Faisal Anurag
`` ट्रीटमेंट अच्छा मिल जाता तो मैं भी बच जाता.`` यह रूला देने वाला वाक्य किसी एक राहुल वोहरा के नहीं हैं. देश के गांवों में महामारी की जो सुनामी है वह न जाने कितने मरने वालों की अंतिम इच्छा इसी वाक्य में शामिल है. राहुल वोहरा एक संभावना वाले यूट्यूबर थे, जो अब दुनिया में नहीं हैं. ऐसी न जाने कितनी संभावनाओं को कोविड ने कम और सरकार की लचर व्यवस्था ने ज्यादा मरने दिया है. यह 20 या 19 सदी की बातें नहीं हैं. यह तब है जब संविधान और लोकतंत्र जिम्मेदार सरकार की बात करता है और सरकार है कि वह हाथी की तरह मदमस्त खतरों से बेपरवाह दिख रही है.
पिछले तीन सोमवारों से मीडिया और सरकार के लोग एक साथ कहने लगते हैं कि महामारी के कहर में कमी आ रही है. और कहें भी क्यों नहीं 8 मई को देश भर में 4 लाख 3 हजार से ज्यादा नए मामले आए थे. लेकिन 9 मई को यह संख्या 3 लाख 66 हजार ही है. 3 मई को भी कुछ इसी तरह का प्रोपेगेंडा किया गया था, क्योंकि 2 मई से 16 हजार कम मामले आए थे. लेकिन यह नहीं बताया जाता है कि इन दो दिनों में जांच की संख्या क्या है. हर सोमवार को ही कम मामले क्यों आते हैं? उत्तर प्रदेश हो या बिहार या झारखंड के गांवों से लोग सोशल मीडिया पर बता रहे हैं कि गांव के गांव खांसी और बुखार से ग्रस्त हैं. मरने वालों की संख्या अचानक बढ़ गयी है, लेकिन गांव में जांच नहीं हो रही है. यहां तक कि उत्तर प्रदेश की खबर यह भी बताती है कि स्थानीय सरकारी अस्पताल या क्लिनिक भी काम नहीं कर रहे हैं. तय है कि कोरोना से कम लड़ा जा रहा है, आंकड़ों के हेराफेरी ज्यादा हो रही है. यह आर्थिक क्षेत्र के मामलों में भी देखा गया है कि किस तरह आर्थिक क्षेत्र के आंकड़ों के साथ खेल होता है.
जब दूसरी लहर की सुनामी चरम पर है तब जोर इस बात पर दिया जा रहा है कि संभावित तीसरी लहर के मुकाबले के लिए तैयारी की जाए. यह नरेटिव केंद्र सरकार के वैज्ञानिक सलाहकार की चेतावनी के बाद तैयार हुआ. बाद में सुप्रीम कोर्ट ने भी इस पर सरकार का पक्ष पूछा. इस समय महत्वपूर्ण सवाल यह है कि जो सुनामी है उससे किस तरह निपटा जाना चाहिए. लेकिन ऐसा साफ महसूस हो रहा है कि हथियार एक तरह से डाल दिया गया है. टिटहरी की तरह आकाश के गिरने का इंतजार किया जा रहा है.
राहुल वोहरा तो चूंकि यूट्यूबर के बड़े नाम बन गए थे और उन्हें यह अहसास हो गया था कि वे बेहतर इलाज के अभाव में मरने वाले हैं. तो उन्होंने अपनी पीड़ा को सार्वजनिक कर दिया. लेकिन देश के लाखों लोग यह नहीं कर सकते क्योंकि उनकी बात को कोई सुनने को तैयार ही नहीं है.
इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने जरूर यह पूछा है कि आखिर स्वास्थ्य मंत्रालय नींद से कब जागेगा. आईएमए ने कहा है कि वह मंत्रालय के अनुचित कदमों और ढिलायी को लेकर हैरान है. मंत्रालय ने विशेषज्ञों के सुझावों को कचरे की पेटी में फेंक दिया है. आईएमए के इन तल्ख शब्दों में हजारों राहुल वोहरा के दर्द छुपे हुए हैं. आईएमए यह साहस जुटा पाया है, जबकि देश की अनेक दूसरी संस्थाओं ने सच कहना बंद कर सरकार के प्रोपेगेंडा के हिस्सेदार बन गए हैं. आईएमए ने यह भी कहा है कि महामारी को लेकर जो निर्णय अभी लिए जा रहे हैं उसका जमीनी स्तर से कोई लेनादेना नहीं है.
अपराजिता सारंगी भाजपा की प्रवक्ता हैं, उन्हें महसूस होता है कि केंद्र सरकार किसी भी चीज के लिए दोषी नहीं हैं. एक चैनल डिबेट में तो उन्होंने कहा कि मोदी सरकार संवेदनशील है और वह तमाम लोगों के सुझावों पर गंभीरता से विचार कर रही है. पता नहीं यह विचार कब तक जारी रहेगा और कब तक हजारों राहुल वोहरा की जानें महज इसलिए जाती रहेंगी कि बेहतर इलाज के दरवाजे नहीं खुल रहे हैं.