बैजनाथ मिश्र
आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने कहा है कि नेताओं को 75 साल में रिटायर हो जाना चाहिए, यह भी कि उन्हें नयी पीढ़ी के लिए जगह खाली करने के बारे में सोचना चाहिए. उनका यह बयान पिछले हफ्ते आया था. उसके बाद से ही मीडिया और राजनीतिक गलियारों में सुगबुगाहट शुरू हो गई है कि क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसी सितंबर के बाद स्वेच्छित सेवानिवृत्ति ले लेंगे और राजपाट किसी अन्य को सौंपकर हिमालय की गुफाओं में तपश्चर्या में लीन हो जाएंगे ?
इस लाल बुझक्कड़ी सुगबुगाहट का कारण शायद यह है कि मोदी सितंबर में 75 साल के हो जाएंगे और मोहन भागवत का सुझाव टाल पाना उनके लिए संभव नही होगा. लेकिन क्या भागवत खुद संघ प्रमुख का पद त्याग देंगे ? आखिर वह भी इसी सितंबर में 75 साल के हो रहे हैं. वह मोदी से एक हफ्ता बड़े हैं.
यह संघ की स्थापना का शताब्दी वर्ष है और संघ इस वर्ष अनेक कार्यक्रमों, अभियानों के माध्यम से एक बड़ी लकीर खींचने की कोशिश में है. ऐसे में भागवत के रिटायरमेंट का सवाल ही पैदा नहीं होता. वैसे भी परंपरागत रूप से संघ प्रमुख आजीवन अपने पद पर बने रहते हैं या फिर तब तक कामकाज संभालते रहते हैं जब तक शारीरिक और मानसिक रुप से स्वस्थ रहते हैं. यानी भागवत रिटायर नहीं होंगे तो मोदी पर रिटायरमेंट के लिए नैतिक दबाव कैसे डाल पायेंगे ?
माना कि संघ भाजपा की मातृ संस्था है, लेकिन भाजपा संघ को भरपूर आदर-सम्मान देते हुए भी अपनी राह खुद तय करती है. फिर भागवत ने सिर्फ सुझाव दिया है, कोई आदेश नहीं. उनका सुझाव मानना, न मानना भाजपा नेतृत्व पर निर्भर करता है, क्योंकि सुझाव का अनुपालन बाध्यकारी नहीं होता है. यानी अभी मौसम बदलने वाला नहीं है और अगला आम चुनाव भी भाजपा मोदी के नेतृत्व में ही लड़ेगी. अलबत्ता पार्टी में नये नेतृत्व को तैयार करने और उसे तराशने की प्रक्रिया जरूर शुरु हो जाएगी.
इस पूरे प्रकरण की खास बात यह है कि भागवत ने अपनी ओर से कुछ भी नहीं कहा है. उन्होंने संघ की धरोहरों में से एक मोरोपंत पिंगले को याद करके हुए उनके एक सुझाव को उद्धृत भर किया है. मोरोपंत संघ के श्रेष्ठ विचारकों-प्रचारकों में से एक थे. वह वाणी के वरद पुत्र थे. अत्यंत मेघावी व अध्ययनशील थे. मैंने उनका एक व्याख्यान सुना है पुणे में. उन्होंने डॉ अरविंद लेले के एक मराठी गीत- "हिंदू सारा एक मंत्र हा, दाहि दिशाता घुमवू या" को आधार बनाकर संघ की दृष्टि और समन्वित अभिवृद्धि की विलक्षण प्रस्तावना प्रस्तुत की थी.
खैर, यदि भागवत ने स्वयं भी भाजपा के 75 वर्षीय नेताओं को सन्यास का सुझाव दिया होता तब भी कोई उस पर ध्यान नहीं देता. 2005 के आसपास तत्कालीन संघ प्रमुख केएस सुदर्शन ने स्वयं ऐसा सुझाव दिया था. तब अटल-आडवाणी दोनों 75 पार थे. वाजपेयी ने तो कह दिया था नाइदर आइ एम टायर्ड, नोर रिटायर्ड. यह बात अलग है कि खराब सेहत के कारण उन्होंने दो साल बाद ही सक्रिय राजनीति से सन्यास ले लिया. लेकिन आडवाणी तो 2009 में प्रधानमंत्री पद के दावेदार बन बैठे थे.
2014 में नरेंद्र मोदी का भरपूर विरोध करने वाले आडवाणी लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए अड़ गये. वह लड़े और जीते भी. मुरली मनोहर जोशी भी उन्हीं की राह पर चल पड़े. अलबत्ता 2019 तक उनकी जिद और हौसले दोनों पस्त हो गये. खास बात यह है कि संघ को यदि अपने स्वयंसेवकों और सरकारों से कुछ कहना होता है तो वह सार्वजनिक रुप से कुछ नहीं कहता. गुपचुप संदेश आता है और उस पर अमल हो जाता है.
