गांव की कहानी
(रामसहाय टुटी और सनिका टुटी)
खूँटी-तैमरा सड़क के बगल में स्थित डाड़ीगुटु से 2 किलोमीटर के बाद सड़क से ही सटा पूर्व दिशा में बाड़ीलोयोंग गाँव बसा हुआ है. मुख्य सड़क से एक पी.सी.सी.सड़क पूरब की ओर 400 मीटर तक बनी हुई है. इसी पी.सी.सी.सड़क के बांयी ओर बाड़ीलोयोंग गाँव है. खूँटी से इसकी दूरी 22 किलोमीटर तथा मारंगहादा बाजार से इसकी दूरी 7 किलोमीटर है. इस गाँव में मुख्यतः सिरी टुटी किलि के मुण्डा बसे हुए हैं. यह गाँव 1 शीट में फैला हुआ है. यह गांव तिलमा पंचायत में स्थित है.
गाँव के पूरब दिशा में पिडँयडीह गाँव दिबि स्थान और कोरोंजडीह तिलमा गाँव का टोला है. इसी दिशा में गांव का जंगल स्थित है. पूरब दिशा में ही पयाद गड़ा : नदी है जो दक्षिण से बाड़ीलोयोंग तक आती है और बाड़ीलोयोंग गाँव से यह पूरब दिशा में मुड़ जाती है. इस गाँव के पूरब सिमान पर उदेलकम बुरू तथा ऐदेल बुरू स्थित हैं. गाँव के पश्चिम दिशा में मुख्य सड़क और काँची नदी के पार कुजराम गाँव और सोद गाँव स्थित हैं.बाड़ीलोयोंग गाँव के उत्तर दिशा में तारूब गाँव है.
इस गाँव के पूरब दिशा में इकिर : नदी, नाला अथवा ऐसा गढा जिसमें पानी जमा रहता है. इस दिशा में स्थित इकिरों में प्रमुख है इचा इकिर, चोंडोंर इकिर,डुंडीद इकिर, गगरी इकिर, अड़ुगड़ा इकिर, कोटामारी इकिर, जिर हिस्सा इकिर, विरूडु डाड़ी इकिर तथा पपड़ा इकिर-इन इकिरों के अलावे गाँव के पूरब दिशा में दिबि स्थान स्थित है.
नामकरण
मुण्डा समुदाय के लोगा जब जगह की तलाश करते हुए यहाँ पर पहुँचे तो यहाँ पर जंगल झाड़ था. उन्होंने अपनी मेहनत से इस जंगल झाड़ के साफ कर खेत बनाया और गांव बसाया. इस गांव में मुण्डा समुदाय के लोगों ने बड़े-बड़े खेत बनाये. इन्हीं खेतों के कारण इस गांव का नाम बाड़ीलोयोंग पड़ा. क्योंकि मुण्डारी भाषा में लोयोंग शब्द का अर्थ खेत है.
हातु बोगा का इतिहास
जब से यह गांव स्थापित हुआ है, तब से इस गांव के लोगों ने अपने गांव, जंगल, नदी, पहाड़, तालाब तथा अपने समुदाय की समृद्धि व खेतों में अच्छी उपज के लिए गांव के विशेष स्थलों पर हातु बोगांओं : ग्राम देवताओं के स्थापित किया है. इस स्थल पर गांव के लोग अपने हातु बोंगा की स्तुति तथा इनसे अर्जी बहुत पहले से करते आ रहे हैं. इन स्थलों में प्रमुख है. सरना जयर तथा दिबि स्थल.
सरना-जयर स्थल
यह स्थल इस गांव के उतर दिशा में सड़क के किनारे स्थित है. इस स्थल पर सखुआ के कई पेड़ हैं. सरना स्थल पर बतोली : बताउली, और सरहुल में पहान के द्वारा पूजा करने की प्रथा बहुत पहले से चली आ रही है. बतौली : बताउली, जून महीने के अन्त में मनाने का रिवाज है. बताउली पर्व से पहले गांव के लोग खेत में एक ही बेला काम करते हैं. इस गांव में जब बताउली मना लिया जाता है. तब गांव के लोग अपने खेतों में दोनों बेला काम करते हैं. इस गांव की यह बहुत पुरानी परंपरा है. बताउली के अवसर पर कोदे : मड़ुआ से बना व्यंजन और लेपेर अडरू: भाजी साग से पहान सरना स्थल में पूजा करते हैं.
सरहुल के अवसर पर सरना स्थल में पहान पाँच मुर्गी की बलि देते हैं और इसके जिलू : मांस का उतु : सब्जी बनाते हैं तथा उसका प्रसाद तीन बार ग्रहण करके छोड़ देते हैं. उसके बाद इस गाँव के बच्चे उस प्रसाद के मांडी : भात के साथ खाते हैं. जिन पाँच मुर्गी की बलि दी जाती है.
