Prafulla kolkhyan
याद किया जाना जरूरी है कि भारतीय जनता पार्टी का राजनीतिक दुस्साहस 2019 के चुनाव परिणाम से आसमान छूने लगा था. भारतीय जनता पार्टी की विभेदकारी प्रवृत्ति और शासकीय नीति भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति को तहस-नहस करना शुरू कर दिया. ‘सब कुछ’ इस तरह से केंद्रीकृत होने लगा कि भारतीय-संस्कृति और इतिहास के जानकार लोग हतप्रभ होते चले गये. यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ और उसके राजनीतिक संगठन अखिल भारतीय जनसंघ के मन में सक्रिय भारतीय-संस्कृति की एकार्थी और ऐकिक समझ विभेदकारी दृष्टि भरी हुई थी. राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ को इस बात पर कभी यकीन ही नहीं था कि भारत से ब्रिटिश-हुकूमत की विदाई भी हो सकती है! मगर हो गई. स्वतंत्र भारत के पहले आम चुनाव के ठीक पहले अखिल भारतीय जनसंघ की स्थापना हुई. नव-स्थापित राजनीतिक दल अखिल भारतीय जनसंघ के तीनों संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी, प्रोफेसर बलराज मधोक और दीनदयाल उपाध्याय भारतीय संस्कृति में निहित सहमिलानी तत्व और गंगा-जमुनी संस्कृति के बहुलतावादी स्वभाव से पूरी तरह से अ-सहमत थे. इस नव-स्थापित राजनीतिक का चुनाव चिह्न दीपक था. तब भारत के लोगों को ठीक-ठीक पता था कि इस दीपक में ‘रोशनी’ बहुत कम और ‘जलन’ बहुत अधिक है! पहले आम चुनाव में अखिल भारतीय जनसंघ को तीन संसदीय क्षेत्र में जीत मिली थी. भारत के आम लोगों के मन पर राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ के ‘झूठ के प्रयोग’ का कोई असर नहीं पड़ा.
आजादी के आंदोलन में शरीक राजनीतिक चेतना और दल के लिए राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ और अखिल भारतीय जनसंघ के साथ किसी भी प्रकार का राजनीतिक संबंध रखना संभव नहीं था. भारत के राजनीतिक दलों के बीच अखिल भारतीय जनसंघ बिल्कुल अलग-थलग था. इंदिरा गांधी के शासन-काल में लगी इमरजेंसी के विरोध में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में चले राजनीतिक आंदोलन ने अखिल भारतीय जनसंघ के राजनीतिक अलगाव को समाप्त कर दिया. ध्यान में होना चाहिए कि जयप्रकाश नारायण खुद आजादी के आंदोलन के एक बड़े व्यक्तित्व थे.
इमरजेंसी के विरोध के आंदोलन और जनता पार्टी सरकार की विफलता के बाद की राजनीतिक परिस्थिति में भारतीय जनता पार्टी का जन्म हुआ. राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ और पहले के अखिल भारतीय जनसंघ के भारत में राजनीतिक अलगाव के कारणों के सारे चिह्नित बिंदुओं को विलोपित करने की कामयाब कोशिश भारतीय जनता पार्टी ने की. इस कोशिश में नई वैश्विक परिस्थिति और दक्षिण-पंथ की राजनीति के प्रति पूंजीवाद के बढ़ते झुकाव से भी काफी मदद मिली. आजादी के आंदोलन के दौरान संचित राजनीतिक स्मृति पर भी धुंधलापन छाने लगा. भारत के आम लोगों और मतदाताओं की नजर में भारतीय जनता पार्टी और अन्य राजनीतिक दलों के बीच का अंतर मिट गया. जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में इमरजेंसी के विरुद्ध हुए राजनीतिक संघर्ष के दौरान राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ और अखिल भारतीय जनसंघ को जो वैधता मिली थी. इसका राजनीतिक लाभ बदली हुई राजनीतिक परिस्थिति में भारतीय जनता पार्टी को मिला, लेकिन 2024 तक आते-आते भाजपा की पोल-पट्टी खुलने लगी. नैसर्गिक हिंदुओं को विश्वास हो गया कि संगठित-हिंदुत्व की राजनीतिक दृष्टि भारतीय जीवन के हित के लिए अनिवार्य सामाजिक समरसता और सांस्कृतिक संतुलन को तहस-नहस करनेवाली है.
मतदाताओं का भरोसा जगाने के लिए जिस तरह की ‘सघन-दर-सधन’ राजनीतिक कार्रवाई और आंदोलन की जरूरत होती है. यह सब दो कारणों से बहुत मुश्किल था.
पहला यह कि भारतीय जनता पार्टी जैसी धन-शक्ति और राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ जैसी विराट सांगठनिक शक्ति का जुगाड़ विपक्षी गठबंधन (इंडिया अलायंस) के पास नहीं था. कांग्रेस के पास भी नहीं था. फिर भी इंडिया अलायंस के घटक दल आंदोलन में जाने के लिए तैयार तो थे लेकिन राजनीतिक भरोसे का वातावरण बना नहीं पा रहे थे. ऐसे में जाहिर है कि पहल की उम्मीद कांग्रेस पार्टी से ही थी. ऐसे में कांग्रेस के नेता राहुल गांधी की पहलकदमी से अ-विश्वास का वातावरण विश्वास के वातावरण में बदलने लगा. राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा और भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ ने कमाल कर दिया. ‘भारत जोड़ो यात्रा’ से जो राजनीतिक माहौल बना उसने ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ को एक बड़े राजनीतिक आंदोलन में बदल दिया.सरकार शासकीय शक्ति का ‘उपयोग’ करते हुए 25 जून को संविधान हत्या दिवस मनाना चाहती है ताकि वह लोगों को बता सके कि वह जीवित संविधान को नहीं मृत संविधान को बदलना चाहती है. मुश्किल यह कि इसका रास्ता और इस रास्ते पर चलने की ताकत भी संविधान के अलावा और कहीं से नहीं और से नहीं प्राप्त हो सकती है. 25 जून को संविधान हत्या दिवस मनाने की घोषणा जैसी हरकत का मतलब फिर वही है, अर्थात जनता का ध्यान देश की वास्तविक समस्याओं से, देश के असली मुद्दों से भटकाना है.
इंडिया अलायंस को भारतीय जनता पार्टी के द्वारा किये जा रहे भटकाव के प्रयासों से दूर ही रहना चाहिए. एक बात ध्यान में रखना ही चाहिए कि जिस तरह समय ने भारत के लोगों के मन में आजादी के आंदोलन के दौरान अर्जित मूल्य-बोध की आभा को कम किया है, उसी तरह से इमरजेंसी की पीड़ाओं और कष्टों के तीखेपन को भी वक्त ने कम कर दिया है. यह ठीक है कि आजादी के आंदोलन की कहानियां कांग्रेस की कोई राजनीतिक मदद नहीं कर सकती है, तो उसी प्रकार इमरजेंसी की कहानियां भी भारतीय जनता पार्टी के कोई काम नहीं आ सकती है. संविधान हत्या दिवस की घोषणा ध्यान भटकाने के अलावा कुछ नहीं है. कभी गाड़ी पर नाव, तो कभी नाव पर गाड़ी! कभी राजनीति इतिहास बनाती है और कभी इतिहास राजनीति की दशा-दिशा तय करने लगता है. लगता है भारत में इस समय इतिहास राजनीति की दशा-दिशा तय कर रहा है, लेकिन वास्तविक इतिहास तो आम लोगों के हाथ से बनता है.
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.
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