याद कीजिए 2009, तब आडवाणी चाहकर भी लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष नहीं बन पाए थे जबकि लोकसभा चुनाव उन्हीं के नेतृत्व में लड़ा गया था. दरअसल, पाकिस्तान में जिन्ना के मजार पर जाकर आडवाणी ने जो कुछ कहा था वह विचारधारा से विचलन था. संघ तभी से नाराज था. इसलिए लोकसभा में सुषमा स्वराज और राज्यसभा में जसवंत सिंह की जगह अरुण जेटली नेता प्रतिपक्ष बना दिये गये. जसवंत सिंह और भैरो सिंह शेखावत ने आडवाणी का तब साथ दिया था जब उन पर जिन्ना वाले बयान के कारण गाज गिरने वाली थी.
नरेंद्र मोदी अभी तक संघ परिवार की मूल विचारधारा से रत्तीभर भी नहीं हिले हैं. राम मंदिर बन गया है, अनुच्छेद 370 हट गया है और समान नागरिक संहिता को राज्यों के माध्यम से प्रभावी बनाने की प्रक्रिया शुरु हो गयी है. आखिर संघ को खिलखिलाने का अवसर भी मोदी शासन में ही मिला है. फिर अभी संघ ने मोदी का विकल्प भी तैयार नहीं किया है. इसका मतलब यह भी नहीं है कि आशक्त हो जाने पर भी मोदी ही पार्टी का नेतृत्व करते रहेंगे. लेकिन अभी तो वह किसी युवा से भी अधिक परिश्रम कर रहे हैं. वह राष्ट्र को परम वैभवशाली बनाने में प्राण प्रण से लगे हैं.
अपने झारखंड के एक सांसद हैं निशिकांत दूबे. प्रभावशाली वक्ता हैं, तेज तर्रार हैं. लेकिन वह सबसे आगे निकलने की होड़ में जल्दबाजी कर जाते हैं. सोशल मीडिया पर उनका एक झन्नाटेदार बयान नामूदार हुआ है. उनका कहना है कि भाजपा मोदी के बिना डेढ़ सौ सीटों पर सिमट जाएगी. तो क्या मोदी च्यवन ऋृषि हैं या लोमस मारकण्डेय जो भाजपा को सदा सर्वदा के लिए अविजित बनाए रखेंगे. यदि हा, तो यह करोड़ों कार्यकर्ताओं और स्वयंसेवकों को अपमान है, जिन्होंने निःस्वार्थ परिश्रम से भाजपा को अजेय बनाया है. ये वही कार्यकर्ता हैं जिन्होंने पार्टी को दो सीटों से यहां तक पहुंचाया है. फिर जय-पराजय में परिस्थितियों का अनुरोध भी प्रमुख कारक होता है. लेकिन यदि बकौल निशिकांत मोदीविहीन भाजपा अधोगामी जाएगी तो फिर कहना पड़ेगा कि इस पार्टी का भविष्य अंधकारमय है. किसी भी संगठन में विकल्पहीनता की स्थिति उसके क्षरण का संदेश होती है.
बहरहाल जनसंघ से लेकर भाजपा तक के बड़े नेताओं में सिर्फ नानाजी देशमुख ही ऐसे हुए हैं जिन्होंने 60 साल की उम्र में यह कहते हुए सन्यास ले लिया था कि हर पार्टी के नेताओं को 60 साल के बाद सन्यास ले लेना चाहिए. नानाजी अटल-आडवाणी से कमतर नहीं थे. 1977 में जनता पार्टी के महासचिव थे. वह मोरारजी देसाई की सरकार में ऑफर मिलने पर भी शामिल नहीं हुए. सक्रिय राजनीति से सन्यास के बाद उन्होंने उत्तर प्रदेश के बलरामपुर (गौंडा) में सेवा का एक बड़ा प्रकल्प तैयार किया और चित्रकूट में ग्रामीण विश्वविद्यालय की स्थापना की. बलरामपुर से ही 1957 में अटल जी पहली बार जीतकर लोकसभा पहुंचे थे और अपनी वाकपटुता से एक अमिट छाप छोड़ी थी. याद रहे कि सरस्वती शिशु मंदिरों का शुभारंभ भी उन्होंने ही किया-कराया था. निशिकांत उन्हें भलीभांति जानते हैं. संघ और भाजपा में ऐसे दधीचियों की कमी नहीं है. निस्संदेह मोदी भी उन्हीं में से एक हैं और सच यह भी है कि उन्हें भी संघ ने ही प्रश्रय दिया और आडवाणी कुछ नहीं कर पाये.
नीचे दिए गए कमेंट बॉक्स में इस टिप्पणी के बारे में अपनी राय साझा करें.