दिबि स्थल
यह स्थल इस गांव में पूरब दिशा में स्थित है. इस स्थल पर प्रतिवर्ष जनवरी-फरवरी महीने में एक बार काला बकरा और तीन मुर्गी की बलि दी जाती है. इस स्थल पर मुख्यत सफेद लाल और मलि रंग की मुर्गियों की बलि दी जाती है.
हर छह महीने में एक बतख, तीन मुर्गा की बलि दी जाती है. इस पूजा में बेल पत्ता और गोलौची के फूल भी शामिल किए जाते हैं. दिबि स्थान में लाल और सफेद रंग का झण्डा गाड़ा जाता है. गाँव में दिबि पूजा करने की परम्परा वर्षें से चली आ रही है. इसके पीछे लोगों की मान्यता है कि दिबि पूजा करने से गाँव में किसी प्रकार का रोग-बीमारी तथा विघ्न-बाधा का प्रकोप नहीं होता है. लोग सुखी सम्पन्न रहते हैं.
बुजुर्गो के लिए गहरा सम्मान रखते हैं मुंडा
अन्य मुण्डा गाँवों की तरह ही प्राचीन काल से इस गाँव में बुजुर्गों के प्रति लोगों के मन में की सम्मान की भावना है. गाँव में कोई भी बड़ा काम या सामाजिक काम करने से पहले गाँव के लोग बुजुगों से सलाह मशविरा करते हैं. शादी-विवाह में बुजुर्गों का विचार लेना बहुत ही जरूरी समझा जाता है. शादी-विवाह का सारा कार्यक्रम बुजुर्ग ही तय करते हैं.
युवा वर्ग और नौजवान उनकी बातों का अमल करते हैं. पूजा पाठ के दिन, तारीख तय करने में बुजुर्गों से ही सलाह ली जाती है.
गांव में परंपरागत उपचार के तरीके
इस गांव में रोग बीमारी का इलाज पारंपरिक पद्धति से किया जाता है. इस पद्धति में जड़ी-बूटियों का इस्तेमाल किया जाता है. जड़ी-बूटियों से इलाज करने का ज्ञान इस गांव के लोगों ने अपने आज पूर्वजों से प्राप्त किया है. पमर्वजो के इस लोकज्ञान को बचा कर रखते हैं ग्रामीण. उपचार के लिए जड़ी-बूटियां इन्हें इस गाँव के आसपास के जंगलों से मिल जाती है. इस पारंपरिक पद्धति से इलाज करने वाले जंगल से तरह-तरह की जड़ी-बूटियां लाते हैं और बीमारी के आधार पर खुद दवाई बनाते हैं.
इस गाँव के पारंपरिक वैद्य रोगों की पहचान कर के मरीजों को दवा देते हैं. इस गाँव में दो पारंपरिक वैद्य हैं.
जड़ी-बूटी से ठीक न होने पर ओझा मति से पूजा-पाठ करवाने की परम्परा है. जब इन दोनों से बात नहीं बनती तब डॉक्टर से इलाज कराया जाता है. अधिकतर बीमारियाँ जड़ी-बूटियों से ठीक हो जाती हैं. कुछ जटिल बीमारियों के लिए ही डॉक्टर के पास जाना पड़ता है. इसलिए लोगों का आज भी जड़ी-बूटी से इलाज करने की अपनी पारंपरिक पद्धति पर विश्वास बना हुआ है. गांव के लोगों का मानना है कि इस पद्धति से इलाज कराने में कम खर्च होता है. उस खर्च का वहन आसानी से किया जा सकता है.
सांस्कृतिक महत्व का केन्द्र
इस गाँव में अपनी संस्कृति से बच्चों,युवाओं तथा युवतियों के परिचित कराने के लिए स्थापना काल से ही गाँव के लोगों ने पारंपरिक सांस्कृतिक केंद्रों की स्थापित किया है. उन सांस्कृतिक केन्द्रों में अखड़ा प्रमुख है.
अखड़ा
इस गाँव का अखड़ा तिलमा गाँव और बाड़ीलोयोंग के बीच में स्थित है. यह अखड़ा बाड़ीलोयोंग के लोगों के बीच सामूहिकता, सामुदायिकता, स्त्री-पुरुष समानता एकता को मजबूती प्रदान करता है. यह अखड़ा ऐसी जगह पर स्थित है कि अगल-बगल के गाँवों के बीच भी घनिष्ठ संबंधों को बनाए रखता है.
