Premkumar Mani
चुनावी वर्ष में जनतंत्र की चर्चा जरा जोरदार हो जाती है, इसलिए स्वाभाविक है कि भारत में इन दिनों इस विषय पर चर्चा चल रही है. देश में जनतंत्र की हिफाजत कौन करेगा? यह प्रश्न हर नागरिक के दिल में उभर रहा है. क्या प्रधानमंत्री मोदी और उनकी पार्टी भारतीय जनता पार्टी इस दायित्व को पूरा करेगी, या फिर कांग्रेस और क्षेत्रीय पार्टियां जो अपने-अपने इलाकों में राष्ट्रीय दलों के मुकाबले अधिक मजबूत हैं. भाजपा विरोधी दल प्रधानमंत्री के तौर-तरीकों और उनकी सोच की बखिया उधेड़ रहे हैं, तो प्रधानमंत्री विरोधी दलों के भ्रष्टाचार और परिवारवाद पर ऊंगली उठा रहे हैं. लेकिन समग्र रूप से जनतंत्र की मुश्किलों को शायद दोनों नहीं देख रहे हैं. भारत में जनतंत्र ऐतिहासिक तौर पर भले ही वैशाली के जनपद में सुदूर ईसापूर्व किसी रूप में रहा था, उसकी व्यवस्थित संरचना ब्रिटिश हुकूमत के दौरान सामने आई. आरम्भ में यह नगर निकायों में स्थानीय शासन के रूप में आया और फिर धीरे-धीरे इसका प्रांतीय और राष्ट्रीय स्वरूप विकसित हुआ.
1937 में पहली दफा चुनावों द्वारा प्रांतीय सरकारों का गठन संभव हुआ और 1946 में अंततः राष्ट्रीय असेंबली के भी चुनाव हुए, जिसने संविधान सभा के रूप में कार्य किया. लेकिन, उसमें सबको मतदान करने का अधिकार नहीं था. कुल आबादी के लगभग ग्यारह फीसद लोगों को ही मताधिकार प्राप्त था. यह अभिजन सभा थी, लेकिन गैर-जवाबदेह नहीं थी. भारत की संविधान सभा ने सर्वाधिक क्रान्तिकारी निर्णय जो लिया, वह था बालिग मताधिकार पूरी आबादी को बिना किसी भेद-भाव के दिया जाना.
हमारे जनतंत्र के स्वप्न-द्रष्टा हजारों लोग थे, लेकिन कुछ खास थे, जिनमें जवाहरलाल नेहरू और भीमराव आम्बेडकर प्रमुख थे. इन दोनों का मानना था कि जनतंत्र केलिए एक जनतांत्रिक संस्कृति अपेक्षित है, जिसका इस देश में सामान्यतया अभाव था. इसीलिए नेहरू और आम्बेडकर लगातार वैज्ञानिक चेतना के विकास पर जोर देते रहे. क्योंकि इसके माध्यम से ही जनतंत्र को मजबूत किया जा सकता था. उन्हें प्रतीत हुआ इस चेतना की कोई समृद्ध उपस्थिति तत्कालीन भारतीय समाज में नहीं थी. गांधी ने भी लोकमानस पर प्रभाव डालने केलिए राजा राम के गीत गाए और रामराज का यूटोपिया सामने रखा, जो लोकप्रिय चाहे जितना हुआ हो, वास्तविक अर्थों में एक सामंती संस्कृति ही संचारित करता था.आम्बेडकर ने हिन्दू-मुस्लिम ढकोसला-वाद से जूझने केलिए ही अपने आखिरी दिनों में बौद्ध धर्म का सहारा लिया. नेहरू भी बुद्ध से बहुत प्रभावित थे. हालांकि दोनों ने बौद्ध धर्म के पाखंड को भी समझा था. लेकिन उनका मानना था व्यापक तौर पर इस बौद्ध चेतना, उसके करुणा और विवेक के ही बूते लोकतान्त्रिक भारत का निर्माण किया जा सकता है.
