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कांग्रेस के पुनर्जीवन का अवसर है यह चुनाव

info@lagatar.in by info@lagatar.in
October 12, 2022
in ओपिनियन
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Srinivas

अचानक लगने लगा है कि कांग्रेस बदल रही है. कुछ समय पहले तक निर्जीव नजर आ रही कांग्रेस, जिसके अवसान की भविष्यवाणी की जा रही थी, उसमें जान आ गयी है. ऐसा हो जाये, तो यह देश की राजनीति के लिए शुभ ही होगा. इतनी पुरानी और मुख्य विपक्षी पार्टी का सशक्त होना लोकतंत्र की सफलता के लिहाज से भी जरूरी है. सशक्त और सक्रिय विपक्ष के अभाव में लोकतंत्र अधूरा और लंगड़ा हो जाता है. सत्ता निरंकुश हो जाती है. और अभी लगभग यही स्थिति है भी.
इसी मुद्दे पर चर्चा के क्रम में आंदोलन और वाहिनी के साथी पंकज जी ने इस बात से सहमति जताई कि आज कांग्रेस के मजबूत होने का मतलब लोकतंत्र का सबल होना है. आगे उनका कथन और सटीक है – ‘कल कांग्रेस मजबूत थी, लेकिन जनता का मजबूत होना उसे अच्छा नहीं लगा. आज भाजपा मजबूत है तो उसे भी भिन्न राय पसंद नहीं है. कल भी जनता कमजोर थी और आज भी कमजोर है.’

और अचानक हालात बदलते नजर आने लगे हैं. एक तरफ राहुल गांधी एक लम्बी पदयात्रा पर निकल पड़े; दूसरी ओर कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव की घोषणा हो गयी. यह भी बताया गया कि अध्यक्ष ‘गांधी परिवार’ से बाहर का होगा और स्वतंत्र चुनाव के जरिये चुना जायेगा. लोकतंत्र का तकाजा और उसकी सफलता की अपरिहार्य शर्त है स्वतंत्र चुनाव. दिखावे के लिए ही सही, अध्यक्ष पद का चुनाव मतदान से हो, यह कांग्रेस के भविष्य और उसकी सेहत के लिए भी बेहतर होगा. ‘सर्वसम्मति’ के प्रयास के पीछे मंशा अमूमन अलोकतांत्रिक ही होती है. चुनाव से मतभेद और खेमेबाजी प्रकट हो जायेगी, यह फिजूल की चिंता है. अक्सर इसके पीछे ‘आलाकमान’ की और उसके दरबारियों की चिंता निहित होती है कि उस सर्वशक्तिमान की हैसियत कम न हो जाये. शायद इसी कारण सोनिया गांधी के विश्वासपात्र मल्लिकार्जुन खड़गे को ‘सर्वसम्मति’ से निर्वाचित करने की एक मुहिम भी चल पड़ी थी. शशि थरूर अपना नाम वापस ले लें, ऐसी अपील की जा रही थी. गनीमत है कि थरूर अड़े रहे और अब चुनाव होन अवश्यांभावी हो गया है. वैसे लग तो यही रहा है कि पलड़ा श्री खड़गे के पक्ष में झुका हुआ है और उनका जीतना लगभग तय है. नतीजा जो भी हो, इस चुनाव से कांग्रेस की गरिमा बढ़ेगी. भले ही खड़गे ‘मैडम’ के रबर स्टाम्प ही साबित हों. लेकिन अभी से ऐसा मान भी क्यों लिया जाए. अब यदि ‘गांधी परिवार’ कांग्रेस के लिए इतना ही अपरिहार्य है, तो यह कांग्रेस का अंदरूनी मामला है. शशि थरूर तो तभी जीतेंगे, जब उनको बहुमत का समर्थन मिलेगा. ऐसे में क्या उन्हें अपने ढंग से काम करने का मौका नहीं दिया जायेगा, नहीं दिया जाना चाहिए?

