बरई गांव में एक भी मुस्लिम नहीं, फिर भी हर साल अकीदत के साथ मनता है पर्व
Rajat Nath
Bokaro : आस्था धर्म से ऊपर है. इस बात को बोकारो जिले के नावाडीह प्रखंड का बरई गांव रेखांकित कर रहा है. गांव में एक भी मुस्लिम परिवार नहीं है. फिर भी वहां एक हिंदू परिवार 150 वर्षों से मुहर्रम का त्योहार अकीदत के साथ मना रहा है. इस साल भी वहां मुहर्रम मनाया गया. इसकी शुरुआत पूर्व जमींदार स्व. पंडित महतो ने की थी और उनके वंशज इसे परंपरा मानकर आज भी मुहर्रम पर एक सप्ताह पूर्व से ही ताजिया बनाने में लग जाते हैं और फिर मातम के त्योहार के दिन पूरे गांव में ताजिया घुमा कर कर्बला के मैदान में दफन कर दिया जाता है. गांव के अन्य लोग भी इसमें हिस्सा लेते हैं. पूर्व जमींदार पंडित महतो के परिवार ने अपनी जमीन पर इमामबाड़ा और कर्बला भी बना रखा है. शनिवार को गांव के लोगों ने इमामबाड़ा और कर्बला में ताजिया बनाने से पहले फातिहा पढ़ा. बुधवार को ताजिया पूरे गांव में घुमा कर गांव के कर्बला में दफन किया गया.
पंडित महतो को दी जा रही थी फांसी, 3 बार खुल गया था फंदा
स्व. पंडित महतो के वंशज सहदेव साव, योगेंद्र साव, चिंतामणि साव, रवि कुमार, सुरेश साव, उपेंद्र साव, शंभू साव, जीतेंद्र साव, कुंदन कुमार आदि ने बताया कि उनके पूर्वज बरई गांव के जमींदार थे. आजादी के पूर्व पास के गांव बारीडीह के तत्कालीन जमींदार से सीमा विवाद को लेकर खूनी संघर्ष हुआ था. इस मामले में हजारीबाग न्यायालय में केस दायर किया गया. कोर्ट ने स्व. पंडित महतो को फांसी की सजा सुनाई. फांसी का दिन मुहर्रम था. जब उनसे उनकी अंतिम इच्छा पूछी गई, तो उन्होंने मुजावर से फातिहा सुनने की इच्छा जताई. वंशजों ने बताया कि उनकी इच्छा पूरी होने के बाद फैसले के अनुसार उन्हें फांसी पर चढ़ाने के लिए ले जाया गया. लेकिन फांसी का फंदा तीन बार खुल गया. ब्रिटिश कानून के तहत उन्हें रिहा कर दिया गया.
रिहाई के बाद इमामबाड़ा व कर्बला का निर्माण कराया
रिहाई के बाद पंडित महतो ने नावाडीह प्रखंड के सहरिया गांव के मुजावर की देखरेख में बरई गांव में इमामबाड़ा और कर्बला का निर्माण कराया. मुहर्रम के मौके पर फातिहा पढ़ा और ताजिया बना कर जुलूस निकाला. तब से स्व. पंडित महतो के वंशज इसे परंपरा के रूप में आज तक निभाते आ रहे हैं.
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