Dr. Kaushlendra “Batohi”
आज के प्रगतिशील एवं प्रौद्योगिकी युक्त भारतीय समाज में अक्सर आत्महत्या के कारण सुने जा सकते हैं. मनुष्य के जीवन जीने के तौर-तरीकों को आसान बनाने की तमाम कोशिशों के बावजूद आत्महत्या की दर दिन पर दिन बढती जा रही है. एनसी आरबी के आंकड़े के अनुसार, देशभर में 2019 में कुल 1,39,123 आत्महत्या के मामले प्रतिवेदित हुए. जबकि 2021 में यह संख्या बढ़कर 164033 पहुंच गयी, जो 2020 के आंकड़ों से 7.2 प्रतिशत ज्यादा है. यह समस्या केवल भारत में ही नहीं है, अपितु पूरा विश्व इससे प्रभावित है. 2019 में अमेरिका में आत्महत्या के समस्त कारणों में अवसाद दूसरा कारण था. साथ ही साथ समस्त विश्व में 15 से 44 आयु वर्ग के महिलाओं की मृत्यु का भी दूसरा प्रमुख कारण यही है. यही इस उम्रवर्ग के पुरुषों की मृत्यु का चौथा प्रमुख कारण है. इसलिए इस मुद्दे की व्यापकता एवं आक्रामकता का एहसास किया जा सकता है. यह आत्महत्या प्रमुखतः युवाओं के बीच है और यह अवसाद के कारण पनपता है. अगर थोड़ा बृहद पैमाने पर गौर करें तो पायेंगे कि आत्महत्या की प्रवृत्ति किसी भी व्यक्ति में अचानक नहीं आती है. यह प्रवृत्ति विकसित होने में लम्बा समय लेती है. व्यक्ति पहले अवसाद ग्रस्त होता है और अवसाद के प्रति अज्ञानता, उसके प्रति अनभिज्ञता या उसका अनदेखा करना उसके जीवन लीला की समाप्ति का कारण होता है. इसके बहुत सारे कारण हैं.
प्रमुखतः पारिवारिक कलह, प्यार भरे रिश्ते के बीच के मुद्दे, सामाजिक अलगाव, सामाजिक भय, खराब अकादमिक प्रदर्शन या फिर आत्मसम्मान की कमी के साथ- साथ आर्थिक मोर्चे पर असफलता प्रमुख है. अवसाद के प्रमुख कारणों पर हम गौर करते हैं तो पाते हैं, यह केवल एक व्यक्तिगत मुद्दा नहीं है, जो व्यक्ति के आचार-व्यवहार, प्रदर्शन पर निर्भर करता है, अपितु इसमें समाज, परिवार, दोस्त, सहकर्मी, सहपाठी सबकी कुछ-कुछ भूमिका है. इसलिए अवसाद ग्रसित व्यक्ति की पहचान, उसके आचार-विचार, व्यवहार में होने वाले परिवर्तन का अवलोकन प्रथम दृष्ट्या इन्हीं लोगों के स्तर पर हो सकता है. अगर व्यक्ति समस्या ग्रस्त है, उसके व्यवहार में अचानक परिवर्तन हो रहा है तो उसे सबसे पहले परामर्श प्रदान करते हुए, उसे विश्वास देते हुए डॉक्टर के पास उचित इलाज कराकर बचाया जा सकता है. जरूरत है व्यक्ति के दर्द पर मरहम लगाते हुए उसके मूल कारण तक पहुंचते हुए सामाजिक, परिवारिक स्तर पर विशेषज्ञ की सलाह से उबारा जाए.
