020 में भारी प्रचार हुआ. लेकिन छोटे शहर हों या मुंबई या दिल्ली जैसे महानगर, वास्तविकता कुछ और ही कहानी सुना रही है.

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किसी देश के स्वास्थ्य क्षेत्र का बुनियादी ढांचा उस देश की स्वास्थ्य नीति के आकलन का अहम संकेतक होता है. बावजूद भारत के स्वास्थ्य क्षेत्र का बुनियादी ढांचा काफी दयनीय स्थिति में है और नया उभरती चुनौतियों से निपटने  में उसकी सीमा महसूस की जा रही है. साल भर का समय भी कम नहीं होता, यदि देश में हरेक के लिए बेहतरीन स्वास्थ्य संरचना बनाने के लिए युद्धस्तरीय प्रयास किए जाते. दरअसल भारत उस दौर में है, जहां बुनियादी सवाल उसकी राजनीति को प्रभावित नहीं करता है. सरकार समर्थक पत्रकार तो लिखने लगे हैं कि चुनावी हार-जीत आर्थिक या किसी अन्य संकट से प्रभावित नहीं होती. यह नेतृत्व का जादू है. जब अवधारणाएं इस तरह बनेगी, तो भारत की रैंकिंग तो नहीं ही सुधरेगी. यही कारण है यूनएनडीपी के मानव सूचकांक में हेल्थकेयर के नजरिए से भारत दुनिया के पहले सौ देशों में भी नहीं है. यही नहीं, हेल्थ के क्षेत्र में प्रति व्यक्ति खर्च के नजरिए से भी भारत अपने पड़ोसी चीन से बहुत पीछे हैं. इस मामले में तो श्रीलंका के आंकड़े भी भारत से बेहतर हैं.

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भारत सरकार वर्ष 2025 तक सार्वजनिक स्वास्थ्य खर्च को जीडीपी के 2.5 प्रतिशत तक बढ़ाने की योजना का सपना तो दिखाती है, लेकिन यह छुपा लेती है कि निजी क्षेत्रों के बढ़ते प्रभाव के दौर में सरकारी ढांचे का क्या भविष्य होने जा रहा है. 2020—21 में तो भारत के स्वास्थ्य ढांचे पर जीडीपी की 1.8 प्रतिशत राशि ही आबंटित की गयी है. एम्स जैसे संस्थानों पर भी निजीकरण का प्रेत तेजी से मंडरा रहा है. यदि पिछले सात सालों में देखा जाये, तो एम्स पहले से मंहगा हुआ है. खास कर उन मरीजों के लिए, जो प्राइवेट रूम लेना पसंद करते हैं. स्वास्थ्य पर निजी खर्च जीडीपी का करीब 4.8 फीसद है. देश के कुल अस्पतालों में निजी क्षेत्र की 74 फीसद हिस्सेदारी है.

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मेडिकल जर्नल की अनेक रिपोर्टों  में कहा गया है कि इलाज कराने पर होनेवाले खर्च के चलते देश के लाखों लोग हर साल गरीबी के जाल में फंस जाते हैं. इलाज की महंगी लागत और सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की जर्जर स्थिति के कारण उन्हें कर्ज लेकर इलाज कराना पड़ता है. लैंसेट के एक अध्ययन के मुताबिक भारत  में 3.9 करोड़ लोगों की हर साल ऐसी दुर्गति होती है.

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कोविड काल में देखा गया है कि सरकारी क्षेत्र के अस्पतालों ने ही हर तरह की जिम्मेदारी उठायी, जबकि कई मामलों में निजी क्षेत्र को लेकर सवाल उठते रहे. अनेक विशेषज्ञो का मानना था कि कोविड का सबक सरकारी क्षेत्र की स्वास्थ्य सेवा को ज्यादा मजबूत करने की सीख देता है. लेकिन जिस तरह आर्थिक सुधारों की आंधी कोविड आपदा दौर में चलायी गयी है, उसका स्वास्थ्य सेवाओं पर भी असर होगा. कृषि क्षेत्र के लिए बने तीन कानून सरकार के इरादे को जाहिर करते हैं कि वह किस तरह कृषि ढांचे में निजी क्षेत्र की दखल बढ़ाना चाहती है. 130 दिनों से किसान सरकार के इन कानूनों पुरजोर विरोध कर रहे हैं.

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स्वास्थ्य ढांचे में बदलाव के लिए जिस तरह के कानून बनाए जा रहे हैं, उस के संकेत भी बताते हैं कि सरकार पूरे हेल्थ सेक्टर को बदलना चाहती है. इससे संकेत मिलता है कि भारत स्वास्थ्य क्षेत्र की आधारभूत संरचना का स्वरूप बदला जायेगा. नीति आयोग-VISION 2035 PUBLIC HEALTH SURVEILLANCE IN INDIA  इस संदर्भ में महत्वूपर्ण संकेत देता है. इसमें न्यू इंडिया के हेल्थ सिस्टम की बात की गयी है और निजी क्षेत्र के मजबूत होने का संकेत दिया गया है.

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वायरस के बदलते स्वरूप का असर

कोरोना वायरस के बदलते स्वरूप ओर उसकी आक्रमकता के बीच असुरक्षा का माहौल गहरा रहा है. यदि 2020 की महामारी के समय का इस्तेमाल करते हुए हेल्थकेयर ढांचे को मजबूत करने के प्रयास किये गये होते, तो मरीजों की परेशानी थोड़ी कम होती. जाहिर है प्रचार ज्यादा हुए, सबक सीखा नहीं गया.