Shravan Garg
मणिपुर के पहले संसद में बहस शायद जयपुर-मुंबई सुपर फास्ट एक्सप्रेस में घटी त्रासदी पर होना चाहिए और प्रधानमंत्री से जवाब भी मांगा जाना चाहिए! चलती ट्रेन में हुई त्रासदी और उसके मुख्य पात्र द्वारा उसकी ही गोली के शिकार हुए चार लोगों में से एक के शव पास खड़े होकर दी गई नफरती स्पीच पर अगर बहस हो जाए तो फिर मणिपुर, मोनू मानेसर और हरिद्वार पर भी अपने आप हो जाएगी! चेतन सिंह अब किसी व्यक्ति विशेष का नाम नहीं रहा. हो सकता है इस नाम का उस शख़्सियत से कोई ताल्लुक़ ही स्थापित नहीं हो पाए, जो उस दुर्भाग्यपूर्ण रात सूरत स्टेशन पर अपने बॉस और अन्य सहयोगियों के साथ एस्कॉर्ट ड्यूटी के लिए ट्रेन पर सवार हुआ था. एस्कॉर्ट ड्यूटी बोलें तो यात्रियों की सुरक्षा के लिए ट्रेन में चलने वाला रेलवे प्रोटेक्शन फ़ोर्स (आरपीएफ़) का अमला.
कांस्टेबल चेतन सिंह या तो ख़ुद ही भूल गया होगा कि उसने क्या अपराध किया है या उसके परिवार सहित जो ताक़तें उसे मानसिक रूप से विचलित, विक्षिप्त अथवा अवसाद-पीड़ित साबित करने में जुटी हैं, वे उसकी याददाश्त का गुम हो जाना सिद्ध कर देंगी! ‘गज़नी’फ़िल्म के नायक संजय सिंहानिया को ऐसी बीमारी होती है, जिसमें वह पंद्रह मिनिट से ज़्यादा पुरानी बात भूल जाता है. व्यक्ति ही नहीं, हुकूमतें भी जब सत्ता की असुरक्षा या किन्हीं अन्य कारणों से अवसाद अथवा विक्षिप्तता की शिकार हो जाती हैं तो बड़े-बड़े हत्याकांडों, आगज़नियों और मानवीय चीत्कारों को पलक झपकते ही भूल जाती हैं.
मीडिया की खबरों में बताया गया है कि कांस्टेबल को घटना के बाद जब मुंबई की एक अदालत में पेश किया गया तो घटना का प्रस्तुत विवरण उस जानकारी से कुछ भिन्न था, जो जनता के बीच और मीडिया में प्रचारित है. मसलन, बताया गया है कि सांप्रदायिक नफ़रत से भरे उसके भाषण और उससे संबद्ध धाराओं का आरोपों के विवरण में कथित तौर पर उल्लेख नहीं किया गया. खबरों के मुताबिक़, सुनवाई के दौरान मीडिया की उपस्थिति भी प्रतिबंधित थी. चेतन सिंह अब किसी का भी नाम हो सकता है! जैसे हरिद्वार, हाशिमपुरा, हाथरस, कश्मीर घाटी या मणिपुर. उसे किसी हुकूमत का नाम या प्रतीक भी माना जा सकता है. उसके द्वारा दी गई जिस ‘हेट स्पीच’ का उल्लेख बहु-प्रचारित वीडियो में है उसमें नया कुछ भी नहीं है. हरिद्वार की ‘धर्म संसद’ में दो साल पहले दिये गये नफ़रती भाषणों से उसके कहे का मिलान किया जा सकता है. प्रकाशित विवरणों के मुताबिक़, आरपीएफ के कांस्टेबल द्वारा हत्याकांड के बाद कुछ इस प्रकार की स्पीच दी गई थी : ‘अगर वोट देना है तो मैं कहता हूँ, मोदी और योगी ये दोनों हैं और आपके ठाकरे!’
