Chandil (Dilip Kumar) : पुत्र के दीर्घायु व उत्तम स्वास्थ्य के साथ परिवार में सुख-समृधि की कामना के लिए की जाने वाली जीवित्पुत्रिका पूजा की परंपरा भी अनोखी है. सरायकेला-खरसावां जिले के चांडिल अनुमंडल क्षेत्र के लगभग हर गांव में मनाई जाने वाली जितिया, जिउतिया या जीवित्पुत्रिका व्रत प्रकृति से जुड़ा लोक परंपरा का उत्सव है. पूजा को लेकर अनुमंडल क्षेत्र के चारों ओर उत्साह का माहौल है. संतान की दीर्घायु और सुख-समृद्धि के लिए मिहलाओं ने निर्जला व्रत रखा. आश्विन माह में कृष्ण-पक्ष के सातवें से नौवें चंद्र दिवस तक मनाए जाने वाले जिउतिया पूजा अष्टमी को प्रदोषकाल में शनिवार की रात की गई. पूजा-अर्चना के बाद महिलाएं जीवित्पुत्रिका व्रत की कथा सुनी. इस दौरान महिलाओं ने जिउतिया से जुड़े गीत गाते हुए नृत्य कर जागरण किया. शनिवार को दोपहर बाद अष्टमी लगने के कारण अधिकांश स्थानों में महिलाओं ने शनिवार की रात को ही पूजा-अर्चना की. व्रत का पारण रविवार को शाम 4.45 बजे के बाद किया जाएगा.
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मिट्टी का चील व सियारिन बनाकर चूड़ा-दही का चढ़ाया प्रसाद
धूमधाम से किए जाने वाले जिउतिया व्रत में महिलाओं ने भगवान जीमूतवाहन के साथ चील और सियारिन की भी पूजा की. मिट्टी के सियारिन व चील बनाकर पूजा-अर्चना के दौरान उन्हें चूड़ा-दही का प्रसाद चढ़ाया गया. साथ ही खीरा व अंकुरित चना का प्रसाद चढ़ाया गया. इसी प्रसाद को ग्रहण कर व्रत पारण करेंगी. मान्यता है कि कुश का जीमूतवाहन बनाकर पानी में उसे डाल बांस के पत्ते, चंदन, फूल आदि से पूजा करने पर वंश की वृद्धि होती है. जिउतिया पूजा के दौरान चील व सियारिन की पूजा करने के पीछे दो वजहें हो सकती हैं. पौराणिक वजह तो इसकी कथा से जुड़ी हुई है, दूसरी वजह यह हो सकती है कि चील और सियारिन प्रकृति को साफ करने वाले जीव माने जाते हैं. पारण के दौरान व्रति महिलाएं पवित्र तालाब या अन्य जलाशयों में जीमूतवाहन राजा के प्रतिक स्वरूप गाड़े गए डाली के साथ मिट्टी व गोबर से बनी चील व सियारिन की प्रतिमा का विसर्जन करती है.
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जिउतिया पूजा को लेकर कई कथाएं हैं प्रचलित
जिउतिया पूजा को लेकर कई प्रकार की कथा प्रचलित है. उनमें से एक कथा चील और सियारिन की है. प्रचलित कथा के अनुसार एक नगर में किसी वीरान जगह पर पीपल का पेड़ था. इस पेड़ पर एक चील और इसी के नीचे एक सियारिन रहती थी. एक बार कुछ महिलाओं को देखकर दोनों ने जिऊतिया व्रत किया. जिस दिन व्रत था उसी दिन सियारिन को इतनी भूख लगने लगी की वह भूख-प्यास से व्याकुल हो उठी. उससे भूख सही नहीं गई और उसने चील से छुप के खाना खा लिया. वहीं चील ने पूरे मन से व्रत किया और पारण किया. व्रत के प्रभाव में दोनों का ही अगला जन्म कन्याओं अहिरावती और कपूरावती के रूप में हुआ. जहां चील स्त्री के रूप में राज्य की रानी बनी और छोटी बहन सियारिन कपूरावती उसी राजा के छोटे भाई की पत्नी बनी. चील ने सात बच्चों को जन्म दिया, लेकिन कपूरावती के सारे बच्चे जन्म लेते ही मर जाते थे.
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राजा जीमुतवाहन की भी कही जाती है कथा
एक कथा राजा जीमुतवाहन की भी कही जाती है. कथा के अनुसार गंधर्वराज जीमूतवाहन बड़े धर्मात्मा और त्यागी पुरुष थे. एक दिन भ्रमण करते हुए उन्हें विलाप करती हुई नागमाता मिली, जब जीमूतवाहन ने उनके विलाप करने का कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि नागवंश गरुड़ से काफी परेशान है. नागवंश की रक्षा करने के लिए नागों ने गरुड़ से समझौता किया है कि वे प्रतिदिन उसे एक नाग खाने के लिए देंगे और इसके बदले वो हमारा सामूहिक शिकार नहीं करेगा. इस प्रक्रिया में आज उसके पुत्र को गरुड़ के सामने जाना है. नागमाता की पूरी बात सुनकर जीमूतवाहन ने उन्हें वचन दिया कि वे उनके पुत्र को कुछ नहीं होने देंगे और उसकी जगह कपड़े में लिपटकर खुद गरुड़ के सामने उस शिला पर लेट जाएंगे, जहां से गरुड़ अपना आहार उठाता है और उन्होंने ऐसा ही किया. गरुड़ ने जीमूतवाहन को अपने पंजों में दबाकर पहाड़ की तरफ उड़ान भरी. लेकिन जब गरुड़ ने देखा कि हमेशा की तरह नाग चिल्लाने और रोने की जगह शांत है, तो उसने कपड़ा हटाकर देखा तो कपड़े में लिपटा जीमूतवाहन को पाया. जीमूतवाहन ने सारी कहानी गरुड़ को बता दी, जिसके बाद उसने जीमूतवाहन को छोड़ दिया और नागों को ना खाने का भी वचन दिया. तब से हर माता अपने पुत्र की रक्षा के लिए जिउतिया व्रत करने लगी.
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महाभारत में भी है जीवित्पुत्रिका व्रत की कहानी
दूसरी ओर, जीवित्पुत्रिका व्रत की कहानी महाभारत में मिलता है. कहते हैं कि जब अश्वत्थामा ने युद्ध के अंत में ब्रह्मास्त्र चला दिया था तब उसके प्रभाव से उत्तरा का पुत्र मरा पैदा हुआ था. तब सुभद्रा, उत्तरा और द्रौपदी ने अन्न-जल त्याग करके पुत्र को जीवित करने की विनती की थी. ये देखकर श्रीकृष्ण ने उत्तरा के पुत्र को जीवित कर दिया और यह दिन जीवित्पुत्रिका कहलाया. मरा हुआ पुत्र जी उठा, इसलिए इस त्योहार को जिऊतिया कहा गया. तब से यह परंपरा आज तक चली आ रही है.
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