Srinivas
जनसंघ के जमाने से इनका एक नारा रहा है- ‘एक देश, एक प्रधान, एक निशान.’ ये उसका एक्सटेंशन कर रहे हैं- एक धर्म, एक संगठन, एक नेता. अब- एक देश, एक चुनाव. इनके पास अभी एक ऐसा नेता है, जिसके रहते, इनको यकीन है कि कुछ भी मुमकिन है! हालांकि मेरी समझ से यह सुझाव संविधान में निहित भावना और ढांचे के खिलाफ है, जिसे संघीय व्यवस्था कहते हैं. मगर इनको मजबूत केंद्र चाहिए. इसलिए पिछले 10 वर्षों में राज्यों के अधिकार कम से कम करने का प्रयास चलता रहा. आर्थिक मामलों में बहुत हद तक केंद्र का एकाधिकार पहले से रहा है, जीएसटी लागू होने के बाद तो राज्य याचक बन गये हैं. वैसे इस जल्दबाजी का एक और कारण हो सकता है. भाजपा को हमेशा से- जनसंघ के जमाने से- संसदीय लोकतंत्र की जगह राष्ट्रपति प्रणाली (अमेरिका वाली) अच्छी लगती है. वह संसदीय चुनाव को भी उसी तरह दो व्यक्तियों के मुकाबले के रूप में पेश करने का प्रयास करती है. इसलिए कि उनको लगता है कि हमारे पास एक कद्दावर नेता है- कभी वाजपेई थे आज मोदी हैं- विपक्ष के पास उसके मुकाबले का कोई है नहीं, तो पार्टी, विचार, घोषणापत्र सब किनारे करो और दो के बीच में मुकाबला करो.
आपके पास कौन है मोदी के मुकाबले? इसके साथ एक बात यह भी है कि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव के मुद्दे अलग होते हैं. आम धारणा है, जो सच भी है कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव अगर एक साथ हों तो देश के केंद्रीय के मुद्दे हावी होते हैं और क्षेत्रीय मुद्दे गौण हो जाते हैं. लोकसभा चुनाव से प्रधानमंत्री चुना जाता है, कई बार ऐसा देखा गया है कि जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव में भाजपा अच्छा नहीं कर पायी, लोकसभा चुनाव में उसने बेहतर किया. राज्य में तो कोई जीते, लेकिन केंद्र में तो मोदी चाहिए. मतलब मोदी की कथित लोकप्रियता का फैक्टर उसके पक्ष में जाता है, हालांकि यह सभी राज्यों में काम नहीं आता है. फिर भी एक साथ चुनाव में लाभ की उम्मीद दिख सकती है. इन कारणों से भी भाजपा को एक साथ चुनाव फायदेमंद लग सकता है.
देश में राजनीतिक सुधार की जरूरत तो है ही, चुनावी सुधार की भी. लेकिन शायद किसी दल को इसकी जरूरत महसूस नहीं होती! भाजपा को तो एकदम नहीं. सफल लोकतंत्र के लिए जरूरी है निष्पक्ष चुनाव और इसके लिए जरूरी है निष्पक्ष चुनाव आयोग. क्या हम कह सकते हैं कि वर्तमान चुनाव आयोग निष्पक्ष है? तो चुनाव आयुक्तों के चयन की प्रक्रिया और पारदर्शी नहीं होनी चाहिए? क्या सरकार की मर्जी का ही चुनाव आयुक्त बने, विपक्ष की उसमें कोई भूमिका नहीं हो? मौजूदा चुनाव प्रणाली में 30-35-40 पर्सेंट वोट लेकर के सरकार बन जाती है कैंडिडेट जीत जाता है. मतलब भले ही 60% लोगों ने समर्थन नहीं किया, कोई सांसद/विधायक बन सकते हैं, सरकार बन जाती है! और उसे कहा जाता है प्रचंड जनादेश! क्या इस पर विचार नहीं करना चाहिए कि जितने फीसदी वोट जिस दल को मिले, उसी अनुपात में संसद या विधानसभा में सीट मिले?