हरिद्वार की ‘धर्म संसद’के तत्काल बाद एक बड़ी संख्या में बुद्धिजीवियों, न्यायविदों, सेवानिवृत्त अफ़सरों, पूर्व सैन्य अधिकारियों आदि ने ऐसी चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि देश को गृह युद्ध की आग में धकेला जा रहा है. अपील की थी कि पीएम को चुप्पी तोड़नी चाहिए. न तो पीएम ने चुप्पी तोड़ी और न ही संघ या भाजपा के किसी नेता ने देश में फैलाए जाने वाले सांप्रदायिक उन्माद की निंदा की. मणिपुर, हरियाणा और चलती ट्रेन में चुन-चुनकर यात्रियों की हत्या उसी मौन के नतीजे माने जा सकते हैं. सवाल पूछे जा सकते हैं कि अगर कोई व्यक्ति मानसिक तौर पर अस्वस्थ है तो (1) उसे यात्रियों की सुरक्षा से संबंधित एक महत्वपूर्ण सेवा में क्यों तैनात किया गया? (2) क्या कांस्टेबल के उच्चाधिकारियों को उसकी मानसिक बीमारी की जानकारी नहीं थी?, (3) क्या मानसिक तौर पर विचलित/विक्षिप्त/बीमार व्यक्ति इस स्थिति में हो सकता है कि जिन यात्रियों को गोलियों का निशाना बनाना है उनका चयन वह चलती हुई ट्रेन की आठ बोगियों और पेंट्री कार में घूम कर कर सके? क्या उसके हाथों मारे गये अल्पसंख्यक समुदाय के यात्री तथा अंतिम व्यक्ति के शव के पास खड़े होकर दी गई ‘हेट स्पीच’किसी संयोग अथवा मानसिक असंतुलन का परिणाम हो सकती है?
दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में होने वाले सामूहिक हत्याकांडों/नरसंहारों के निष्कर्ष यही बताते हैं कि घटनाओं को अंजाम देने वाले हत्यारे निरपराध लोगों की भीड़ पर बेरहमी से गोलियां चलाते हैं. हत्यारे न तो गोलियों का शिकार बनने वालों का उनके कपड़ों और शारीरिक प्रतीकों के आधार पर चुनाव करते हैं और न ही अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता दर्शाने वाली कोई ‘हेट स्पीच’देते हैं! किसी व्यक्ति को अगर उसके द्वारा किए गए जघन्य अपराध में इस शंका का लाभ मिल सकता है कि वह ग़ुस्सैल प्रकृति का है, मानसिक रूप से अस्वस्थ है तो फिर लगातार तनावों और असुरक्षा में जीने वाली हुकूमतों को भी नागरिक उत्पीड़नों के लिए ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जाना चाहिए. मणिपुर की घटना को भी उसी तरह के अपराध में शामिल किया जा सकता है! सवाल सिर्फ़ तत्कालीन हुकूमतों का ही नहीं है! नागरिकों की एक बड़ी आबादी भी कुछ तो व्यवस्था-जनित कारणों और कुछ निजी तनावों के चलते गहरे अवसाद और मानसिक बीमारियों की शिकार होती जा रही है.
समाज में अपराध और आत्महत्याएं बढ़ रही हैं. क्या सामान्य नागरिक भी किसी एक मुक़ाम या अंग्रेज़ी में जिसे ‘ट्रिगर’ या ‘टिपिंग पॉइंट’ कहते हैं, पर पहुंचकर दूसरों की जानें लेना प्रारंभ कर देंगे या फिर उन इंतज़ामों पर यक़ीन करना बंद कर देंगे, जिन्हें एक व्यवस्था के तहत सत्ताओं द्वारा सुरक्षा के लिए तैनात किया जाता है? यह भी हो सकता है कि नागरिक घरों से बाहर निकालना ही बंद कर दें! दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि अपनी ही राजनीतिक सुरक्षा में मशगूल सरकार को नागरिकों की बढ़ती असुरक्षा की थोड़ी सी भी जानकारी नहीं है !
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.
Leave a Reply