नेहरू प्रधानमंत्री थे और वह अपने तरीकों से देश के औद्योगिकीकरण की बात कर रहे थे. पंचवर्षीय योजनाओं के द्वारा वह एक नया समृद्ध भारत बनाना चाहते थे. समाजवादी ताकतें शिक्षा, रोजगार और शासन में सबकी भागीदारी सुनिश्चित करने केलिए प्रतिपक्ष मोर्चे से संघर्ष कर रही थीं. इस बीच दकियानूसी ताकतें समाज में अज्ञान और पाखण्ड का विस्तार कर रही थीं. जगह-जगह बाबाओं के अभ्युदय हो रहे थे और उनके अनुयायी बढ़ते जा रहे थे. भभूत और ताबीज़ का रोजगार बढ़ता जा रहा था. वैज्ञानिक चेतना (साइंटिफिक टेम्पर ) सृष्टि और संसार के विकासवादी सिद्धांत को स्वीकार करता है. पारम्परिक सनातनी हिन्दू- मुसलिम -इसाइयत सोच सृष्टिकर्ता यानी ईश्वरवाद में यकीन करता है. पुराने ज़माने से विवेकवादियों और आस्थावादियों का वैचारिक संघर्ष चला आ रहा है. हिन्दू , इस्लाम और इसाइयत के कट्टरतावादियों ने बुद्धि-विवेकवादियों को कितना नहीं सताया! दुनिया भर के इतिहास में इसके सबूत हैं. भारत में जैन-बौद्ध और लोकायत मत वाले किसी ईश्वरवाद अथवा सृष्टिकर्ता में यकीन नहीं करते थे.
मध्यकालीन भक्ति आंदोलन में संतों ने ईश्वर के साथ विवेकवाद को साधने की आयोजना की और इसके लिए ईश्वर को निर्गुण बनाना आवश्यक हुआ. यह एक अद्भुत वैचारिक आयोजन था,जिसमें ईश्वर को किताबों और देवालयों से मुक्त कर इंसानों के दिल से जोड़ दिया गया. मानो आस्था का जनतंत्रीकरण हो रहा हो.
एक व्यापक और सक्षम जनतंत्र के लिए वैज्ञानिक चेतना, सेकुलर सोच और दूसरे के मत का सम्मान करने का स्वभाव जरूरी होता है. जैन मत अनेकांतवाद में विश्वास करता है, जिसके अनुसार सच वही नहीं है, जो एक कह रहा है, दूसरा या तीसरा गलत ही है ,यह जरूरी नहीं और फिर यह कि सत्य के अनेक रूप होते हैं. एक ही व्यक्ति किसी का पुत्र, किसी का पति और किसी का पिता हो सकता है. सत्य को व्यापक तौर पर स्वीकार करने की उदारता और विनम्रता होनी ही चाहिए. जनतंत्र के लिए तो यह भाव अत्यंत जरूरी है. मुश्किल यह है कि हम एक जिद बना लेते हैं कि मैं सही और दूसरे गलत. इससे ही एकाधिकार और वर्चस्व की भावना आती है.
दुनिया के जिन देशों में भी लोकतंत्र मजबूत है और नागरिक खुशहाल हैं, वहां की डेमोग्राफी देखी जानी चाहिए. विकसित देशों में वैसे नागरिकों की संख्या तेजी से घट रही है, जो किसी संस्थागत धर्म या रिलिजन में यकीन करते हैं. ये धर्महीन लोग भारतीय अर्थों में अधम नहीं हैं. वे मानवीयता में अधिक गहराई से यकीन करते हैं. ये लोग आमतौर पर सृष्टि के विकासवादी स्वरूप को मानने वाले हैं, जो तेजी से बढ़ रहे हैं. कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के फिल ज़ुकरमान (1969 – ),जो एक ख्यात समाजशास्त्री हैं, के अनुसार दुनिया भर में कोई पचहत्तर करोड़ लोग ऐसे हैं, जो किसी मजहब या ईश्वर पर यकीन नहीं करते. स्वीडेन, वियतनाम, डेनमार्क, जापान, चीन, रूस, नॉर्वे, फ्रांस आदि में इनकी संख्या तेजी से बढ़ रही है. सभी यूरोपीय देशों में भी ये बढ़ रहे हैं. लेकिन हमारा देश भारत में बाबाओं और पुजारियों की ताकत दिनानुदिन बढ़ रही है. इन बाबाओं और पुजारियों के बूते जो जनतंत्र विकसित होगा, वह कैसा होगा इसका अनुमान लगाना बहुत कठिन नहीं है.
डिस्क्लेमर : ये लेखक के निजी विचार हैं.
[wpse_comments_template]