- 2019 में 8000 मामले थे पेंडिंग, दो साल में 12 हजार और आवेदन बढ़ गये.
- प्रखंड और जिला स्तर पर लाखों आवेदन धूल फांक रहे, जवाब नहीं देते हैं सरकारी अधिकारी.
- आयोग का डंडा चलने का डर सरकारी बाबूओं के अंदर से खत्म, सूचना मांगने वाले परेशान.
- सूचना आयुक्त पद के लिए 417 आवेदन भी आये, लेकिन नहीं हो रहा आयोग का पुनर्गठन.
- आरटीआई एक्टिविस्टों का आरोप- सरकार ने आयोग को बना दिया है पंगु.
Satya Sharan
Ranchi: झारखंड सूचना आयोग में सेकेंड अपील के 20 हजार से ज्यादा मामले लंबित हैं. 2019 में जब आयोग में अध्यक्ष थे और सूचना आयोग सिस्टम से काम कर रहा था उस वक्त 8000 मामले पेंडिग थे. अध्यक्ष विहीन होने के बाद आयोग के पास 2 साल में 12 हजार मामले पहुंचे हैं. आरटीआई एक्टिविस्टों और आम लोगों के द्वारा डाले गये इन आवेदनों को इंतजार है मुख्य सूचना आयुक्त और अन्य 5 सूचना आयुक्तों का, क्योंकि उनके आने के बाद ही इन आवेदनों पर कार्रवाई होगी. मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्त पद के लिए सरकार के पास 417 आवेदन भी आ चुके हैं. इनमें 63 मुख्य सूचना आयुक्त और 354 सूचना आयुक्त पद के लिए हैं, लेकिन अबतक आयोग के पुनर्गठन को लेकर कोई कोशिश नहीं की जा रही है.
सरकारी विभागों से सूचना लेना अब टेढ़ी खीर
उधर, सूचना आयोग का पुनर्गठन नहीं होने के कारण राज्य में आरटीआई सिर्फ दिखावा बनकर रह गया है. राज्यभर में लाखों लोगों और आरटीआई एक्टिविस्टों ने विभिन्न सरकारी विभागों से सवाल पूछे हैं, लेकिन सरकारी दफ्तरों में बैठे अधिकारी और पदाधिकारी इन आवेदनों को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं. जब राज्य में सूचना आयोग काम कर रहा था उस वक्त भी कई सरकारी विभाग आवेदकों को सूचना नहीं देते थे. अब तो आयोग के निष्क्रिय होने बाद वैसे विभागों और अधिकारियों की मौज हो गई है जो सूचना देने में आनाकानी करते हैं. सूचना नहीं देने पर आयोग का डंडा चलने का डर भी उनके अंदर से खत्म हो चुका है. अब झारखंड में आरटीआई के तहत कोई जानकारी लेना टेढ़ी खीर की तरह हो गया है. सूचना देने के लिए बैठे पदाधिकारियों का रवैया ऐसा हो गया है मानों वे जनता की सेवा के लिए नहीं बल्कि शोषण के लिए बैठे हैं.
2019 के बाद झारखंड में कुंद हुई आरटीआई की धार
साल 2005 में सूचना का अधिकार कानून बना था. जब यह कानून आया तो लोगों को सरकारी महकमे से बेधड़क और बेझिझक सवाल पूछने का अधिकार मिला. लोगों को मिले इस अधिकार से सरकारी दफ्तरों में हड़कंप मच गया था. शुरूआत में विभागों और अफसरों ने सूचना नहीं देने के लिए तरह-तरह के प्रपंच रचे. सूचना मांगने वालों को हड़काया भी गया, लेकिन कुछ आरटीआई एक्टिविस्टों के लगातार प्रयास से धीरे-धीरे आरटीआई आम लोगों के लिए एक मजबूत ढाल बनकर उभरा. हालांकि कई लोगों ने सूचना मांगने के अधिकार का बेजा इस्तेमाल भी किया. सूचना अधिकार कानून आने के दो साल बाद 2007 में राज्य सूचना आयोग का गठन हुआ. तब सूचना नहीं देने वाले अफसरों और विभागों को अपना रवैया बदलना पड़ा, लेकिन एक बार फिर 2019 के बाद झारखंड में आरटीआई की धार कुंद हो गई और अफसरों की मौज हो गई है.
राज्य सरकार ने सूचना आयोग को बना दिया है पंगु- सुनील
झारखंड के कई आरटीआई एक्टिविस्टों के सैकड़ों आवेदन और प्रथम अपील सरकारी विभागों में धूल फांक रहे हैं. वहीं सेकेंड अपील के भी उनके कई आवेदन सूचना आयोग में पड़े हुए हैं. अब तो आरटीआई एक्टिविस्टों और आम लोगों ने सूचना का अधिकार कानून का यह हाल देखकर सूचना मांगना बंद कर दिया है. आरटीआई एक्टिविस्ट सुनील महतो का कहना है कि उन्होंने सैकड़ों आवेदन डाले हैं. इनमें प्रथम और द्वितीय अपील के भी कई आवेदन हैं. जबतक आयोग का पुनर्गठन नहीं होता सूचना मिलने में ऐसे ही परेशानी होगी. उन्होंने कहा कि इस सरकार में सूचना आयोग और अन्य संस्थाओं को पंगु बनाकर रख दिया गया है. सरकार नहीं चाहती कि शासन में पारदर्शिता हो. सिर्फ उनके खास लोगों का काम चलता रहे.
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गोपनीय बताकर अधिकांश सवालों को टाल दिया जाता है- सर्वेश
आरटीआई एक्टिविस्ट सर्वेश सिंह ने भी कहा कि इस सरकार में आरटीआई को पंगु बना दिया गया है. पड़ोसी राज्य मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में सूचना आयोग में सारे पद भरे हुए हैं. उन्होंने कहा कि आयोग का पुनर्गठन नहीं होने से अधिकारी आवेदकों को सूचना नहीं दे रहे. अगर कभी जवाब आ भी गया तो बड़ा उलझा हुआ सा होता है. सर्वेश ने बताया कि उन्होंने आरटीआई के तहत यह जानना चाहा था कि कितने लोगों को हथियार का लाइसेंस किन-किन परिस्थितियों में दिया गया है. वहीं एसबीआई से यह पूछा कि सिक्योरिटी का काम किस-किस कंपनी को दिया गया है. विभाग ने दोनों मामले को गोपनीय बताकर सवालों को टाल दिया. उन्होंने कहा कि जो सूचनाएं पब्लिक डोमेन में सरकारी विभागों को डालने चाहिए वहां नहीं डालते हैं. जब उन्हें आरटीआई के जरिए पूछा जाता है तब भी उन्हें टाल दिया जाता है.