मगर इस पर कोई गंभीरता से विचार करने के लिए तैयार नहीं है! ऊंचे प्रशासनिक पदों पर, ज्यूडिशरी में कार्यरत लोग रिटायर होते ही या रिटायरमेंट के पहले इस्तीफा देकर पार्टी ज्वाइन करते हैं, चुनाव लड़ते हैं, एमपी बन जाते हैं! अभी हाईकोर्ट के एक जज ने इस्तीफा दिया और वह एमपी बन गये. क्या इस पर गंभीरता से नहीं सोचना चाहिए ऐसे जज, जिसका एक पार्टी एक विचारधारा की तरफ झुकाव है, वह जज रहते हुए कितना निष्पक्ष फैसला देता होगा, खास कर तब जब मामला राजनीतिक चरित्र का हो? क्या इस पर रोक लगाने की जरूरत नहीं है कि रिटायरमेंट के बाद एक निश्चित समय सीमा तक कोई जज, कोई प्रशासनिक अधिकारी कोई पार्टी ज्वाइन नहीं करे, चुनाव नहीं लड़े? सभी पार्टियां यह काम करती हैं. फिलहाल भाजपा सबसे बड़ी पार्टी है तो वह सबसे ज्यादा कर रही है.
हमारे चुनावी कानून में कोई व्यक्ति पर अधिक से अधिक कितनी सीटों पर चुनाव लड़ सकता है, इसका कोई नियम नहीं है. मोदी जी दो जगह से लड़े. अभी राहुल गांधी लड़े. दोनों जगह जीत गये, एक जगह से इस्तीफा दे दिया. क्या उस खाली सीट पर दोबारा होने वाले चुनाव का खर्च उस व्यक्ति या दल से वसूला नहीं जाना चाहिए? यह भी विचारणीय है कि किसी को एक से अधिक जगह से लड़ने का मौका मिलना चाहिए या नहीं? दल-बदल विरोधी कानून लगभग बेकार हो गया है. चुनाव संपन्न होते ही विधायकों के बिकने की खबर आने लगती है, सच या झूठ. यह मतदाताओं से छल नहीं है? क्या दल- बदल पर कारगर रोक लगाने की जरूरत नहीं है? विपक्षी दल भी यदि सिर्फ इस कारण इस प्रस्ताव का विरोध कर रहे हैं कि इससे भाजपा को लाभ हो जायेगा, यह विरोध का समुचित आधार नहीं है. इसके विरोध में ठोस तर्क होना चाहिए. भाजपा को तो जरूर यह लालच है कि एक साथ एक चुनाव में उसके पास एक केंद्रीय नेता है, जिसकी देशव्यापी लोकप्रियता है इसका उसको लाभ मिलेगा.
एक साथ चुनाव तो दूर की बात है, यहां तो एक राज्य में भी पांच से सात चरणों में मतदान कराये जा रहे हैं! मूलतः सत्तारूढ़ दल की सहूलियत के लिए, जिनको याद नहीं हो, उनके लिए- 1977 में लोकसभा का चुनाव तीन चरणों में- 16, 18 और 20 मार्च को संपन्न हो गया था. 20 को मतों की गिनती शुरू हो गयी थी और शाम तक नतीजे आने लगे थे. ध्यान रहे, तब ईवीएम नहीं आया था. उसके बाद यातायात की सुविधा बढ़ी है, सुरक्षा प्रबंध बेहतर हुआ है और मशीन से वोटिंग होने लगी है, तब भी चुनावी प्रक्रिया लंबी होती जा रही है. अभी जम्मू-कश्मीर और हरियाणा में चुनाव हो रहे हैं. अभी मौका था कि महाराष्ट्र और झारखंड में भी चुनाव करा दिये जाते. पर नहीं कराये गये, इसका कोई कारण बताया गया? लोकतंत्र के इस महायज्ञ पर होने वाले खर्च को फिजूलखर्ची तो वही बता सकता है, जिसे लोकतंत्र ही फिजूल लगता हो.
कोई चार साल पहले नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत ने भारत में ‘टू मच डेमोक्रेसी’ (जरूरत से ज्यादा लोकतंत्र) होने की बात कही थी, वह असल में इस जमात की भावना का इजहार कर रहे थे. इस ‘फिजूलखर्ची’ से बचने का सबसे अच्छा उपाय तो यह होगा कि अगले बीस-तीस वर्ष तक कोई चुनाव ही न हो! जनता ने महामानव को प्रचंड जनादेश दे ही दिया है, और वे अगले एक हजार वर्ष के विकास का खाका भी तैयार कर चुके हैं! चंद देशद्रोही टाइप आलोचक क्या कहते हैं, इससे क्या फर्क पड़ता है. एक और तरीका है कि तमाम राज्यों में विधानसभा का अस्तित्व ही न रहे! विधानसभा चुनाव का झंझट ही खत्म! वैसे मौजूदा संसद के अंकगणित को देखते हुए तो यह शिगूफा भी लगता है! अन्य जरूरी मुद्दों को छोड़ कर लोग कुछ दिन इसी पर बहस में उलझे रहें.
डिस्क्लेमर : ये लेखक के निजी विचार हैं.
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