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Faisal Anurag
यह राजनीति की क्रूरता और बेहिसी का ही नमूना है कि देश महामारी के उस दंश के दौर में है, जहां जान बचाने के लिए लोगों को खुद ही संघर्ष करना पड़ रहा है. अस्पतालों में बेड नहीं, देश के अनेक राज्यों में वैक्सिन की कमी, रेमिडिसिविर के लिए अनेक शहरों में लगी लंबी-लंबी लाइन, यहां तक कि शवों के अंतिम संस्कार के लिए भी लंबी प्रतीक्षा सूची, रेमडेसिविर की खुलेआम कालाबाजारी और ऑक्सीजन की कमी. यह संवेदनहीनता का ही प्रदर्शन है. स्वास्थ्य सेवा का गुजरात मॉडल यह बता रहा है कि किस तरह केवल प्रचार से ही राजनीतिक मकसद हासिल किया जा सकता है. भले ही जमीन पर कोई काम नहीं किया गया हो.
अनेक शहरों में जब रेमडिसिविर के लिए लोग परेशान भटक रहे हों, गुजरात के भाजपा अध्यक्ष के पास पांच हजार डोज का होना बताता है कि पूरी व्यवस्था पर किन लोगों ने कब्जा जमा लिया है. गुजरात से दीपक तिवारी ने सोशल मीडिया पर लिखा है : शनिवार को जब पत्रकारों ने गुजरात के मुख्यमंत्री से पूछा कि 5000 Remdesiver इंजेक्शन भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष के पास कैसे पहुंच गये, जबकि जनता परेशान है तो मुख्यमंत्री ने जवाब दिया “उन्हीं से पूछें”. पत्रकारों ने प्रदेश के मुख्यमंत्री से फिर सवाल पूछा तो मुख्यमंत्री यही जवाब देते रहे कि “आप प्रदेश अध्यक्ष से पूछें”. हर बार जब यही जवाब मुख्यमंत्री से मिला कि “प्रदेश अध्यक्ष से पूछें” तो दैनिक भास्कर के गुजरात संस्करण दिव्य-भास्कर ने बहुत ही क्रांतिकारी हेड लाइन बनाते हुए प्रदेश अध्यक्ष महोदय का फोन नंबर ही हेड-लाइन के रूप में छाप दिया. मध्यप्रदेश के भाजपा नेताओं को ले कर भी ऐसी खबरों का बाजार गर्म है.
गुजरात के मुख्यमंत्री का बयान बताता है कि राज्य सरकार किस तरह अपनी जिम्मेदारी से भाग रही है. इस पूरे प्रकरण पर जांच का आदेश देने के बजाय बेचारगी दर्शाना इस महामारी से निपटने के सरकारों के रवैये को ही बता रहा है. यदि यह बेहिसी और क्रूर हो जाने का नजारा नहीं तो और क्या है? सवाल यह है कि मध्यप्रदेश हो या महाराष्ट्र या कोई भी अन्य राज्य या फिर केंद्र सरकार ही क्यों न हो, किसी ने भी लॉकडाउन के बाद किसी भी तरह के बचाव के लिए कोई तैयारी नहीं की है. कोविड की यह लहर पहले से ही संभावित थी. इसके बावजूद सरकारों की भूमिका को लेकर उठने वाले सवालों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है.
बंगाल में चुनाव हो रहे हैं. चुनाव आयोग ने आठ चरणों में किन कारणों से चुनाव कराने का फैसला किया, यह अब रहस्य नहीं है. प्रधानमंत्री और गृहमंत्री की सभाओं या रोड शो के दृश्य बताते हैं कि कोविड को लेकर किस तरह की लापरवाही की जा रही है. अमित शाह ने मास्क लगाना भी जरूरी नहीं समझा. जब इसकी आलोचना हुई, तब जाकर वे मास्क में दिखने लगे. ऐसा नहीं कि बंगाल में कोविड का कहर नहीं है. बंगाल में मार्च की तुलना में इस महीने कोविड पॉजिटिव मरीजों की संख्या बीस गुना ज्यादा हो चुकी है. चिकित्सकों के संगठन वेस्ट बंगाल डॉक्टर्स फोरम ने चुनाव आयोग को पत्र लिख कर कोविड विस्फोट के बारे में सचेत करते हुए चुनावों को लेकर अपनी आपत्ति दर्ज की, लेकिन इस संगठन के पत्र को नजरअंदाज कर दिया गया.
विशेषज्ञों की चिंता के बावजूद राजनीतिक दलों और उनके नेताओं को फर्क नहीं पड़ रहा है. किसी भी सभा में प्रधानमंत्री और गृहमंत्री समेत किसी भी दल का कोई नेता कोविड विस्फोट को लेकर सतर्क करता नहीं नजर आ रहा. पिछले साल तो ट्रंप के नमस्ते इंडिया कार्यक्रम को लेकर कोविड के संदर्भ में भारी आलोचना की जा चुकी है. बावजूद चुनावों में कोविड गाइडलाइन को मजाक बना दिया गया है. बंगाल के आंकड़े बता रहे हैं कि बंगाल में जहां 10 मार्च को कोरोना के 222 नये केस आये थे, वहीं 10 अप्रैल को यह संख्या 2691 दर्ज की गयी है. जाहिर है चुनाव के समय टेस्टिंग, ट्रेसिंग और ट्रीटमेंट तीनों ही उपेक्षित है. चुनाव के बाद बंगाल वैसा ही नजारा देख सकता है, जैसा उसने आजादी के कुछ पहले अकाल में फैली बीमारी का देखा था. यह अनुमान बंगाल के मेडिकल जानकारों का है. तमिलनाडु जहां चुनाव खत्म हो चुके हैं, वहां के आंकड़े भी भयावह हैं. 10 अप्रैल को वहां 4370 नये मामले आये हैं. बीबीसी की एक खबर में बताया गया है कि बंगाल में चुनाव के बाद भयावह दृश्य देखने को मिल सकता है.
जब कोविड की कई संभावित लहरों की बात पहले से की जाती रही है, तो भारत ने रोकथाम के लिए बेहतर सिस्टम क्यों नहीं खड़ा किया. इस बार तो न ही बच्चे और न ही युवा महफूज है. पहले से खराब देश का आर्थिक प्रबंधन एक बार फिर संकट में फंसता हुआ दिख रहा है. जिस तरह का भरोसा लोगों में पैदा करने की जरूरत थी, उस कर्तव्य का निर्वाह नहीं किया गया. सवाल उठता है कि इस तबाही के माहौल को लेकर क्या अब भी गंभीरता है? मेडिकल विशेषज्ञों को चेतावनियों और सुझावों को गंभीरता से क्यों नहीं लिया जा रहा. सरकारों के दावों के बावजूद पूरा हेल्थ सिस्टम बेबस दिख रहा है.
राजनीतिक सिस्टम के लिए यह सबसे बड़ी चुनौती है कि वह स्वास्थ्य सेवा की लाचारगी को खत्म कर लोगों की परेशानियों को कम करे.
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