क्या लड़कियों की शादी की उम्र बढ़ाना ही समस्या का हल है?

Deepak Ambastha भारत में लड़कियों की शादी की उम्र 18 से बढ़ाकर 21 वर्ष करने का प्रस्ताव है. देश में बहस का मुद्दा बना हुआ है कि शादी की उम्र बढ़ाना क्या उचित है ? क्या इससे लड़कियों का भला हो सकता है, इसका फायदा क्या है या फिर क्या इससे परिस्थितियां बदल जाएंगी? एक तबका देश में ऐसा है, जो लड़कियों की शादी की उम्र बढ़ाने को सही नहीं मानता है. लेकिन ऐसे लोगों की कमी भी नहीं है, जो इस प्रस्ताव के समर्थन में खड़े हैं. भारत में बाल विवाह का तथाकथित उन्मूलन हुआ है, वैसे विश्व में दक्षिण एशिया के कुछ हिस्से और अफ्रीका के उप सहारा क्षेत्र को छोड़कर प्रायः 18 वर्ष से पहले लड़कियों की शादी का चलन खत्म हो चुका है फिर भी जहां ऐसा चलन है, जिसमें भारत के कुछ प्रदेश शामिल हैं, तो क्या भारत में लड़कियों की शादी की उम्र 21 वर्ष कर दिए जाने के कानून से पेश आने वाली समस्याएं खत्म हो जाएंगी? ऐसा लगता नहीं है,क्योंकि नियम कानून से अधिक यह मानसिकता और सोच से जुड़ी समस्या है. हमारे समाज में एक बड़ा वर्ग है, जो आज भी लड़कियों को बोझ समझता है और जल्द से जल्द अपने घर से उसकी विदाई चाहता है. बाल विवाह की रोकथाम के लिए कानून तो बहुत पहले बने और समय-समय पर इसमें संशोधन भी हुए हैं, पर क्या हमारा समाज इस समस्या से पूरी तरह उबर सका है? देश में 1929 में शारदा कानून के तहत पहली दफा लड़कियों के विवाह की उम्र 14 वर्ष और लड़कों की 18 वर्ष तय की गई. लेकिन 1978 में शारदा कानून में संशोधन किया गया और लड़कों के लिए शादी की उम्र 21 तथा लड़कियों के लिए 18 वर्ष निर्धारित की गई. 2006 में कुछ और बेहतर प्रावधानों के साथ बाल विवाह रोकथाम कानून को लागू किया गया, जिसने 1978 के कानून का स्थान लिया. यह ठीक है कि सिर्फ कानून के सहारे बाल विवाह को रोका नहीं जा सकता पर इसकी रोकथाम में कानून निश्चित रूप से सहायक है, फिर भी समस्या अगर बनी हुई है तो क्यों? विचार करने पर स्पष्ट होता है कि बाल विवाह के पीछे कुछ सामाजिक तो बहुत अधिक आर्थिक कारण हैं, जिसकी वजह से कन्या संतान के जन्म के साथ ही उसे बोझ मान लिया जाता है. लड़की का जन्म शोक का कारण बन जाता है, परिवार के लोग यथाशीघ्र इससे छुटकारा चाहते हैं, लड़कियों को अनउत्पादक भी माना जाता है, इसे आदिवासी समाज की परंपराओं से समझा जा सकता है, जहां लड़कियों का जन्म उत्सव का कारण है क्योंकि इस समाज में लड़कियां विवाह में दहेज लातीं हैं, दहेज देने का कारण नहीं बनतीं,फिर उनके श्रम से परिवार में आर्थिक समृद्धि आती है. वहीं ऐसे समाज या समुदाय जहां लड़कियां आर्थिक बोझ समझी जाती हैं उनकी मानसिकता अलग होती है. बगैर ऐसी मानसिकता को बदले सिर्फ कानून के माध्यम से इसमें व्यापक सफलता हासिल नहीं की जा सकती है. यूनिसेफ के अनुसार, 18 वर्ष से कम आयु में लड़कियों की शादी मानवाधिकार का उल्लंघन है. इससे घरेलू हिंसा, लड़कियों की स्वास्थ्य संबंधी समस्या, पढ़ाई छूटना तथा प्रसव के दौरान मातृ मृत्यु दर में वृद्धि होती है. यूनिसेफ की मूल भावना के अनुरूप ही केंद्र सरकार ने एक बार फिर 2006 के बाल विवाह कानून में कुछ और बदलाव करते हुए लड़कियों की शादी की उम्र 21 वर्ष करने की दिशा में बढ़ रही है. लेकिन आने वाले समय में भी यह सवाल अपना जवाब मांगेगा कि क्या शादी की उम्र बढ़ाकर मूल समस्या की चुनौती से निपटा जा सकता है? [wpse_comments_template]