Dr. Kaushalendra Batohi
नैरेटिव या विमर्श किसी भी लोकतांत्रिक देश और उसके समाज के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण शब्द है, जो उस समाज में व्यवस्थागत रूप से सभी विचारधाराओं का प्रतिनिधित्व करने वाले लोग संप्रेषित करते हैं. यह नैरेटिव कभी-कभी समाज एवं देश के लिए हितकर होता है, उसके वैभव एवं देश के आम जनमानस को गौरवान्वित करता है और कभी-कभी झूठी या अर्द्ध सत्य को समाज में परोसकर उसकी विवेचना कर व्यवस्था, सरकार या समाज की किसी खास पहचान के खिलाफ बनाया जाता है. भले ही वह आगे चलकर देश और समाज के हित में नहीं होता है, परंतु लोकतंत्र को भीड़तंत्र की तरफ झुका देता है. अपने देश के परिप्रेक्ष्य में देखेंगे तो यह विशेषकर चुनावों के समय गढा जाता है. अभी हाल ही में सम्पन्न हुए 18 वीं लोकसभा के चुनाव में विपक्ष द्वारा चलाया गया नैरेटिव कि वर्तमान सरकार संविधान बदल देगी या आरक्षण खत्म कर देगी. यह एक उदाहरण है, जो मुद्दा इस बार चल निकला और जो समाज के निचले पैदान पर या गरीब हैं, अशिक्षित हैं, मजदूर हैं, उन्हें एहसास कराया गया कि भाजपा अगर आ गई तो सब बदल जाएगा, आरक्षण खत्म हो जाएगा, परन्तु वास्तविकता कुछ और है.
भाजपा जब-जब और जहां भी सत्ता में आई है, आरक्षण व्यवस्था को और मजबूत किया है. अनुसूचित जाति के मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को संसद के माध्यम से पलटा भी गया, परन्तु यह झूठी नैरेटिव खूब चली और विडंबना देखिए कि यह नैरेटिव किसने चलाया या फिर संविधान की रक्षा के नाम पर ही जो व्यक्ति खुद कैबिनेट के अध्यादेश को यह बोलते हुए कि “इज इट नानसेंस” और प्रेस के सामने फाड दिया.
वर्तमान दौर में जितने लोग संविधान की रक्षा की बात कर रहे हैं, उनमें अधिकांश लोगों की व्यक्तिगत पार्टियां हैं, परिवारिक पार्टियां हैं, एक-एक परिवार से पांच-पांच सांसद बने हैं और विमर्श चला रहे है लोकतंत्र की रक्षा की. यह कितना हास्यास्पद है. अनियंत्रित, बहुवैकल्पिक, पार्टी आधारित लोकतंत्र की यह कमज़ोर कड़ी भी है. राजनेता या उनके विचारों का प्रतिनिधित्व करने वाले बुद्धिजीवी वर्ग वोट के लिए झूठी ही सही, परन्तु कोई न कोई विमर्श खड़ा करते हैं और उस विमर्श को जोर-जोर से अपने सम्पूर्ण साधनों के माध्यम से समाज में गहराई तक फैलाने की कोशिश करते हैं. लोक
तंत्र में जब जनता को भावनात्मक बना दिया जाता है तो फिर गंभीर विमर्श या तर्क की गुंजाईश खत्म हो जाती है. चाहे भ्रष्टाचार पर हो, राजनैतिक अपराध पर हो, जाति आधारित नेताओं के मुद्दे हों, सब समाज पर, व्यवस्था पर भारी पडते हैं. ऐसा नहीं है कि ये नैरेटिव इस बार के चुनाव में पहली बार चला है. यह आजादी से पहले भी था और आजादी के बाद भी अनवरत रूप से चल रहा है. कभी सत्ता पक्ष नैरेटिव सेट करता है तो कभी विपक्ष की नैरेटिव चलती है. पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के खिलाफ बोफोर्स तोप घोटाले का नैरेटिव विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा चलाया गया और उस दौर में खूब चला, परन्तु सोचिए उस समय वीपी सिंह खुद वित्त मंत्री थे. अगर प्रधानमंत्री दोषी थे तो वितमंत्री कैसे पाक-साफ हो गये . संचिकाएं नीचे-से ऊपर चलती हैं और इसी आधार पर वह पूरा चुनाव लड़ा गया और साजिश सफल भी हो गयी.