इस अखड़ा में ग्राम सभा की बैठकें की जाती हैं. साथ ही गाँव की समस्याओं पर विचार-विमर्श तथा उत्सवों की तैयारी के लिए भी इसी अखड़ा में बैठक किया जाता है. बैठक के आलावे पर्व,त्योहारों एवं अन्य सांस्कृतिक उत्सावों पर सामुहिक नाच-गान किया जाता है. इस नाच-गान में तिलमा गाँव के लोग भी शामिल होते हैं.
इस स्थल पर तिलमा गाँव तथा बाड़ीलोयोंग गाँव के लोगों का संयुक्त रूप से बैठक करने एवं सांस्कृतिक उत्सव मनाने की परंपरा बहुत पुरानी है.
स्वशासन व्यवस्था
बाड़ीलोयोंग गाँव में खूटकट्टी क्षेत्र के अन्य गाँवों की तरह शासन प्रणाली पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था पर आधारित थी. गाँव का कोई भी फैसला सामूहिक रूप से गाँव के मुण्डा : प्रधान एवं पहान ग्राम सभा की बैठक में किया करते थे. गाँव का प्रधान मुण्डा हुआ करते थे. आज भी वो गाँव के प्रधान हैं. ग्राम सभा की पारंपरिक साप्ताहिक बैठकों की अध्यक्षता मुण्डा अथवा पहान ही किया करते हैं. पंचायती राज के लागू होने से परंपरागत स्वशासन व्यवस्था में थोड़ा सा परिवर्तन आया है. गाँव में यदि ब्लॉक अथवा पंचायत की ओर से ग्राम सभा की विशेष बैठक आयोजित की जाती है, तो इस बैठक की अध्यक्षता पंचायत के मुखिया करते हैं.
पंचायती राज लागू होने से पहले ग्राम सभा द्वारा आयोजित किसी भी प्रकार की बैठक की अध्यक्षता गाँव के मुण्डा अथवा पहान किया करते थे.
पंचायती राज लागू होने के बाद भी पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था आज भी मजबूत है क्योंकि पंचायती राज के तहत ग्राम सभा की बैठकें खेत, पर्व-त्योहार एवं अन्य सांस्कृतिक उत्सवो की तैयारी के लिए नहीं की जाती है. इसके लिए तो पारंपरिक तौर से ग्राम सभा की बैठक का आयोजन गाँव के मुण्डा अथवा पहान करते आ रहे हैं. पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था में गाँव के विकास के लिए किसी भी प्रकार का निर्णय ग्राम सभा में सामूहिक तौर से विचार-विमर्श करने के बाद ही किया जाता है.
यहाँ तक की गाँव के खेतों में काम करने वाले मजदूरों की मजदूरी दर ग्राम सभा की बैठक में ही तय की जाती है. पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था की बैठक में वर्ष 2012 की मजदूरी दर 80 रुपये निर्धारित की गयी है.
आवश्यकता की वस्तु
बाड़ीलोयोंग गाँव के लोगों अपनी आवश्यकता की वस्तुएँ जैसे घर बनाने अथवा जलावन के लिए लकड़ी, भोजन के लिए कंद-मूल, फल-फूल, रच्ग-बीमारी के इलाज के लिए जड़ी-बूटियाँ गाँव के जंगल से प्राप्त करते हैं. यहाँ तक कि पूजा-पाठ, शादी-विवाह में उपयोग आने वाली वस्तुएँ जैसे लकड़ी, पता, फूल, दतवन वैगरह ये लोग जंगल से ही प्राप्त करते हैं. साथ ही नयल : हल अरंड़ा : जुआठ करा : पाटा मोगारू : ढेलपसा आदि खेती से जुड़े सामानों के बनाने के लिए लकडि़याँ इन्हें जंगल से ही प्राप्त हो जाती है.
भोजन के लिए अनाज : धान, मकई, मड़ुवा,गच्ंदली, बेंडे, गंगई, दलहन: अरहर, उरद, कुरथी, सरसों, सुरगुजा सहित साग-सब्जी अपने खेतों में उगाते हैं. कुछ साग इस गाँव के लोगों के जंगल से मिल जाता है.
परपराओं के नजरिए से तो यह गांव बहुत मजबूत है ओर गांव के इतिहास पर इसे गर्व भी है. लेकिन रोजमर्रे की जरूरतों के लिए इसे अब बहुत संघर्ष करना पड़ता है. सरकारी सहयता या सरकारी योजनाओं से गांव को ज्यादा लाभ नहीं मिला है. गांव के लोगों को गांव की आत्मनिर्भरता पर यकीन ज्यादा है. लेकिन अब भी गांव मुख्यधारा के जीवन का हिस्सा नहीं है. मीरांगहादा के बाजार ने गांव में बदलाव तो आया है, लेकिन यह अब भी नाकाफी है.