लालू प्रसाद ‘सर्वसम्मति’ से राजद के अध्यक्ष चुन लिये गये, इससे न तो लालू प्रसाद के कद में इजाफा हुआ, न राजद की प्रतिष्ठा बढी. एक बार फिर यही साबित हुआ कि वह लालू प्रसाद का जेबी संगठन है. जिस संगठन में आतंरिक लोकतंत्र नहीं है, लोकतंत्र के प्रति उसकी निष्ठा संदिग्ध ही रहती है. और विडम्बना ही है कि आज देश के कथित लोकतांत्रिक राजनीतिक दलों के बजाय दक्षिणपंथी भाजपा और वाम दलों में आतंरिक लोकतंत्र अधिक दिखता है, जबकि मूलतः लोकतंत्र इन्हें पसंद नहीं. लोकतंत्र और संविधान में विश्वास का प्रदर्शन इनकी महज रणनीति है.

आशा की जानी चाहिए कि नये अध्यक्ष के नेतृत्व में कांग्रेस नयी ऊर्जा से काम करेगी. हालांकि उसका (कांग्रेस का) ‘गांधी परिवार’ की छात्रछाया और उसके नियंत्रण से पूरी तरह मुक्त होना फिलहाल कठिन ही लगता है. एक तो किन्हीं कारणों से खड़गे को पसंद नहीं करने वाले कांग्रेस के अनेक छत्रप, सोनिया गांधी के जरिये उनको नियंत्रित करने का प्रयास कर सकते हैं. दूसरे, पहले से कांग्रेस के कद्दावर और निर्विवाद नेता के रूप में स्थापित राहुल गांधी का कद ‘भारत जोड़ो’ यात्रा के कारण जिस तरह बढ़ता नजर आ रहा है, उनकी अनदेखी करना किसी खड़गे या थरूर के लिए आसान नहीं ही होगा. अब यह सोनिया गांधी और राहुल गांधी पर निर्भर करेगा कि वे निर्वाचित अध्यक्ष को अपने ढंग से काम करने, फैसला लेने और अपनी टीम बनाने का मौका दें. अन्यथा अध्यक्ष यदि एक परनिर्भर ‘बेचारा’ दिखे तो उससे पार्टी भी हास्यास्पद ही दिखेगी. शायद ऐसा न हो. श्री खड़गे से कांग्रेस के कुलीन तबके और मानसिकता के बहुतेरे लोगों को इस कारण भी कष्ट है शायद कि वह वंचित समुदाय और पृष्ठभूमि से आते हैं. लेकिन वे अध्यक्ष बनते हैं, तो यह भी पार्टी का एक सबल पक्ष बन सकता है.

वर्ष 1991 के बाद,’परिवार’ और परिवारवाद से मुक्त होने का एक अवसर आया था. राजीव गांधी की आकस्मिक मृत्यु के बाद. तब अवसाद में पड़ी सोनिया गांधी की राजनीति में आने की रुचि नहीं थी; या उनमें महत्वाकांक्षा नहीं जगी थी. नरसिंह राव प्रधानमंत्री बने. वे अनेक लिहाज से सक्षम भी थे. गलत या सही, उनकी सरकार ने अनेक दूरगामी प्रभाव के फैसले भी किये. मगर बाबरी ध्वंस में उनकी संदिग्ध भूमिका ने उनके विरोधियों को मौका दे दिया. नये अध्यक्ष सीताराम केसरी की महत्वाकांक्षा भी कुलांचें भरने लगी. और ‘परिवार’ के वफादारों ने सोनिया गांधी को कांग्रेस के शीर्ष पर स्थापित कर दिया. यद्यपि उनके नेतृत्व में कांग्रेस ने वापसी की. दस साल केंद्र में सत्तारूढ़ रही. मगर ‘परिवारवाद’ का आरोप भी मजबूत होता गया. आज एक बार फिर मौका है कि कांग्रेस उससे मुक्त हो सकती है. अपनी बात पंकज जी के ही एक कथन से समाप्त कर रहा हूं, जिससे मैं सहमत हूं कि ‘हम तो जनता की शक्ति जगाने व बढ़ाने के राही रहे हैं, पर आज हमें भी कांग्रेस के मजबूत होने का इंतजार है.

डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.

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