Faisal Anurag
किसान आंदोलन के सामने न तो कोई धुंध है और न ही सब्र की कमी. केंद्र उनके अपराजेय सब्र के इम्तहान में हरदिन बैकफुट पर जा रही है. यह आंदोलन इस सदी के तीसरे दशक में एक ऐसी मिसाल बन खड़ा है, जो आजादी की लड़ाई की याद दिलाता है. आजादी की लड़ाई के दौरान रावी के किनारे कांग्रेस के अधिवेशन में जिस तरह स्वतंत्रता की हुंकार भरी गयी थी, ठीक उसी तरह किसानों ने एक स्वर से कह दिया है रिपील,रिपील,रिपील. यानी तीनों कृषि कानूनों के लिए उनकी एक सूत्री मांग यही है.
केंद्र के तमाम दावों और तर्कों को जिस तरह किसानों ने खारिज किया है. पिछले 70 सालों में ऐसी जद्दोजहद नहीं देखी गयी है. आंदोलन के दबाव का ही असर है कि अंबानी समूह को कार्ट जा कर कहना पड़ रहा है रिलायंस रिटेल लिमिटेड, रिलायंस जियो इंफोकॉम लिमिटेड या किसी भी अन्य सहायक कंपनी ने कॉरपोरेट या कांन्ट्रैक्ट खेती नहीं की है और ना ही आगे इस कारोबार में प्रवेश करने की योजना है. अंबानी की दोनों कंपनियों ने यह भी कहा है कि तीनों कृषि कानूनों से उनका कोई संबंध नहीं है. यह सफाई अंबानी के प्रोडक्ट के बहिष्कार के असर का ही नतीजा है.
अंबानी समूह देश के लोगों से सीधे टकराव में जाने से बचने का प्रयास कर रहा है. लेकिन किसानों का गुस्सा केवल अंबानी के खिलाफ ही नहीं है, बल्कि अडानी समूह भी शामिल है. लेकिन अडानी समूह खामोश है.
आठवें दौर की बातचीत का सबसे दिलचस्प घटना तो लंच के समय हुआ, जब किसानों ने मंत्रियों को लंगर के खाने पर आमंत्रित किया और मंत्रियों ने इंकार कर दिया. इसके पहले की बातचीत में केंद्रीय कृषि मंत्री ने किसानों के साथ ही लंगर का खाना खाया था. केंद्र अब कैबिनेट और किसान संगठनों से बातचीत का उल्लेख कर 8 जनवरी तक के लिए वार्ता को बढ़ा दिया है. लेकिन केंद्र को भी महसूस हो रहा है कि किसानों की दृढता और एकता में कोई दरार डालना संभव नहीं है.
किसानों ने गणतंत्र दिवस परेड के अवसर पर ट्रैक्टर परेड की घोषणा की है. केंद्र जानता है कि इस हालात से निपटना आसान नहीं होगा. डोनाल्ड ट्रंप की दिल्ली यात्रा के समय शाहीनबाग आंदोलन ने भारत की बड़ी किरकिरी करायी थी. केंद्र को पता है कि किसानों का सवाल ज्यादा पेंचीदा है.
यदि अंबानी की कंपनियों ने हाइकार्ट पहुंचकर यह सफाई दी है कि उनका कांन्ट्रैक्ट फार्मिग का न कोई अनुभव है और न ही उनकी इस क्षेत्र में कोई क्षमता है. कंपनी ने यह भी कहा है कि वह किसानों से कोई सीधे खरीद नहीं करती और न ही इसके लिए कोई अनुबंध किया है. इस बयान का साफ मतलब है कि कंपनी किसानों के गुस्से का सामना करने को न तैयार है और न ही राजनैतिक तौर पर किसी विवाद में फंसना चाहती है. देश के कॉरपोरेट इतिहास की भी यह पहली ही घटना है, जब देश के सबसे ताकतवर कॉरपारेट को कोर्ट की शरण लेकर किसानों को सफाई देनी पड़ रही है. पंजाब और हरियाणा में किसानों ने जियो के 2000 से अधिक टावर को तोड़ दिया है. किसानों ने खेती के क्षेत्र में सक्रिय कॉरपारेटों के प्रतिष्ठनों पर धरना देने की योजना आंदोलन के आगे के कार्यक्रमों में एलान कर रखा है.
आर्थिक सुधारों के पैरोकारों के लिए इस आंदोलन ने कई बड़ी दीवार खड़ी कर दी है. जब से उदारीकरण और निजीकरण का दौर भारत में शुरू हुआ है यह पहला ही अवसर है कि उस पूरी अवधारणा को चुनौती यह आंदोलन दे रहा है. कोविड के बाद के दौर में तो वैसे भी वैश्वीकरण के विचार को उन्हीं देशों में नकारा जा रहा है, जो इसकी सरजमीन बनाते रहे हैं. लातिनी अमेरिका के बाद भारत के बाद पहली बार किसान आंदोलन ने प्रतिरोध के वैश्वीकरण की अवधारणा को मूर्त किया है. इस आंदोलन को इन व्यापक संदर्भां से अलग कर नहीं देखा जा सकता है.
जानेमाने पत्रकार उर्मिलेश के अनुसार, इतनी ठंड और बेमौसम बारिश के बावजूद आंदोलन जारी है. आंदोलन में अब तक 55 से अधिक किसान जान गवां चुके हैं. सरकार कितनी वार्ताएं, कितनी बार करना चाहती है? क्या उसे कोर्ट के हस्तक्षेप का इंतजार है? क्या सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक महत्व के मसलों के समाधान के लिए न्यायालय ही एकमात्र जगह है? अगर हां तो फिर निर्वाचित सरकारें क्या सिर्फ कॉरपोरेट के पक्ष में सुधार के लिए होती हैं? दुनिया के किसी लोकतांत्रिक देश या समाज में शांतिपूर्ण और पूरी तरह अहिंसक आंदोलन में अगर अब तक 55 क्या 5 मौतें भी हुई होतीं, तो वहां की हुकूमत अपनी ज़िद छोड़कर कॉरपोरेट-पक्षी क़ानूनों को फौरन निरस्त करती. उनकी जगह, समाज-पक्षी कृषि कानून बनाने की तैयारी करती. दुनिया के आधुनिक इतिहास में न ऐसा सत्याग्रह आधारित बड़ा किसान-आंदोलन देखा गया और न अपने आपको लोकतंत्र कहने वाले मुल्क़ में ऐसी अड़ियल, असंवेदनशील और अहमन्य हुकूमत देखी गयी!