- प्रदेश की राजनीति में चमके कई सितारे, लेकिन 2-4 साल में ही चमक हो गई फीकी
Ranchi : झारखंड में नेताओं की बहार है, लेकिन जननेता की भारी कमी है. देश और विश्व में झारखंड का पॉलिटिकल फेस सिर्फ तीन ही लोग हैं. बाकी जितने भी राजनीतिक सितारे यहां चमके, उनकी चमक साल, दो साल, 5 साल या 10 से ज्यादा नहीं रही. दिशोम गुरु शिबू सोरेन जैसा लोकप्रिय नेता पिछले 5 दशक में झारखंड में दूसरा कोई नहीं हुआ. वहीं शिक्षक से राजनेता बने बाबूलाल मरांडी दूसरे सबसे ज्यादा लोकप्रिय जननेता बनकर उभरे. तीसरे जननेता के विकल्प के तौर पर जेएमएम से बीजेपी में आये अर्जुन मुंडा उभरे. प्रदेश की राजनीति में बुरे दौर से गुजरने के बाद भी इनकी लोकप्रियता में कमी नहीं आयी. केंद्रीय मंत्री, मुख्यमंत्री का पद गया, संगठन से भी दरकिनार हुए. राजनीतिक सक्रियता भी कम हुई. इसके बाद भी जनता इन्हें नहीं भूली. आज भी ये झारखंड की राजनीति के सबसे मजबूत स्तंभ के तौर पर खड़े हैं.
विकल्प के तौर पर उभरे हेमंत, रघुवर और सुदेश
संघर्ष कर झारखंड की राजनीति में कई नेता आये. अपने विधानसभा क्षेत्र से चुनाव जीत कर प्रदेश की राजनीति में सक्रिय भी हैं, लेकिन एक बड़े जननेता की तौर पर इनकी पहचान नहीं बनी है. पूर्व सीएम रघुवर दास, मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन और आजसू सुप्रीमो सुदेश महतो राज्य में दूसरी पीढ़ी के लोकप्रिय नेताओं में शामिल हैं. प्रदेश की राजनीति में इन्होंने अपनी पहचान अपने बूते बनाई है, लेकिन राजनीति के दांव-पेंच में माहिर ये तीनों नेता अभी भी लोकप्रियता के उस मुकाम पर नहीं पहुंच पाये हैं. जनता इन्हें विकल्प के तौर पर पसंद करती है, क्योंकि दूसरे पायदान पर इनके अलावा कोई विकल्प नहीं है.
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अब पार्टियां देती हैं नेताओं को पहचान
बीते दो दशक में प्रदेश की राजनीति का तौर-तरीका काफी बदल गया है. पहले जहां नेताओं से पार्टियों की पहचान होती थी. वहीं अब पार्टियां नेताओं को पहचान दे रही है. कॉरपोरेट कंपनियों की तर्ज पर राजनीतिक दलों का संचालन हो रहा है. अब जननेता नहीं, पार्टी पदाधिकारी बनने की होड़ लगी है. सभी राजनीतिक दल अब पदाधिकारियों के निर्देश पर चल रहे हैं. पदाधिकारी भी वैसे, जो पिछले दरवाजे से आये हैं. उन्हें जनता ने चुनकर नहीं भेजा. पार्टी के बड़े नेताओं ने इन्हें का पदाधिकारी बनाकर पूरी ताकत सौंप दी. जो न सिर्फ पार्टी कार्यकर्ताओं को हांकते हैं, बल्कि चुनाव जीतकर मंत्री और विधायक बने नेताओं पर भी हुक्म चलाते हैं. दुर्भाग्य देखिये, जिन लोकप्रिय जननेताओं की हम बात कर रहे हैं, वे भी संगठन के नियमों के तहत पदाधिकारियों के निर्देश पर ही काम कर रहे हैं.
कई नेता तो पिछले दरवाजे से भी आये
झारखंड में कई नेता ऐसे भी हैं जो पिछले दरवाजे से आये हैं या जनता पर जबरदस्ती थोपे गये हैं. कुछ ऐसे भी नेता हैं जिन्हें परिस्थितियों ने नेता बनाकर जनता के बीच ला दिया. ऐसे नेताओं की फेहरिस्त बहुत लंबी है. किसी को राजनीतिक घराने में पैदा होने का लाभ मिला तो किसी सहानुभूति का लाभ. पूर्व केंद्रीय मंत्री जयंत सिन्हा भी इन्हीं में से एक हैं. यशवंत सिन्हा के पुत्र जयंत विदेश से पढ़कर आये. अचानक चुनाव लड़े और सांसद बने. केंद्रीय नेतृत्व ने उन्हें मंत्री का पद भी दे दिया. राजेंद्र सिंह के निधन के बाद अनूप सिंह उनकी विरासत संभाल रहे हैं. वहीं गोड्डा विधायक अमित मंडल भी अपने पिता के निधन के बाद विधायक बने. हाजी हुसैन अंसारी के पुत्र हफीजुल हसन को बिना चुनाव लड़े विधायक बना दिया गया और बाद में एड़ी-चोटी एक कर उन्हें सरकार ने विधायक भी बनवा ही दिया. शिबू सोरेन के पुत्र और हेमंत के भाई बसंत सोरेन भी लगातार जनप्रतिनिधि बनने की कोशिश करते रहे. आखिरकार इस बार किस्मत ने साथ दिया और अपने परिवार की विरासत को संभालने के लिए वे भी नेता बन ही गये.
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नेता नहीं, अब पद बोलता है
अब बात पार्टियों के पदाधिकारियों की करते हैं. बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष दीपक प्रकाश वर्षों से बीजेपी से जुड़े हैं. कार्यकर्ता से प्रदेश अध्यक्ष बने. कभी चुनाव लड़ने का मौका नहीं मिला. जनता के बीच नहीं गये. किस्मत ने ऐसी पलटी मारी कि एक ही झटके में प्रदेश अध्यक्ष के साथ-साथ राज्यसभा सांसद भी बन गये. वहीं प्रदेश कांग्रेस का कोई नेता लोकप्रियता के शिखर तक नहीं पहुंच पाया. झारखंड से सुबोधकांत सहाय ऐसे नेता रहे, जो केंद्रीय स्तर पर बड़ा नाम बने. केंद्र की सरकारों में महत्वपूर्ण मंत्रालयों को संभाला लेकिन झारखंड में जननेता के तौर पर पहचान नहीं बना सके. अब तो प्रदेश कांग्रेस में भी वे हाशिये पर दिखाई देते हैं. झारखंड में कांग्रेस का प्रदेश नेतृत्व रामेश्वर उरांव के हाथ में है. भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी रहे रामेश्वर उरांव केंद्रीय मंत्री भी रहे हैं, लेकिन एक जननेता के तौर पर पहचान नहीं बना सके. उन्हें प्रदेश अध्यक्ष के साथ-साथ राज्य में मंत्री का पद भी मिला है. उधर जेएमएम महासचिव सुप्रियो भट्टाचार्य लंबे समय से संगठन से जुड़े हैं. वोकल हैं, लेकिन कभी चुनाव नहीं लड़े और न जननेता बनने की कोशिश की. आजसू की तो पूरी बागडोर सुदेश महतो ने अपने हाथों में थाम रखी है. सुदेश एक समय प्रदेश की राजनीति की धुरी भी बने, लेकिन फिलहाल वे समय और मौके का इंतजार कर रहे हैं.