इसी तरह आजाद भारत के इतिहास के पन्नों को पलटेंगे तो नैरेटिव के महत्वपूर्ण होने एवं उसके परिणाम का एहसास होगा. 1971 मे पाकिस्तान से युद्ध एवं बंगलादेश की आजादी के दौरान भारत के रक्षा मंत्री कौन थे? शायद ही उनका नाम भारत के आम लोग जानते है .पूरी की पूरी श्रेय श्रीमती इंदिरा गांधी को गया और उनके व्यक्तित्व और कृतित्व की खूब चर्चा हुई. वे भारतीय जन मानस के मानसिक पटल पर छा गईं और विमर्श सफल रहा, परन्तु उसी पार्टी के शासन में जब आर्थिक सुधार का दौर शुरू हुआ, वैश्वीकरण की तरफ भारतीय बाजार को खोला गया तो इसे आर्थिक ताकत एवं विकास के लिए क्रांतिकारी कदम बताया गया, परन्तु जब श्रेय देने की बारी आई तो तत्कालीन वित्तमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को मिला और उस समय के प्रधानमंत्री नेपथ्य में चले गये.
दो मुद्दे आजाद भारत के प्रमुख मुद्दों में रहे हैं, जिनका प्रभाव देश पर, समाज में, वैश्विक पटल पर दूरगामी रहा. यह नैरेटिव का ही कमाल था कि एक ही पार्टी के शासन के दौरान एक में प्रधानमंत्री का महिमामंडन हुआ और दूसरे में उसके वितमंत्री को श्रेय मिला. एक में रक्षामंत्री गौण हो गये और इतिहास के पन्नों में रह गये और दूसरे में प्रधानमंत्री इतिहास के पन्नों में खो गये. मतलब की उस दौर की शासन व्यवस्था एवं उसके सम्पोषित बुद्धिजीवी जो भी नैरेटिव धीरे-धीरे समाज में प्रेषित करते हैं, वह अपना प्रभाव छोडता है और कालान्तर तक समाज उससे उबर नहीं पाता है. इसी तरह बहुत सारे ऐसे सामाजिक एवं राजनैतिक मुद्दे भारतीय समाज में हैं, जिनपर किसी खास उद्देश्य से नैरेटिव गढ़ा गया और उसने भारतीय जनमानस के विचारों को प्रभावित किया और सत्ता के लिए एक ताकत के रूप काम किया.
इसी तरह विमर्श का मुद्दा है कि भारत का लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, सामूहिकता, बहुलतावाद आदि विदेशियों द्वारा दिया गया? क्या अंग्रेजी शासन व्यवस्था ने हमें एक देश का रूप दिया? यह भी प्रमुख मुद्दा है, जिसे आज भी अंग्रेज या विदेशी लोग उद्धृत करते हैं. क्या हम सत्य, प्रेम एवं करुणा, जो भारतीयता का मूल मंत्र है, उसपर आधारित नैरेटिव नहीं चला सकते? इससे देश के साथ-साथ समाज भी मजबूत होगा. अभी विभिन्न स्तर पर बाजार, विदेशी पूंजी और तकनीकी चमक पर आधारित विमर्श समाज में हैं और अधिकांश भारतीय इन तीनों को ही अपने वैभव एवं उन्नति का प्रतीक मानते हैं. आज भी हम कोई वैकल्पिक व्यवस्था विकसित नहीं कर पाये, जो इन सारे नैरेटिवों के बीच कभी सामन्जस्य स्थापित कर समाज के साथ-साथ व्यवस्था परिवर्तन का वाहक हो. नैरेटिव से सरकार का गठन हो सकता है, परन्तु समाज के लिए हमें एक मजबूत और टिकाऊ विचार के साथ आगे बढ़ना पड़ेगा, जो लोकतंत्र का निर्णय तार्किक एवं सारगर्भिता के साथ लेने में सहायक सिद्ध हो.
डिस्क्लेमर : ये लेखक के निजी विचार हैं.