Girish Malviya
देश गहरे आर्थिक संकट में है. अब मोदी सरकार के हाथ–पांव फूल रहे हैं. पहले खबर आयी थी किकेंद्र का राजकोषीय घाटा सरकार के 3.8 प्रतिशत के अनुमान की तुलना में दोगुना से कुछ अधिकहोकर 7.9 प्रतिशत पर पहुंच सकता है. लेकिन अब इसके 13% तक पहुंचने का अनुमान लगाया गयाहै.
स्थिति कितनी जटिल है, इसका अनुमान इसी से लगा लीजिए कि इस वित्तवर्ष के पांच महीनों में हीसरकारी खर्च 8.7 लाख करोड़ रुपये यानी बजट अनुमान के 109.3 प्रतिशत पर पहुंच गया है. जबकिअभी तो सात महीने बाकी है.
कोविड की वजह से राजस्व संग्रह की स्थिति को देखते हुए मई में बढ़ा कर 12 लाख करोड़ रुपये काअनुमान कर दिया गया.
मोदी सरकार हर साल बद से बदतर परफॉर्मेंस दे रही है. नवम्बर 2016 से मार्च 2020 के बीच लिएगए केंद्र सरकार के गलत आर्थिक निर्णय इसके जिम्मेदार है. सबसे बड़ी बात यह है कि मोदी सरकारयह मानने को तैयार ही नहीं हुई कि आर्थिक वृद्धि में धीमापन आ रहा है. वर्ष 2019-20 में तो सरकारका राजकोषीय घाटा सात साल के उच्च स्तर 4.6 प्रतिशत पर पहुंच गया. लेकिन इस साल तो इसकेसीधे 13 प्रतिशत हो जाने की बात की जा रही है.
राज्यों की स्थिति भी बहुत खराब है. भारत के 18 सबसे बड़े राज्यों में राजकोषीय घाटा, कुल व्ययऔर प्राप्तियों के बीच का अंतर पहली तिमाही में बजट अनुमानों का 40.7 प्रतिशत रहा, जो कि एकसाल पहले तिमाही में 13.4 प्रतिशत था.
कुछ दिन पहले मोदी सरकार ने पहली बार यह स्वीकार कर लिया है कि वह सार्वजनिक कंपनियों केविनिवेश लक्ष्य को इस साल हासिल नहीं कर पाएगी. एअर इंडिया और बीपीसीएल के विनिवेश कीप्रक्रिया लगातार टल रही है. सरकार ने इस वित्त वर्ष में विनिवेश से 2.1 लाख करोड़ रुपये जुटाने काबड़ा लक्ष्य रखा था, लेकिन अब इसके पूरे होने की उम्मीद बिल्कुल नहीं है. इसकी वजह से सरकारको इस साल अपने लक्ष्य से डेढ़ गुना ज्यादा करीब 12 लाख करोड़ रुपये का उधार लेना पड़ सकताहै.
सबसे बड़ी समस्या यह है कि सरकार निवेशकों का विश्वास भी खोती नजर आ रही है. सितंबर 2020 के मध्य में जब 18,000 करोड़ रुपये मूल्य के सरकारी बॉंड की नीलामी की गई तो निवेशकों मेंबिल्कुल इच्छाशक्ति देखने को नहीं मिली. बहुत संभव है कि RBI नोट छापकर प्रत्यक्ष मुद्रीकरणकर सकता है. फिलहाल जो हालात हैं, उसमे सिर्फ यही रास्ता दिख रहा है.