विधानसभा चुनावों के कुछ चरणों को कोरोना के कारण स्थगित किये जाने से शेष चरणों के चुनाव राष्ट्रपति शासन के तहत कराने की नौबत आ सकती थी
NewDelhI : निर्वाचन आयुक्त राजीव कुमार ने अपने एक मसौदा हलफनामे में कहा था कि भले ही मुझे सजा दे दें, मगर लोकतंत्र की रक्षा के लिए चुनाव आयोग को संदेहों से मुक्ति दिलायें. कहीं ऐसा न हो कि उस पर बहुत अधिक बढ़ा-चढ़ाकर और अपमानजनक शब्दों में आरोप लगाने का चलन शुरू हो जाये. एफिडेविट में आयुक्त राजीव कुमार ने कहा था कि कोविड-19 की रोकथाम के लिए पश्चिम बंगाल चुनाव के चरणों को मिलाना जन प्रतिनिधित्व कानून के प्रावधानों के तहत संभव नहीं था.
आयोग पर एक दल के खिलाफ दूसरे दल का पक्ष लेने के आरोप लगते.
कुमार ने अपने हलफनामे में लिखा था कि हाल ही में संपन्न हुए विधानसभा चुनावों के कुछ चरणों को कोरोना महामारी के कारण स्थगित किये जाने से शेष चरणों के चुनाव राष्ट्रपति शासन के तहत कराने की नौबत आ सकती थी. ऐसा होने पर आयोग पर एक दल के खिलाफ दूसरे दल का पक्ष लेने के आरोप लगते.
कुमार ने निजी रूप से इसकी सजा भुगतने की इच्छा जताई
कुमार ने निजी रूप से इसकी सजा भुगतने की इच्छा जताई और आयोग पर लगाये गये आरोपों को वापस लेने की अपील की. उन्होंने कहा कि निर्वाचन आयुक्त होने के नाते वह व्यक्तिगत जिम्मेदारियों से नहीं भागना चाहते और सजा देने की बात अदालत पर छोड़ रहे हैं. खबरों के अनुसार श्री कुमार ने इस हलफनामे को मद्रास हाईकोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट में पेश करने की योजना बनाई थी. हालांकि, कुछ तकनीकी प्रक्रिया के कारण यह मसौदा दाखिल नहीं किया जा सका था.
हलफनामा पेश किया जाना तकनीकी रूप से संभव नहीं था
आयोग के सूत्रों का कहना है कि वकील की सलाह के अनुसार कुमार की ओर से अतिरिक्त हलफनामा पेश किया जाना फिलहाल तकनीकी रूप से संभव नहीं था. सूत्रों के अनुसार कुमार ने मद्रास हाईकोर्ट की उन टिप्पणियों के जवाब में यह हलफनामा दायर करने की योजना बनाई थी, जिनमें अदालत ने कहा था कि कोविड-19 मामलों में तेजी के लिए आयोग अकेले जिम्मेदार है और उसके जिम्मेदार अधिकारियों के खिलाफ हत्या के आरोपों में मामला दर्ज किया जा सकता है.
बता दें कि कुमार का यह मसौदा हलफनामा आयोग की ओर से मद्रास हाईकोर्ट में पेश अर्जी और हाईकोर्ट की इन टिप्पणियों पर रोक लगाने के लिए सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका का हिस्सा नहीं था. बता दें कि सुप्रीम कोर्ट ने आयोग की याचिका यह कहते हुए खारिज कर दी थी कि हाईकोर्ट की मौखिक टिप्पणियां न्यायिक रिकॉर्ड का हिस्सा नहीं हैं, इसलिए उन पर रोक लगाने का कोई सवाल पैदा नहीं होता.