Jamshedpur (Vishwajeet Bhatt) : शहर में पंडाल बनाकर दुर्गापूजा करने का इतिहास 110 साल पुराना है. मां दुर्गा की प्रतिमा स्थापित कर पंडाल में पूजा की शुरुआत 1906 में हुई थी. सबसे पहला पंडाल कालीमाटी रेलवे स्टेशन (अब टाटानगर) के पास बनाया गया था. तब से यहां हर साल भव्य तरीके से दुर्गापूजा होती है. दुर्गा पूजा केंद्रीय कमेटी के कार्यकारी अध्यक्ष आशुतोष सिंह के अनुसार 1906 में पहली बार स्टेशन मास्टर डी सेनगुप्ता ने कर्मचारियों के साथ मिलकर दुर्गापूजा मनाई थी. इसके बाद 1965 में रेलवे लोको कॉलोनी के लोगों ने पंडाल बनाकर पूजा शुरू की. आज भी शहर के पंडालाें में श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ती है, लेकिन शहरवासी लोको कॉलोनी जाकर मां का दर्शन करना नहीं भूलते.
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बंगाली रीति-रिवाज से पूजा की परंपरा
बिष्टुपुर रामकृष्ण मिशन, बेल्डीह कालीबाड़ी, नामदा बस्ती काली मंदिर, पारडीह काली मंदिर, रेलवे लोको कॉलोनी, रेलवे ट्रैफिक कॉलोनी, चंडी बाबा मंदिर, कदमा भाटिया बस्ती, मिलानी बिष्टुपुर, इवनिंग क्लब दुर्गापूजा कमेटी आदि ऐसे स्थान हैं, जहां बंगाली रीति-रिवाज से पूजा होती है.
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साल दर साल आया बदलाव
30 साल पहले और अब होने वाली दुर्गापूजा के तरीके में काफी बदलाव आया है. पहले लोग साधारण तरीके से पंडाल बनाकर मां दुर्गा की प्रतिमा स्थापित करते थे. धूप-दीप और गाजे-बाजे के साथ पूजा की जाती थी. अब, भक्ति की जगह भव्यता ने ले ली है. दुर्गापूजा केंद्रीय कमेटी के कार्यकारी अध्यक्ष आशुतोष सिंह के अनुसार दुर्गापूजा को लेकर लोगों में आज भी वही जोश और उत्साह है. पहले पांच से 50 रुपये चंदा इकट्ठा किया जाता था और कम पैसे में ही धूमधाम से पूजा होती थी, लेकिन अब काफी पैसे खर्च किए जाते हैं.
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पश्चिम बंगाल को टक्कर दे रही लौहनगरी की दुर्गापूजा
पश्चिम बंगाल की दुर्गा पूजा को अब लौहनगरी की दुर्गा पूजा पूरी तरह से टक्कर दे रही है. वैसे तो शहर में असंख्य पूजा पंडाल हैं, लेकिन कई स्थानों पर यह पूजनोत्सव बहुत विशाल और भव्य रूप से आयोजित किया जा रहा है. कुछ बड़े पंडालों के पट पंचमी को खुलते हैं. कुछ के षष्ठी और कुछ पंडालों के पट सप्तमी को खुल जाते हैं. पंडालों के पट खुलने के साथ ही मां दुर्गा के प्रति भक्ति, विशाल व आकर्षक पंडालों के साथ ही मां दुर्गा की मनमोहक प्रतिमाओं के प्रति आकर्षण लौहनगरी के सिर चढ़कर बोलने लगता है. बच्चे मेलों के लिए मचलने लगते हैं. यह लाजिमी भी है, क्योंकि तमाम निजी व सरकारी स्कूलों में पहले ही छुट्टियों की घोषणा हो जाती है. पंडालों में बजते भजन वातावरण को भक्ति रस से सराबोर करते रहते हैं. पंडालों के इर्द-गिर्द और सड़कों के किनारे बड़ी संख्या में खुली खाने-पीने की दुकानें लोगों को अपनी ओर आकर्षित करती हैं. सड़कों पर भक्तों की भारी भीड़ रहती है.
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1982 में बना था पहला बड़ा पंडाल
1982 में गोलपहाड़ी में शहर का पहला बड़ा और आकर्षक पंडाल बनाया गया. इसके बाद बर्मामाइंस और धीरे-धीरे शहर भर में बड़े पंडाल बनाए जाने की परंपरा शुरू हो गई. 80 के दशक में ही दुर्गोत्सव से दिग्गजों का जुड़ाव हुआ. इसी दशक के उत्तरार्ध में काशीडीह में दुर्गापूजा के भव्य व विशाल आयोजन से इस परंपरा की शुरुआत हुई और धीरे-धीरे दुर्गोत्सव राजनीति में मजबूत पकड़, प्रतिष्ठा प्राप्ति और बेहिसाब भीड़ इकट्ठा करने का माध्यम बना गया. इसी दौरान टेल्को 26 नंबर में भी यूनियन के पदाधिकारियों की प्रत्यक्ष सहभागिता से दुर्गोत्सव के आयोजन की परंपरा शुरू हुई.
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पंडाल निर्माण में इस बार 15 करोड़ तक खर्च का अनुमान
शहर में दुर्गापूजा के पंडालों के निर्माण पर इस साल लगभग 15 करोड़ रुपये खर्च होने का अनुमान है. शहर भर में कुल 324 दुर्गापूजा पूजा समितियां हैं. इनमें से लगभग 100 ऐसे पंडाल हैं जिनके निर्माण पर प्रति पंडाल लगभग दो लाख रुपये के हिसाब से कुल दो करोड़ रुपये खर्च होंगे. लगभग 100 पंडाल ऐसे हैं जिनके निर्माण पर प्रति पंडाल लगभग पांच लाख रुपये खर्च हो रहे हैं और इनकी कुल लागत पांच करोड़ रुपये होगी. 60 से 70 पूजा समितियां ऐसी हैं जिनके पंडाल निर्माण पर प्रति पंडाल सात से आठ लाख रुपये लगेंगे और इनकी कुल लागत लगभग पांच करोड़ रुपये होगी. इसके इतर 20 से 25 पूजा समितियां ऐसी भी हैं जो इस साल पंडाल निर्माण पर प्रति पंडाल 10 लाख रुपये से अधिक खर्च कर रही हैं. इस तरह इनका कुल अनुमानित खर्च लगभग दो से तीन करोड़ रुपये आएगा.
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