समाज को जागरूक करने की भी जरूरत है कि अवसाद एक बीमारी है और समय रहते चिकित्सकीय मदद से इसका इलाज किया जा सकता है और व्यक्ति, पूर्णत: निरोग हो सकता है. 2021 के आंकड़ों के अनुसार सर्वाधिक आत्महत्या दर में वृद्धि महाराष्ट्र(13.5%) एवं तमिलनाडु (11.5%) में दर्ज की गई. गौर करने की बात है कि दोनों तुलनात्मक रूप से भारत के विकसित एवं आर्थिक रूप से संपन्न प्रदेश हैं. फिर भी आत्महत्या दर ज्यादा है. अगर आंकड़ों पर गौर किया जाए तो आत्महत्या के समस्त कारणों में पारिवारिक कलह के कारण 33.2%, नशाखोरी के कारण 6.47%, युवा एवं युवतियों के बीच प्यार के सबंधों के कारण 4.6.%, शादी संबंधी समस्याओं के कारण 4.81%, बेरोजगारी 2.2% एवं परीक्षा में असफलता के कारण 1.0% है. पारिवारिक कलह के कारण युवाओं में जो 30 से 44 आयु वर्ग के हैं, सर्वाधिक आत्महत्या रिपोर्ट की गई है. जो परिवार भारतीय समाज का सर्वाधिक सुंदर एवं मजबूत कड़ी था, एक कमजोर कड़ी में क्यों बदलता जा रहा है? संचार माध्यमों में विकास हुआ है, यातायात के विकसित नेटवर्क के कारण दूरियां भी कम हुई हैं, सोशल साइट पर भी समस्त लोग रिश्तों की खूबसूरती को प्रदर्शित करते हैं, फिर परिवार में भी यह अकेलापन क्यों?
यह विचारणीय मुद्दा है. एकल परिवार, एकल बच्चों की प्रथा, आभासी दुनिया में व्यस्त होना, दिल से जुड़ने के बजाय दिखावा की जिंदगी, त्याग की प्रवृत्ति के खोने के कारण सामंजस्य की कमी प्रमुख कारण है. व्यस्त जीवन होने के कारण पारिवारिक रिश्तों को गुणवत्ता पूर्ण समय नहीं देना भी एक दुराव का कारण है, जो छोटी-छोटी समस्या भी अवसाद का कारण बन जाता है. पहले छुट्टियों में लोग बच्चों के साथ अपने पारिवारिक रिश्तेदारों के यहां जाते थे, जो भावनात्मक रूप से बच्चों का परिवार से जुड़ने का एक कारण बनता था, परन्तु वर्तमान समय में आर्थिक संपन्नता या सामाजिक प्रतिस्पर्धा एवं निजी जिंदगी के नाम पर पर्यटन स्थलों पर जाते हैं जो परिवारों को जुड़ने का अवसर प्रदान नहीं करता है.
अगर आर्थिक समानता नहीं है तो मानसिक रूप से अलगाव एवं हीन भावना का कारण बनता है. इसलिए जरूरी नहीं है कि हम अच्छे फोटोग्राफ या अच्छे मुहावरों के साथ-साथ ही रिश्तों को जोड़ पायें, परन्तु जरूरी यह है कि रिश्तों की जड़ों में हम पानी देकर उसे एक लहलहाते फलदार वृक्ष के रूप में विकसित करें, जो समय पर परिवार के हर सदस्य को छांव या फल के साथ तृप्त करे और इस समस्या के समाधान का कारण बने. आजकल युवाओं में भी सबसे ज्यादा अवसाद के लक्षण पाये जाते हैं, जो अकादमिक जिंदगी एवं पेशेवर रूप से सफल भी है. क्या हम इन युवाओं को उनके आभासी रागात्मकता की दुनिया से बाहर लाकर मैदानी खेल, गवाही, बहस, सामूहिक खेल या सामूहिकता का बोध कराने वाले आयोजनों में सम्मिलित करने के लिए प्रोत्साहित कर सकते हैं? स्वामी विवकानंद बताते हैं कि “लोग भगवत गीता पढ़ने के बजाय फुटबॉल खेलें”.
यह हमारी नई पीढ़ी के लिए अनुकरणीय है. धार्मिक त्योहारों के साथ-साथ सामाजिक आयोजनों को पूर्णतः परंपरागत नहीं कर उनमें आधुनिकता का सामायोजन करते हुए युवाओं को मानसिक एवं शारीरिक रूप से जोड़ना भी अवसाद, अकेलापन को कम करने में सहायक होगा. यह एक मजबूत सामुदायिक भावना विकसित करेगा, जो युवाओं को समाज के साथ जुड़ने को प्रोत्साहित करेगा. अध्यापकों के पास विद्याथियों की समस्याओं के समाधान के लिए समय की कमी रहती है, जिससे चर्चा-परिचर्चा व्यक्तिगत स्तर पर छात्रों के साथ नहीं करते हैं. छात्र शिक्षक अनुपात अत्यधिक होने कारण व्यावहारिक रूप से सामंजस्य बनाना कठिन हो गया है.
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.
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